जंगल के गांवों में झूलाघर
बाबा मायाराम
छत्तीसगढ़ के अचानकमार अभयारण्य में बसे मुंगेली जिले का एक गांव है सारसडोल. वहां के श्रवण और बुधोरिया अपनी छोटी बच्ची सोनिया के कारण काम पर नहीं जा पा रहे थे. गरीबी इतनी की बिना काम किए गुजर चलाना मुश्किल है. लेकिन फुलवारी ने उनकी मुश्किल हल कर दी. वे उसमें अपने बच्ची को सुबह छोड़कर जाते और काम से लौटकर उसे घर ले जाते. यह वह साढे तीन साल की हो गई है. उसकी सेहत भी स्वस्थ और अच्छी है. वह अकेली नहीं है जो फुलवारी से खुश है ऐसे इस इलाके के कई बच्चे हैं, जो इन झुलाघरनुमा फुलवारी में मजे कर रहे हैं.
छत्तीसगढ़ का बिलासपुर जिला बहुत पिछड़ा और गरीब है. यहां के लोग पलायन कर दूर-दूर तक काम करने के लिए जाते रहे हैं. बिलासपुरिया नाम से मशहूर इन लोगों को कड़ी मेहनत के बावजूद भी दो जून की रोटी नसीब नहीं होती. ऐसे कठिन समय में बच्चों की उचित देखभाल और आहार के प्रति ध्यान देना मुश्किल है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 3 के मुताबिक छत्तीसगढ़ में 52.2 प्रतिशत बच्चों की उम्र के हिसाब से ऊंचाई कम है. 24.1 प्रतिशत बच्चो का ऊंचाई के हिसाब से वजन कम है. 47.8 प्रतिशत बच्चों का वजन उम्र के हिसाब से कम है यानी कुपोषित हैं.
बिलासपुर जिले में कार्यरत जन स्वास्थ्य सहयोग के प्रमुख डा. योगेश जैन के अनुसार खासतौर से 6 माह से लेकर 3 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों का समुचित पोषण की बेहद जरूरत होती है.
उन्हें इस अवधि में स्वादिष्ट, गरम पतले और मुलायम भोजन के साथ उनका खास ध्यान रखने की भी जरूरत होती है. अगर इस अवधि में बच्चों को उचित पोषण नहीं मिला तो इसका असर उनके शारीरिक व मानसिक विकास पर जिंदगी भर पड़ता है. गांवों में यह देखा गया है कि बच्चे किसी बुजुर्ग या बड़ी लड़कियों के सहारे छोड़कर उसके मां और बाप दोनों को काम करने के लिए भी बाहर जाना पड़ता है. इससे बड़े बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है.
इस सबके मद्देनजर जन स्वास्थ्य सहयोग ने वर्ष 2006 से फुलवारी नामक कार्यक्रम चलाया है जिसमें गांव के 6 माह से लेकर 3 साल तक के बच्चों को रखा जाता है. यह एक झूलाघर जैसा होता है जहां बच्चों का हर तरह से स्वस्थ रहने पर जोर दिया जाता है. जहां उन्हें पका पकाया खाना खिलाया जाता है.
फुलवारी में सत्तू दिन में एक बार और खिचड़ी दिन में दी जाती है. इन्हें खाने में तेल की मात्रा ज्यादा दी जाती है क्योंकि तेल भी बच्चों के शारीरिक विकास में सहायक होता है. फुलवारी में हफ्ते में तीन बार अंडे भी दिए जाते हैं. इसके अलावा यहां बच्चों का हर महीने में वजन और हर छह माह में ऊंचाई नापी जाती है. इसके आधार पर बने चार्ट के अनुसार बच्चों के खान-पान पर विशेष ध्यान दिया जाता है.
एक फुलवारी में 10 बच्चों के लिए एक महिला कार्यकर्ता होती है और 10 से ज्यादा बच्चे हुए तो दो महिला कार्यकर्ताओं की नियुक्ति होती है.
आयरन सीरप रोज देते हैं. छह महीने में कृमि मारने के लिए गोली भी दी जाती है. संक्रामक बीमारियां जो बच्चों को जल्द अपने घेरे में ले लेती हैं उनसे निपटने के लिए भी फुलवारी में जरूरी दवाओं की व्यवस्था रहती है. बीमार बच्चों की देखभाल और उपचार गांव में ही स्वास्थ्य कार्यकर्ता करती है. पूर्व प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत खेलने के लिए खिलौने आदि की व्यवस्था सभी फुलवारियों में है.
इस कार्यक्रम को ग्रामीणों का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है. इस कार्यक्रम के नतीजे बहुत अच्छे आ रहे हैं. जो इससे 6 माह से 3 वर्ष तक के बच्चों के पोषण व स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है. स्तनपान के अलावा 6 माह से बड़े बच्चों को पोषण आहार मिल रहा है. बड़े बच्चे अपने छोटे भाई बहन को संभालते थे, अब वे स्कूल जा रहे हैं. बच्चे के मां-बाप को भी काम करने के लिए पर्याप्त समय मिल रहा है, जिससे वे घर की जरूरतें पूरी करने के लिए काम करे, कमाई कर सके.
पिछले एक दशक से यह कार्यक्रम बिलासपुर के कोटा विकासखंड और मुंगेली जिले के लोरमी विकासखंड में चल रहा है. वर्तमान में 41 गांवों में 90 फुलवारी चल रही हैं, जिनमें 1029 बच्चे हैं. ये सभी गांव घने जंगलों के बीच हैं, जिन्हें शहरों की तरह झूलाघर की सुविधा मिल रही है.
इस कार्यक्रम से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ सरकार ने भी फुलवारी कार्यक्रम शुरू किया है, जो 13 जिलों में चल रहा है. कई और संस्थाओं ने भी इसे अपनाया है.