Columnist

सबके स्वास्थ्य के लिए नयी कवायद

डॉ. संजय शुक्ला
पंद्रह सालों बाद केन्द्र की एनडीए सरकार ने नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति संसद में पेश कर दिया है.
इसके पहले 2002 में लागू स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य सभी नागरिकों को बेहतर चिकित्सा सेवा और सस्ती दवा उपलब्ध कराना था लेकिन यह नीति अपने लक्ष्य में लगभग नाकाम रही. बहरहाल नयी नीति में बदलते सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, नवीन प्रौद्योगिकी एवं नये-नये बीमारियों की चुनौतियों के दृष्टिगत जनस्वास्थ्य के सभी आयामों को शामिल किया गया है. नयी स्वास्थ्य नीति में जहां सरकार ने निजी निवेश को प्रोत्साहित करने की योजना बनायी है, वहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के उन्नयन तथा विशेषज्ञीकरण पर भी जोर दिया गया है, अभी तक ये स्वास्थ्य केन्द्र महज प्रसव पूर्व जांच, टीकाकरण तथा मामूली बीमारियों के इलाज तक ही सीमित थे. अब इस व्यवस्था में व्यापक बदलाव प्रस्तावित है ताकि देश के 80 फीसदी लोगों को सरकारी अस्पतालों में मुफ्त या रियायती दरों पर दवा, जांच और डॉक्टरी परामर्श मिल सके.

इस नीति में मरीजों को निजी अस्पतालों में भी इलाज करवाने की छूट मिलेगी तथा इनका भुगतान स्वास्थ्य बीमा योजना के द्वारा किया जायेगा. गौरतलब है कि आज देश में लगभग 80 प्रतिशत लोग विशेषज्ञ परामर्श तथा लगभग 60 प्रतिशत लोग भरती के लिए निजी अस्पतालों की शरण लेने के लिए मजबूर हैं जिसका भुगतान उन्हें अपने जेब से ही करना पड़ता है. एक सर्वेक्षण के अनुसार निजी अस्पतालों की सुविधाएं सरकारी अस्पतालों की तुलना में दो से नौ गुना तक महंगी है. नयी नीति में स्वास्थ्य के क्षेत्र में डिजिटलाइजेशन पर जोर दिया गया है तथा प्रमुख बीमारियों को खत्म करने के लिए समय सीमा भी तय की गयी है और गलत इलाज पर मरीजों के शिकायत और अन्य विवाद के शीघ्र निबटान के लिए ट्रिब्यूनल के गठन का प्रावधान किया गया है.

नयी नीति में बेहतर राष्ट्रीय स्वास्थ्य को लक्ष्य बनाते हुए मातृ एवं शिशु मृत्युदर को कम करने तथा मधुमेह, हृदयरोग एवं उच्चरक्तचाप जैसे गैर संचारी रोगों को नियंत्रित करने के लिए कार्य योजना बनाई गयी है. विचारणीय है कि आधुनिक जीवन षैली व प्रदूषण के चलते भारत के बच्चे, युवा और बुजुर्ग बड़ी तेजी से मधुमेह, हृदय और उच्चरक्तचाप जैसे गैर संचारी रोगों का शिकार हो रहे हैं, वहीं कुपोषण और टी.बी. जैसे रोग वैश्विक परिदृश्य में भारत के साख पर बट्टा लगा रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के आंकड़ो के अनुसार हृदयघात से मौत का वैश्विक औसत जहां प्रति एक लाख व्यक्तियों में 235 का है वहीं भारत में यह औसत 272 है.

