उत्पाद लुटाने की नौबत दुबारा न आए
दिवाकर मुक्तिबोध
यह कितनी विचित्र बात है कि छत्तीसगढ़ में कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए राज्य सरकार राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजी जाती रही है लेकिन राज्य के किसान एक तो ऋणग्रस्तता की वजह से आत्महत्या करते रहे हैं या फिर अपनी उपज मुफ्त में या औने-पौने दामों में बेचने के लिए मजबूर हैं. किसानों की यह पुरानी मांग है कि उत्पादन लागत को देखते हुए धान का समर्थन मूल्य बढऩा चाहिए. भाजपा सरकार ने अपनी तीसरी पारी शुरू करने के पूर्व, अपने चुनावी घोषणापत्र में किसान जनता से वायदा भी किया था कि समर्थन मूल्य 2100 रु. प्रति क्विंटल कर दिया जाएगा तथा किसानों को 300 रुपए प्रति क्विंटल की दर से बोनस भी दिया जाएगा. किंतु अब तक ऐसा नहीं हो सका और अब इसकी गुंजाइश भी खत्म हो गई है.
हालांकि इस मुद्दे को कांग्रेस अभी भी गर्म रखने की कोशिश कर रही है. बहरहाल यह तो धान की बात हुई लेकिन अब साग-सब्जी उत्पादक भी उत्पादन और खपत के बीच असंतुलन की वजह से परेशान हैं. परेशानी की वजह लागत मूल्य में वृद्धि, महंगा परिवहन, बिचौलियों की मनमानी, उत्पादन में बढ़ोतरी और फिलहाल एक हद तक नोटबंदी रही है.
पिछले दशक से टमाटर उत्पादन का रकबा काफी बढ़ा है किंतु ऐसी नौबत कभी नहीं आई कि किसानों को टनों टमाटर बीच सड़क पर फेंकने पड़े हों या टनों सब्जियां राजधानी रायपुर में मुफ्त बांटनी पड़ी हों. जशपुर के लुडेग में और दुर्ग जिले के धमधा में जब किसानों से बिचौलियों ने 25-30 पैसे प्रति किलो से अधिक दाम देने से इंकार कर दिया तब उत्पादकों ने अपना रोष टमाटर नष्ट करके जाहिर किया.
इसी तरह राजधानी रायपुर में लाखों की सब्जियां मुफ्त में बांट दी. ऐसा दृश्य राज्य में पहले कभी देखने में नहीं आया था. हालांकि दो-ढाई दशक पूर्व टमाटर की कीमत को लेकर कुछ ऐसी स्थिति बनी थी जब कांग्रेस के नेता एवं तत्कालीन विधायक तरुण चटर्जी ने नगरघड़ी चौक में ट्राली में खड़े होकर मुफ्त में टमाटर बांटे थे हालांकि यह किसानों के प्रति उनकी हमदर्दी कम राजनीतिक नौटंकी ज्यादा थी. यकीनन राज्य में टमाटर के विपुल उत्पादन व बाजार की अर्थव्यवस्था के कारण यह समस्या दशकों पुरानी है जिसका कोई इलाज अब तक नहीं हो सका है.
दरअसल पुरस्कार हासिल करना अलग बात है और जमीनी हकीकत से रुबरु होना अलग है. सरकार की नींद तब खुलती है जब पानी सिर के उपर से गुजरने को होता है. किसानों के साथ ऐसा ही हो रहा है. कहने के लिए कृषि का अलग बजट बनता है, कृषि एवं इससे संबंधित कार्यों के लिए भारी-भरकम राशि का प्रावधान रहता है, सरकार किसानों की हमदर्द बनने का दावा करती है किंतु उनकी समस्याएं कम होने के बजाए और कठिनतर हो जाती है, हो गई है वरना बड़ी संख्या में आत्महत्या की घटनाएं नहीं होती. राज्य बनने के पूर्व ऐसा कभी नहीं सुना नहीं गया था कि किसान ऋण के बोझ की वजह से खुदकुशी कर रहे हो या भुखमरी के शिकार हो रहे हों.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ में एक वर्ष में 954 किसानों ने जान दी. औसत निकालें तो प्रतिदिन दो से अधिक किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या के कारण और भी हो सकते हैं लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि मरने वाले पेशे से किसान थे. मौतों का यह आंकड़ा चौकाने वाला है लिहाजा कृषि एवं कृषकों से संबंधित समस्याओं के तेजी से निपटारे की जरूरत है.
सब्जी उत्पादकों की कठिनाइयों की ओर राज्य सरकार का ध्यान तब गया जब उत्पादकों ने सड़कों पर टमाटरों की परत बिछा दी और मुफ्त में सब्जियां बांटी. कैबिनेट की 3 जनवरी 2017 की हुई बैठक में मुख्यत: किसानों की बदहाली का मुद्दा छाया रहा. नौकरशाहों की ओर से यह कहा गया कि खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना से ही कृषि संकट से निपटा जा सकता है. मुख्यमंत्री ने किसानों के लिए नई नीति बनाने के निर्देश दिए और यह तय किया गया कि कृषि, उद्यानिकी व उद्योग विभाग संयुक्त रूप से इसे तैयार करेंगे.
नई नीति क्या होगी यह कैबिनेट की अगली बैठक में स्पष्ट होगा और जाहिर है राज्य के प्रस्तावित बजट में इसे शामिल किया जाएगा. फौरी तौर पर सब्जी उत्पादकों को राहत देने की दृष्टि से सरकार ने सौ कोल्ड स्टोरेज की स्थापना की घोषणा की है पर जाहिर है यह समस्या का हल नहीं है. लघु उत्पादकों को इससे कोई राहत नहीं मिलेगी क्योंकि यह प्राय: निश्चित है सरकारी सुविधाओं का दोहन वे ही करते हैं जो आर्थिक दृष्टि से सक्षम रहते हैं.
राहत उपायों के सन्दर्भ में सहकारिता पर भी विचार किया जाना चाहिए. सब्जी उत्पादकों को सही मूल्य मिले और वे बिचौलियों के चंगुल से आजाद हो, इसके लिए काफी पहले, कोई दो-ढाई दशक पूर्व जिला प्रशासन की ओर से एक व्यवस्था की गई थी. व्यवस्था थी सहकारिता के माध्यम से किसानों से उनके उपज की खरीदी की. इसके लिए एक सहकारी समिति बनाई गई थी जिसका कार्यालय राजधानी के शास्त्री मार्केट में खोला गया था. प्रारंभ सुखद था किंतु धीरे-धीरे इसका कामकाज ठंडा पड़ता गया. जबकि सहकारिता आंदोलन से किस तरह समृद्धता आती है, उसका सबसे बेहतर उदाहरण गुजरात व महाराष्ट्र है.
क्या छत्तीसगढ़ में ऐसा कुछ नहीं हो सकता? विशेषकर लघु उत्पादकों के लिए सहकारिता को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता? साग सब्जियां नगदी फसल होने की वजह से किसान ज्यादा आकर्षित हैं लेकिन जब बाजार मूल्य नियंत्रित नहीं होता तो सर्वाधिक नुकसान भी उन्हीं को होता है. जैसा कि इस बार हुआ है. उम्मीद की जानी चाहिए उत्पाद लुटाने की नौबत दुबारा नहीं आएगी और नई कृषि में ऐसे किसानों के लिए माकूल व्यवस्था होगी.