‘गांजे की कली’ नहीं है औरत
बिकास कुमार शर्मा
एक सफल फिल्म की सबसे बड़ी ताकत होती है कि वो आपके सामने सवाल छोड़े. सब कुछ न पेश कर दे और आपको एक स्पेस मुहैय्या करवाए, ऐसा स्पेस जिसमे आप फिल्म निर्देशक द्वारा उठाए प्रश्नों का हल भर पाएं. योगेन्द्र चौबे निर्देशित ‘गांजे की कली’ फिल्म भी वैचारिक स्पेस आपको देती है. हो सकता है कि आम छत्तीसगढ़ी दर्शक वर्ग के सिर के ऊपर से वह फिल्म उड़ जाती हो अथवा छत्तीसगढ़ी फिल्मकारों व अभिनेताओं, अभिनेत्रियों का ऐसी फिल्म से कभी कोई साबका न रहा हो किन्तु वे जब इस फिल्म को देखेंगे तो अंतरमन से आवाज जरूर उठेगी कि ”हां, अपने को भी ऐसी फिल्म बनाने का प्रयास करना चाहिए.”
भारतीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित अभिनेत्री नेहा सराफ का रंगमंच का अनुभव सघन है. इस फिल्म में भी वे चुलबुली लडक़ी से लेकर एक सशक्त महिला का किरदार, बड़ी सहजता के साथ निभाती हैं, जो कि दर्शक को गंभीर विमर्श के लिए तैयार करता है. फिल्म के एक दृश्य में अघनिया, चंदेरी (नेहा द्वारा निभाया मुख्य किरदार) का यह कहना, ”अब मोला कौनो मरद के दरकार नो हे (अब मुझे किसी पुरुष की दरकार नहीं है) नारी के आत्मविश्वास का प्रतीक है, जिससे हम सब लोग कुछ एक हिन्दी व अन्य भाषाई समानांतर एवं ऑफबीट फिल्मों में रु-ब-रु हो चुके हैं. चाहे वो ‘मंथन’ हो, ‘क्या कहना’, ‘मिर्च मसाला’ या फिर कन्नड़ फिल्म ‘मीदिया’.
‘गांजे की कली’ में नायिका ‘फूल बने अंगारे’ या फिर ‘दामुल’ जैसी हिंसक नहीं अपितु वो भविष्य को लेकर भरपूर सकारात्मक है. इसलिए वो अहिंसात्मक ढंग से भविष्य की संभावनाओं को तलाशती है और अपने आनेवाले कल को एक नई दिशा प्रदान करती है.
लम्बे समय तक रंगमंच में अभिनय की छाप छोड़ चुके कृष्णकांत तिवारी उर्फ केके रंगीलाल की भूमिका में पहली बार कैमरा फेस करते हुए किसी हिन्दी या बांग्ला समानांतर फिल्म कलाकार से कमतर नहीं प्रतीत होते. वे अपनी प्रभावशाली भावभंगिमाओं से ‘अभिनय के मापदण्ड को पूरा करने की प्रतिमानों’ को हमारे सामने पर्दे पर उतरते है.
इसके साथ ही अघनिया के पिता की भूमिका में दीपक तिवारी ‘विराट’ का सहज अभिनय उनकी रंगमंच के परिश्रम का फलन है. पूनम तिवारी द्वारा निभाए किरदार द्वारा अघनिया को रंगीलाल के यहां से भागने में मदद करना, पुरुषवादी मानसिकता से उपजे नारी के मानसिक शोषण के विरुद्ध क्रांति-बिगुल है जिसने पूरी कहानी को मोड़ दिया.
फिल्म का कमजोर पक्ष उसका संपादन है. हालाकि फिल्म की छोटी समयावधि ने इसको बचा लिया. अपने शुरुआती शोट ‘रामे-रामे-रामे-रामा’ गीत से लेकर अघनिया का पहले पति के घर से भागने तक, जो कसावट बनाए हुए है उसको बाद के दृश्य अचानक कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. फिल्म अंत के पंद्रह मिनटों में उसी तेजी से औंधे मुंह गिरती है, जिस तेजी से प्रारंभ के दृश्यों में आगे बढती है.
साहित्यकार अमृता प्रितम द्वारा लिखित कहानी का आधार होने के बाद भी निर्देशक ने अपने कार्य में आवश्यक छूट का पूरा प्रयोग किया है, जिसका फलन फिल्म के क्लाईमैक्स में प्रदर्शित होता है. कृति को निर्देशक ने सिनेमाई भाषा का प्रयोग कर और भी समृद्ध किया है. यह एक सराहनीय प्रयास है. वे उस प्रयास में सफल भी हुए हैं. अंत में कर्मा गीत पूनम के स्वर में धोखे के बाद उपजी निराशा का प्रतीक है, पर कहानी आगे बढती है और आपको निराश नहीं करती.
‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘वेल डन अब्बा’ की पटकथा लिख चुके वरिष्ठ पटकथा लेखक अशोक मिश्र की पटकथा फिल्म को मजबूती देती है. अंकों की भाषा में बात करें तो इस फिल्म की प्रकाश व्यवस्था से लेकर सिनेमाटोग्राफी, संगीत और अभिनय तक को दस में नौ अंक देना कोई गलत निर्णय नहीं होगा.