मधुमेह से मौत का आंकड़ा पिछले 10 सालों में 35 फीसदी बढ़ा है, इंडियन मेडिकल काउंसिल के अनुसार मधुमेह से भारत में साल 2005 में 2.24 लाख मौत दर्ज की गयी जबकि 2015-16 में यह आंकड़ा 3.46 लाख तक पहुंच गयी है अब तो भारत को मधुमेह का वैश्विक राजधानी का भी दर्जा दिया जा रहा है. डब्ल्यू.एच.ओ. के अनुसार भारत में साल 2015 में लगभग 4.80 लाख लोग टी.बी. से मारे गये जबकि 2014 में यह आंकड़ा 2.20 लाख था. देश में 5 साल से कम लगभग 58 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं वहीं 53 फीसदी महिलायें रक्ताल्पता के शिकार हैं. आंकड़ों के अनुसार देश की आधी गर्भवती महिलाएं खून की कमी में पीडि़त है फलस्वरूप होने वाला बच्चा भी कमजोर पैदा हो रहा है. नयी नीति में इलाज के अपेक्षा आरोग्य तथा रोग प्रतिरक्षण को प्राथमिकता दी जा रही है इसके लिए आयुर्वेद और योग सहित परंपरागत चिकित्सा पद्धतियां लाभदायक हो सकती हैं.

नयी नीति में जनस्वास्थ्य के व्यय को समयबद्ध ढंग से सकल जी.डी.पी. का 2.5 फीसदी तक बढ़ाने का प्रस्ताव किया गया है जिसकी आवश्यकता दशकों से थी. वर्तमान में यह खर्च 1.04 फीसदी है. सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के ‘ओबामा हेल्थ केयर स्कीम’ से काफी प्रभावित थे इसलिए मौजूदा नीति में उक्त स्कीम से कुछ प्रावधान शामिल किए गये हैं. महत्वपूर्ण तथ्य यह कि राज्यों के लिए इस नीति को मानना अनिवार्य नहीं होगा केन्द्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को नई नीति एक मॉडल के रूप में दी जायेगी उसे लागू करें या न करें संबंधित राज्य सरकार पर निर्भर होगा. यानि सरकार ने अभी भी स्वास्थ्य को भोजन और सूचना के अधिकार जैसे ‘‘मौलिक अधिकार’’ की श्रेणी में नहीं लाया है, इन परिस्थितियों में मोदी सरकार की नयी स्वास्थ्य नीति जनता को कितना राहत पहुंचा पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा.

आजादी के छः दशक बाद भी देश की एक बड़ी आबादी बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है. खासकर ग्रामीण भारत की स्थिति अत्यंत दयनीय है न उन तक डॉक्टर पहुंच पा रहे हैं और न ही दवाईयां, परिणामस्वरूप देश अब भी कुपोषण और महामारी के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पा रहा है. आर्थिक उदारीकरण के चलते देश में स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ी तेजी से निजीकरण हो रहा है. देश में पांच सितारा अस्पतालों का बाजार लगातार बढ़ता जा रहा है. आंकड़ों के मुताबिक अभी भारत में निजी अस्पतालों की आय लगभग तीन अरब डालर यानि करीब दो खरब रूपये है जो साल 2020 तक बढ़कर आठ अरब डॉलर यानि 5.34 खरब रूपये तक होने की उम्मीद है.

ये पांच सितारा अस्पताल आम भारतीयों के पहुंच से बाहर है और उसे सरकारी खैराती अस्पतालों पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है. नयी नीति में सरकार ने आम भारतीय मरीजों की पहुंच निजी अस्पतालों तक बनाने के उद्देश्य से निजी अस्पतालों में होने वाले खर्च का भुगतान स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत करने का बीड़ा उठाया है. इसी प्रकार जिला अस्पतालों और इसके उपर के अस्पतालों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करते हुए इसे पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पी.पी.पी.) के रूप में संचालित करने का निर्णय लिया है. सरकार के नयी नीति में नये अस्पताल के निर्माण के बदले इस पर लगने वाले खर्च को सीधे लोगों के इलाज में लगाने का प्रावधान किया गया है. लेकिन सरकार की इस पहल पर कई सवाल हैं, जिनके जवाब अनुत्तरित हैं.

* लेखक आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में व्याख्याता हैं.

error: Content is protected !!