एनजीओ और मंत्री का दर्द
दिवाकर मुक्तिबोध
कहते हैं देश बदल रहा है, शहर बदल रहे हैं, गांव बदल रहे हैं लेकिन क्या वे बदल रहे हैं जिन्हें वास्तव में बदलना चाहिए, देश हित में, समाज हित में, लोक हित में? जवाब है – बिलकुल नहीं. न बदलने वालों की अनेक श्रेणियां हैं- भ्रष्ट राजनेता हैं, भ्रष्ट मंत्री हैं, भ्रष्ट अफसर हैं और इनके द्वारा पोषित वे संस्थाएं हैं, संगठन हैं जिन्होंने समाज सेवा का नकाब पहन रखा है.
गैर सरकारी संगठन यानी एन.जी.ओ. भी इसी तरह की अमर बेल है जो सरकार के महकमों से लिपटी हुई है और जिनके कामकाज को लेकर लंबी बहसें होती रहती हैं. निष्कर्ष के रूप में यह माना जाता है कि देश-प्रदेश में कार्यरत बहुसंख्य एन.जी.ओ. अपनी भूमिका के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. वे सरकारी नुमाइंदों के साथ गठजोड़ करके बेतहाशा पैसा पीट रहे हैं. सामाजिक क्षेत्र में इनके द्वारा किए जाने वाले कथित कामकाज काफी हद तक कागजों तक सिमटे हुए हैं. इनके भौतिक सत्यापन की न तो कभी जरूरत महसूस की जाती है और न ही कभी जांच बैठायी जाती है. एक तरह से ये सरकार के नियंत्रण से मुक्त है. बेखौफ हैं. भ्रष्टाचार का माध्यम बने हुए हैं.
विचार करें, दशकों से कार्यरत इन संस्थाओं के जरिए कितना बदलाव आया? क्या वह संतोषजनक है? विशेषकर वनांचलों में, बेहद पिछड़े इलाकों में, आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जन चेतना कितनी विकसित हुई है? लोग अपने अधिकारों के प्रति कितने जागरुक हुए हैं? शिक्षा व स्वास्थ्य के महत्व को कितनों ने पहचाना व स्वीकार किया है? जबकि सरकारें अपने तई व इनके माध्यम से भी अब तक बेतहाशा धन खर्च कर चुकी हैं. तो फिर ये संस्थाएं कर क्या रही हैं?
दरअसल इसमें शक नहीं कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना के विकास एवं कुरीतियों से निजात पाने की दिशा में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका अहम हो सकती है और है भी लेकिन कुछ दर्जन एनजीओ को छोड़ दें तो शेष सफेद हाथी बने हुए हैं जो सरकार के पालतू हैं. देश को छोड़ दें तो छत्तीसगढ़ में ही 173 एनजीओ पंजीकृत हैं जिन्हें केंद्र व राज्य सरकार से फंड मिलता है.
अभी हाल ही में राज्य की महिला, बाल विकास व समाज कल्याण मंत्री श्रीमती रमशीला साहू ने विभागीय सचिव को निर्देशित किया कि सभी एनजीओ को नोटिस जारी कर उनसे कामकाज का हिसाब मांगा जाए.
आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 59 एनजीओ ऐसे हैं जिन्हें वर्ष 1986-87 से केंद्र सरकार से सहायता मिल रही है. इन संस्थाओं को अभी तक 86 करोड़ रुपए दिए जा चुके हैं. कतिपय खास संस्थाओं को विभिन्न प्रोजेक्ट्स के तहत राज्य सरकार ने भी लाखों रुपए दिए हैं. विभागीय मंत्री का दर्द यह है कि रायपुर की एक संस्था को दो-तीन सालों में 60 लाख रुपए जारी किए गए किंतु उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगी और जब बात सामने आई तो शिकायतों का पुलिंदा जो कचरे में पड़ा हुआ था, उसे खोला गया और उसके आधार पर सभी एनजीओ से उनके कामकाज की जानकारी मांगी गई, खर्चों का ब्यौरा देने के लिए कहा गया.
लेकिन इस चिट्ठी-पत्री से होने-जाने वाला कुछ नहीं है. थोड़े समय के लिए कुछ हलचल मचेगी और फिर सब कुछ शांत हो जाएगा और व्यवस्था फिर पहले जैसे चलती रहेगी. दरअसल सामाजिकता के नाम पर आर्थिक षडय़ंत्र रचने वाले रैकेट बरसों से सरकारी विभागों में अपनी पैठ जमाए हुए हैं. जाहिर है उनका उद्देश्य पैसा बनाना है और ये पैसा बना रहे हैं. प्रमुख रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य और सांस्कृतिक जनजागरण के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के कामकाज का कभी भौतिक सत्यापन नहीं होता, न इनके कामकाज पर कभी निगरानी रखी जाती है.
समाज कल्याण विभाग में ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं है कि इतने कामकाज की पड़ताल की जाए कि वास्तव में राज्य के दूरस्थ अंचलों में विशेषकर आदिवासी इलाकों में ये संस्थाएं कैसा काम कर रही हैं. क्या इनके कामकाज से कोई जागृति आई है? क्या आदिवासियों को शिक्षा का महत्व समझ में आ रहा है? क्या कभी किसी मंत्री ने या विभाग के अफसरों ने गांव, देहातों में जाकर आकस्मिक निरीक्षण किया है? क्या कभी अपने माध्यमों से पता लगाने की कोशिश की है कि वित्त पोषित ये संस्थाएं ठीक से काम कर रही हैं अथवा नहीं.
क्या कभी इनके द्वारा पेश वित्तीय बिलों की असलियत जांचने की कोशिश की गई है? क्या कभी यह देखा गया है कि इनके संचालकों की माली हालत पहले क्या थी और अब क्या है? क्या इनके बैंक एकाउंट खंगालने की कोशिश की गई? क्या कभी यह जांचने की कोशिश की गई कि इनके तथा परिवार के सदस्यों के नाम पर चल-अचल सम्पत्ति कितनी है और वह कब अर्जित की गई है?
वस्तुत: ऐसा कुछ करना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि यह सरासर मिलीभगत का मामला है, शेयरिंग का मामला है. जिस व्यवस्था में सरकारी कामकाज देने के एवज में चैक जारी करने के पूर्व कमीशन की नगद राशि पहले ही रखवा ली जाती है, उससे बदलाव की उम्मीद भी क्या की जा सकती है? इसलिए एनजीओ को नोटिस जारी करने से कुछ नहीं होगा. यह तो केवल दबाव बनाने की कसरत है जो बीच-बीच में मामला सधते न देखकर होती रहती है. इसलिए भौतिक संरचनाओं की दृष्टि से गांव-शहर बदल सकते हैं पर व्यवस्था नहीं, क्योंकि वह सरासर भ्रष्टाचार की नींव पर टिकी हुई है.