नर्मदा सेवा के बहाने
जसविंदर सिंह
हमारे दौर की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि शब्दों ने अपने अर्थ बदल दिये हैं. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शब्दावली में पारंगत हैं. नर्मदा सेवा यात्रा के नाम पर न जाने क्या-क्या हो रहा है. प्रचारित किया जा रहा है कि मुख्यमंत्री स्वयं 114 दिन तक इस यात्रा में रहने वाले हैं. हालांकि सच्चाई थोड़ा अलग है. यात्रा करने वाले लोग अलग हैं. मुख्यमंत्री तो हैलीकॉप्टर से दस मिनट के लिए पहुंचते हैं. हाथ हिलाते हैं, भाषण पिलाते हैं और उडऩ खटोले से वापस लौट आते हैं. कुल मिलाकर 2404 किलोमीटर लंबी यह यात्रा 11 दिसंबर को अमरकंटक से शुरू हुई है और 1831 किलोमीटर दक्षिणी तट पर और 1573 किलोमीटर उत्तरी तट पर यात्रा करने के बाद 11 मई को अमरकंटक में ही खतम होने वाली है.
प्रश्न यह है कि क्या यह यात्रा नर्मदा की नदी को बचाने और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए हो रही है? यदि ऐसा हो तो वह संवेदनशील नागरिक को इस यात्रा का समर्थन करना चाहिये. मगर सरकार की मंशा पर ही संदेह है? नर्मदा के उदगम के बाद से नदी खनन की शिकार हो जाती है. शिवराज के राज में खनन माफियाओं के हौंसले इतने बुलंद हैं कि वे प्रशासनिक अधिकारियों पर जान लेवा हमला करते हैं. अधिकारियों की हत्यायें भी हुई हैं.
खनन माफिया पुलिस थानों पर धावे बोलते हैं. नर्मदा, प्रदेश के करोड़ों लोगों की जीवन रेखा है. आज नर्मदा के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है तो उसके लिए यह खनन माफिया ही दोषी हैं. क्या खनन को रोकने के लिए सरकार कुछ ठोस कदम उठा रही है? मध्यप्रदेश में 90 प्रतिशत रेत के ठेके सत्ताधारी दल के ठेकेदारों के पास हैं. जो दिन भर खनन करते हैं, नदियों को सुखाने, प्रदेश को बंजर बनाने के धंधे में व्यस्त रहते हैं और फिर तिलक लगाकर नर्मदा मैया की आरती गाते हैं.
नर्मदा की तुलना गंगा जमुना या बह्मपुत्र जैसी नदियों से नहीं की जा सकती. वे पहाड़ों से ग्लेशियर के पिघलने से बहती है. मगर नर्मदा का जलस्रोत तो धरती से निकलने वाले सोते हैं. इन जलस्रोतों को तभी जिंदा रखा जा सकता है, जब वनों की रक्षा की जाये. ठेकेदार, वनविभाग और कॉर्पोरेट घराने जंगल को खतम करने और धरती को बंजर बनाने में दिन रात लगे हैं. अगर जंगल नहीं रहेंगे तो सोते सूख जायेंगे. सोते ही सूख जायेंगे तो नर्मदा नहीं रहेगी. सरकार और शिवराज जानबूझकर इन खतरों से अनजान बने बैठे हैं. यह खतरे नहीं टलेंगे तो नर्मदा कैसे बचेगी? यह इसलिए भी चिंताजनक है कि नर्मदा की अधिकांश सहायक नदियां सूख गई हैं.
|| सही मायनों में तो शिवराज की यह यात्रा नदी और पर्यावरण के लिए खतरे पैदा कर रही है. नदी के जिन घाटों तक रास्ते नहीं हैं, उन घाटों तक सरकार के खर्चे से रास्ते बनाये जा रहे हैं. यह नर्मदा की सेवा नहीं है. यह तो खनन माफियाओं के लिए रेत खनन की व्यवस्था करना है. ||
जाहिर है कि इससे रेत का खनन तेज होगा और नर्मदा के अस्तित्व पर खतरा मंडरायेगा. नदी और पर्यावरण की सुरक्षा इसमें है कि उसे अपने तरीके से बहने दिया जाये. मगर नर्मदा यात्रा के नाम दोनों तटों पर चौड़ी सडक़ बनाई जा रही है, जो नदी और पर्यावरण दोनों के लिए ही नए खतरे पैदा करेगी. फिर पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार अंबानी को बुला रही है. नदी के किनारों पर होने वाले निर्माण से पर्यावरण प्रदूषित होगा. नदी जल भी प्रभावित होगा.
उत्तराखंड में गंगा किनारे पर किये गए निर्माण के बाद आई विनाश लीला हम देख चुके हैं. क्या यह फिर से उत्तराखंड दोहराने की ओर बढ़ते कदम तो नहीं हैं? नर्मदा की सेवा करनी है तो उन 50 नगरों के गंदे पानी के निकास की चिंता करना चाहिये. इसमें कुछ तो औद्योगिक नगर भी हैं. इन सबका जहरीला पानी जब नर्मदा में जाकर मिलता है तो यह जल जीवों के लिए खतरा पैदा होता है. नर्मदा सेवा में सरकार की यह चिंता भी नहीं है.
सही मायनों में सरकार एक ओर तो इस यात्रा के बहाने एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है. खनन माफियाओं का खनन आसान करना चाहती है. वह आदिवासी संस्कृति को नष्ट करना चाहती है. यात्रा में तमाम संघ के संगठनों को सहयोगी बनाकर उन्हें सरकारी अनुदानों से उपकृत करना चाहती है. निशाने इससे भी बड़े हैं. एक तो सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को बढ़ा दिया गया है. अब उसके भरने से 45 हजार परिवार डूब जाने वाले हैं, वे बेघर हो जायेंगे. जंगल पानी में डूब जायेंगे. जिससे जहरीली गैस तैयार होगी. इनके पुनवार्स के लिए सरकार की ओर से बार बार सर्वोच्च न्यायालय में झूठ बोला जाता है. सेवा यात्रा के बहाने सरकार विस्थापितों के दर्द पर पर्दा डालना चाहती है.
दूसरा यह पानी किसानों को नहीं कारपोरेट घरानों को दिया जा रहा है. एक रुपये प्रति हजार लीटर से यह पानी कोका-कोला और टाटा को दिया जा रहा है. सेवा यात्रा का असली मकसद तो इन्हीं घरानों की सेवा है. खैर, शिवराज जी यदि सच में नर्मदा की सेवा करना चाहते हैं तो जलस्त्रोत और जलधाराओं को प्रदूषित करने की भारतीय दंड की धारा 277 के अनुसार सिर्फ 500 रुपये जुर्माने का प्रावधान है. कम से कम इसे ही बढ़ा दीजिए.