संभावनाओं के फिल्मकार जैगम इमाम
बिकास के शर्मा
युवा फिल्म निर्देशक जैगम इमाम का पहला परिचय फिल्म ‘दोजख’ के माध्यम से किया जाना चाहिए क्योंकि वह उनकी पहली फीचर फिल्म थी. उस फिल्म ने एक नई संभावनाओं के लिए दरवाजे खोले थे. हममें से कई लोग यह जानते ही होंगे कि फिल्म निर्माण करना जहां एक ओर एकाग्रता की परीक्षा के साथ-साथ जोखिम भरी कला है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक जटिलताओं-जो ज्यादातर धर्म आधारित होती है- के खिलाफ आवाज उठाने वाली फिल्म के निर्माण हेतु देश-दुनिया में जगह कितनी पतली होती जा रही है.
झुंड के गीदड़ों से लड़ना अब शेर के लिए भी मुमकिन के करीब नहीं लगता और वह भी या तो ‘चारों खाने चित’ हो जाता है या फिर अपना रास्ता बदलने को विवश हो उठता है. जैगम अपनी फिल्म बनाते वक्त कहीं कोई घबराहट नहीं रखते और इसके पीछे वह यह कारण बतलाते हैं कि उन्होंने कभी किसी को एसिस्ट नहीं किया और टीवी मीडिया की नौकरी के बाद सीधे फिल्म निर्देशन में कदम रखा. इससे उनके अंदर किसी अन्य संघर्षशील युवा से ज्यादा आत्मविश्वास पनपा औऱ गाढ़ा हुआ.
साल 2015 में रिलीज हुई ‘दोजख’ ने वैश्विक स्तर पर आयोजित होने वाले दर्जनभर फिल्म समारोह में प्रशंसा बटोरी थी और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने तो उस फिल्म को देखने के बाद सोशल मीडिया मंच ‘ट्विटर’ पर अपना समर्थन देते हुए उसे संवेदनशील लोगों द्वारा बनाई गई एक संवेदनशील फिल्म बताया था.
दरअसल, दोजख एक बच्चे को मेटाफर के रुप में प्रयोग कर जिंदगी के बहुरंगी आयामों को जीने की कहानी है, जिसमें खलल पैदा करने वाली हमारी कुछ सामाजिक रीतियों पर जमकर वार किया गया है. आज जैगम की दूसरी फिल्म ‘अलिफ’ हम सबके सामने है, जिसके प्रमोशन हेतु यह युवा फिल्म निर्देशक देश के उन सभी शहरों की यात्रा कर रहा है, जहां फिल्म की स्क्रीनिंग होनी है.
भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से प्रशिक्षित जैगम ने हाल ही में उसी संस्थान में फिल्म पर बातचीत करते हुए एक सवाल के जवाब में कहा, “मुझसे पूछा जाता है कि दोनों फिल्मों के केंद्र में मुस्लिम समुदाय ही क्यों है, तो मेरा जबाव स्पष्ट होता है कि इस समाज को मैंने सबसे करीब से देखा है, इसलिए इसपर काम करने में मैं आत्मविश्वास से भरपूर होता हूँ.
इमाम ने यह भी कहा कि उनका मकसद समाज के उस तबके को आगे बढ़ाना है जो शिक्षा के अभाव में कहीं-न-कहीं पीछे रह जाते हैं . ‘अलिफ’ एक प्रेरणादायक फिल्म है, जिसे देखकर लोगों के अंदर शिक्षा हासिल करने की भावना और जागृत होगी.
‘अलिफ’ में भी निर्देशक का स्थाई भाव एक बच्चा है, जो बड़ा होकर चिकित्सक बनना चाहता है किन्तु उसके इर्द-गिर्द ही धर्मांधता कुछ इस कदर छाई है कि वह एक फुटबॉल की भांति ‘इस गोल से उस गोल तक’ का सफर करता रहता है. फिल्मों के बहाने समाज में कट्टरपंथ और रूढ़िवादी सोच के विरुद्ध अपनी बात रखने की कोशिश करना ही जैगम का मुख्य उद्देश्य है और यही सिनेमा का सच भी है, क्योंकि वह ऐसा माध्यम है जिसकी छाप हमारे अवचेतन पर सबसे गहरी पड़ती है एवं सकारात्मक परिवर्तन लाने की ओर हम अग्रसर हो सकते हैं. पिछले माह मुंबई शहर में फिल्म के ट्रेलर लॉंच के अवसर पर मंझे हुए अभिनेता मनोज बाजपेयी ने कहा था कि फिल्म का हिस्सा न हो पाने का उनको ‘मलाल रहेगा’.
हम सब ऐसे समय के दर्शक हैं, जब अपने ही धर्म को अथवा विचार को श्रेष्ठ साबित करने की अंधी दौड़ मची हुई है. जैगम की फिल्म का मूल स्वर-‘लड़ना नहीं पढ़ना जरुरी है’- ‘अलिफ’ नामक छोटे से बालक के माध्यम से प्रभावी हो पाएगा व सकारात्मक बदलाव के लिए समाज को प्रेरित करेगा या फिर भेड़ियों का झुंड इस शेर को भी घेरने के लिए कोई चक्रव्यूह रचने की तैयारी में है, इसकी भनक हम सभी को आने वाले दो-तीन दिनों में लगना तय है .
फिलहाल जैगम और उनकी पूरी टीम को बधाई देना अतिशयोक्ति नहीं होगी. पिछले तीन सालों में ‘छत्तीसगढ़ फिल्म एण्ड विजुअल आर्ट्स सोसायटी’ की समूची टीम सामाजिक सरोकार के सिनेमा एवं अन्य कला माध्यमों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न सार्थक पहल कर रही है. इस लेखन के माध्यम से राज्य में फिल्म माध्यम से जुड़े तमाम व्यक्तित्वों या संगठनों से यह उम्मीद जरूर कि जानी चाहिए कि वे ‘अलिफ’ के प्रदर्शन हेतु कुछ सार्थक कदम उठाएंगे.