मोदी और महात्मा
सुदीप ठाकुर
महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे. रेल के तीसरे दर्जे में पूरे देश की यात्रा करने के बाद उन्होंने पाया कि देश की अधिसंख्यक आबादी गरीब है, खासतौर से ग्रामीण भारत बेहद गरीब है. उनके लिए स्वराज का मतलब था आत्मनिर्भरता. इसलिए 1918 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में चरखे और खादी को प्रमुख औजार बनाया. वैसे ‘हिंद स्वराज’ में भी उन्होंने चरखे के बारे में लिखा था. उन्हें लगता था कि चरखे के जरिये हिंदुस्तान को गरीबी से मुक्त किया जा सकता है और जिस रास्ते से गरीबी मिटेगी उसी रास्ते से स्वराज आएगा.
31 मई, 1925 को शांतिनिकेतन में गांधी ने खादी के महत्व को रेखांकित करते हुए भाषण दिया, ”चरखा हमें संकीर्णता से उबरने में मदद करेगा. आज बंगाल आने वाले किसी उत्तर भारतीय को दूसरों को बताना पड़ता है कि वह एक भारतीय है. दूसरे प्रांतों में रहने वाले बंगाली खुद को विदेशी बताते हैं. इसी तरह से जैसे ही दक्षिण भारतीयों के पैर उत्तर भारत में पड़ते हैं, वे विदेशी हो जाते हैं. चरखा ही ऐसी चीज है, जो हमें एहसास कराता है कि हम सब एक ही भूमि के बच्चे हैं. हम अभी तक सुसंस्कृत नहीं हुए हैं. विदेशी कपड़ों का बहिष्कार हम सबको आपस में जोड़ने में मदद करेगा. यदि खादी नहीं होगी तो पूरा देश गरीबी में डूब जाएगा…. गांधी के ऐसा सोचने की वजह यह थी कि विदेशों से आने वाला कपड़ा और देश के भीतर मिलों में बनने वाला कपड़ा बहुत महंगा है. इसके पीछे उनकी आर्थिक सोच भी थी. उनके लिए स्वतंत्रता का मतलब स्वराज से था; और इसका आशय था आत्मनिर्भरता.”
यानी गांधी के लिए खादी स्वराज प्राप्ति का एक बड़ा औजार थी. गांधी को खादी पर इतना भरोसा था कि 24 दिसंबर, 1925 को कानपुर में एक सभा में उन्होंने कहा था, मैं आपको विश्वास के साथ कह सकता हूं कि यदि आप पूरी तरह से विदेशी कपड़ों और भारतीय मिलों में बने कपड़ों का बहिष्कार कर दें तो आपको एक साल के भीतर ही स्वराज मिल जाएगा.
स्वतंत्रता मिलने के बाद भी गांधी का खादी और चरखे से रिश्ता खत्म नहीं हुआ. वह जीवनपर्यंत खादी पहनते रहे. गांधी पूरे आत्मविश्वास से खादी पर भरोसा करते थे तो उसकी वजह यह थी कि उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था.
नए आर्थिक वैश्विक परिदृश्य में गांधी की इस सोच के साथ आज की सरकारें खड़ी नहीं दिखतीं. उनकी आर्थिक नीति गांधी की आर्थिक नीति से मेल नहीं खाती. फिर गांधी की खादी और आज की खादी में भी बड़ा फर्क है. गांधी जिस खादी और चरखे की बात करते थे, वह गरीबों को जोड़ती थी. वह जिस खादी की बात करते थे, वह एक तरह से खद्दर था. यानी गरीब लोग जिसे आसानी से हासिल कर सकें. उनकी परिकल्पना में खादी का मतलब था खुद सूत कातना और अपने हाथ से बने कपड़े पहनना. यह दावे से कहना मुश्किल है कि गांधी आज होते तो खादी को इस तरह से बढ़ता देखना पसंद करते, जिस तरह से उसे बढ़ाया जा रहा है. पता नहीं गांधी को कनॉट प्लेस स्थित खादी ग्रामोद्योग में बिकने वाली खादी पसंद आती या नहीं.
आज जो हम गांधी को याद करते रहते हैं, उसमें गांधी सिर्फ प्रतीक बनकर रह गए हैं. हम वास्तविक गांधी को पसंद नहीं करते हैं. हम गांधी को पसंद करने का दिखावा करते हैं. (पूरी विनम्रता के साथ मैं स्वीकार करता हूं कि गांधी को अपना नायक मानने के बावजूद उनके बताए रास्ते पर चलना मेरे लिए मुश्किल है). गांधी एक सरल व्यक्ति थे. उनका जीवन कठिन था. गांधी का रास्ता बहुत कठिन रास्ता है. गांधी ने जो कहा उनकी कितनी बातों पर हमने अमल किया? वैसे गांधी भी अंधानुकरण के खिलाफ थे. गांधी ने अनुशासित जीवन जिया था, मगर वह किसी नियम से बंधे नहीं थे. अनेक ऐसे मौके आए, जब उन्होंने नियमों और परंपराओं को तोड़ा था. ऐसा करते हुए उनके तर्क होते थे और ऐसे हर तर्क अंततः जनसरोकार से जुड़ते थे. उनके लिए खादी भी सरोकार से जुड़ी हुई थी. खादी भी अंग्रेजों की व्यवस्था को तोड़ने का औजार थी. खादी उस समय की सत्ता से असहमति का औजार थी.
|| इसमें संदेह है कि गांधी किसी कैलेंडर में अपनी तस्वीर के गायब होने से नाराज होते. वह अपनी जगह किसी और की तस्वीर होने से भी नाराज नहीं होते. गांधी तस्वीर से बड़े थे. ||
खादी उनके लिए मुनाफे का धंधा नहीं थी. देश को जोड़ने का साधन थी. 19 मार्च 1922 को नवजीवन में प्रकाशित एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ”मेरा सिर्फ एक ही संदेश है और वह खादी से जुड़ा हुआ है. आप मेरे हाथ में खादी दीजिए और मैं आपको स्वराज लौटाउंगा. अन्त्यजों का उत्थान और हिंदू-मुस्लिम एकता भी खादी से संभव है. यह शांति का भी एक महान साधन है…. ”
शायद भाजपा प्रवक्ताओं को यह बात समझ नहीं आएगी. उनका कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी युवाओं का आइकान हैं और युवाओं में खादी की बढ़ती लोकप्रियता इसका प्रतीक है. भाजपा और सरकार यह तर्क भी दे रही है कि पचास सालों तक खादी की बिक्री दो-सात फीसदी तक सीमित रही, लेकिन पिछले दो वर्ष में इसमें 34 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई.
आप तय कीजिए कि गांधी होते तो मोदी जी को क्या सलाह देते?
(लेखक अमर उजाला दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं)