मराठा आंदोलन के मूल में क्या है?
नई दिल्ली | बीबीसी: महाराष्ट्र के #MarathaMovement के मूल में क्या है? इन दिनों महाराष्ट्र के छोटे बड़े कई शहरों में लाखों की संख्या में मराठे निकल कर सड़कों पर मूक प्रदर्शन कर रहें हैं. वैसे तो उन्होंने जो मांगे रखी है उसमें सबसे पहला गैंग रेप के दोषियों को सजा दिलवाना है. बेशक, इससे पहले भी महाराष्ट्र में मराठा लड़कियों का रेप तथा गैंग रेप हो चुका है. परन्तु कभी भी इस तरह से मराठाओं का विरोध सामने नहीं आया. जाहिर है कि अन्य मांगों में वह ताकत है जो इन्हें इस तरह से संगठित विरोध प्रदर्शन करने, ऐन चुनाव के पहले अपनी ताकत दिखाने को उत्साहित कर रहा है.
मराठाओं की मांग किसान समस्याओँ को लेकर भी है तथा वे आरक्षण की भी मांग कर रहें हैं. महाराष्ट्र के बहुसंख्यक मराठा किसान हैं जो किसानी की समस्या से जूझ रहें हैं. जिसमें सूखे से लेकर बढ़ते परिवार के लिये जमीन कम पड़ जाना शामिल है. ऐसे समस्या से जूझते मराठाओं द्वारा अपने लिये 16 फीसदी आरक्षण की मांग उठाना कोई हैरत की बात नहीं है. आखिरकार, फौरी तौर पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग मराठाओँ को किसानी की समस्या से दूर तो ले जा सकता है.
यह दिगर बात है कि सरकार के पास देने के लिये कितनी नौकरियां हैं इसे अनदेखा किया जा रहा है. इन सब के बीच इतना तो समझ में आ रहा है कि केवल गैंग रेप का विरोध नहीं किया जा रहा है. मराठाओँ के जीवन स्तर को उपर उठाने के लिये सड़कों पर लाखों की भीड़ उतर आई है. यह अंगड़ाई उन्हें कितने दूर तक ले जाती है यह देखने की बात है. बहरहाल, इस विषय पर बीबीसी के लिये संजय तिवारी का विश्लेषण पढ़े-
महाराष्ट्र में इन दिनों मराठा समाज का विरोध मार्च ख़ूब चर्चा में हैं. विभिन्न शहरों और ज़िलों में लाखों की संख्या में मराठा समाज के लोग इस मार्च में शामिल हो रहे हैं. ये सिलसिला नौ अगस्त से शुरू हुआ था. रैली का एक ही थीम है- एक मराठा, लाख मराठा! इनकी विशेषता है कि ये मोर्चे अनुशासित हैं, इनका सामूहिक नेतृत्व समाज के सामान्य लोग कर रहे हैं और इनमें नारे नहीं लगाए जाते.
इन लोगों की चार प्रमुख मांगें हैं- कोपरडी में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के दोषियों को फांसी की सजा दी जाए, एट्रॉसिटी क़ानून की कथित खामियां दूर की जाएं, किसानों के हित में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की जाएं और राज्य में करीब 30 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी वाले मराठा समाज को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण मिले.
विरोध का ये सिलसिला एक बलात्कार और हत्या के मामले से शुरू हुआ था लेकिन इसमें मराठा आरक्षण की मांग और एट्रोसिटी क़ानून का विरोध जुड़ गए हैं. लिहाजा राजनीति भी शुरू हो गई.
महाराष्ट्र में मराठा आबादी 33 फ़ीसदी है और यहां के अधिकतर मुख्यमंत्री और राजनेता उसी समाज से रहे हैं. इस समाज का एक हिस्सा अपने अपने इलाकों में संपन्नता की मिसाल है. लेकिन दूसरी ओर इसी समाज का बड़ा तबका समस्याओं से जूझ रहा है.
सूखे के जूझ रहे और खेती करने वाले अधिकतर किसान मराठा ही हैं. उनके सामने दिनों दिन परेशानियां बढ़ रही हैं. कर्ज का बढ़ता जाल, किसानों की आत्महत्याएं, सुशिक्षित युवाओं की बढ़ती संख्या और बेरोजगारी की समस्या, खेती की जमीन का कम होना, पैसों की कमी के चलते उद्योग धंधा नहीं कर पाना इन समस्याओं में शामिल हैं.
इस विरोध मोर्चे के साथ शुरुआत से ही जुड़े औरंगाबाद के रवींद्र काले पाटिल का कहना है, “कोपरडी के बलात्कार और हत्या की घटना के बाद से एट्रोसिटी क़ानून के कथित ग़लत इस्तेमाल के कई मामले सामने आए हैं. इनके ख़िलाफ़ मराठा समाज को इकट्ठा करने की कोशिश का नतीजा है विरोध प्रदर्शन. यह किसी के ख़िलाफ़ नहीं है.”
पाटिल आगे कहते हैं, “ओबीसी को बहुत कुछ मिल चुका है. दलितों को बहुत कुछ मिल चुका है. इसलिए अब यदि मराठों की बारी है तो इसका विरोध नहीं करना चाहिए. उनसे यही अपील करेंगे. दलितों और ओबीसी के मार्च का मराठो ने विरोध नहीं किया, लिहाजा अब मराठो का विरोध करना उचित नहीं है.”
मराठा मोर्चा के जवाब में कुछ दलित नेताओं ने भी मोर्चा निकालने की बात कही है. इससे ओबीसी और दलित कार्यकर्ताओं के बीच संदेह का माहौल है. क्या यह सामाजिक आंदोलन की आड़ में छिड़ी आरक्षण की राजनीतिक लड़ाई है?
पिछले 40 सालों में दलित समाज के आंदोलन से जुड़े पीपल्स डेमोक्रेटिक मूवमेंट के अशोक मेंढे का कहना है, “मराठा मोर्चा के पीछे राजनीतिक साज़िश भी है, जिसके निशाने पर दलित और पिछड़ों का आरक्षण है. यह कोशिश है कि दलित समाज का विरोध हो, महाराष्ट्र में वातावरण बिगड़े और विवाद हो. मराठा मोर्चे के जरिए आरक्षण की एक और लड़ाई लड़ी जा रही है.”
अशोक मेंढे के मुताबिक हार्दिक पटेल भी आरक्षण मांग रहे हैं, पर वो ये भी कह रहे हैं ‘हमें नहीं मिला तो इनका भी आरक्षण ख़त्म कर दो.’ ये लोग भी वही भाषा बोल रहे हैं.
महाराष्ट्र में 15 सालों तक कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार राज्य में सत्ता में रही, लेकिन उस समय किसी ने विशाल मोर्चे की बात नहीं सोची.
2014 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में भारी संख्या में सीट गंवाने के बाद हड़बड़ी में तत्कालीन सरकार 16 फ़ीसदी मराठा आरक्षण का अध्यादेश लाई, लेकिन ये ख़ामियों के चलते अदालत में टिक नहीं पाया. ऐसे में क्या निशाने पर मुख्यमंत्री के पद पर आसीन देवेंद्र फडणवीस हैं, जो ग़ैर मराठा हैं. रवींद्र काले पाटिल कहते हैं, “हम महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से बेहद ख़ुश हैं. वो मराठा नहीं हैं, लेकिन इससे कोई नाराज़गी नहीं.”
पाटिल के मुताबिक अस्सी से नब्बे फ़ीसदी मराठा अब भी ग़रीब हैं, उन्हें आरक्षण चाहिए. बहरहाल, इस मुद्दे पर कोई कुछ भी कहे, लेकिन इस पर राजनीति तो जारी है. मराठा संगठनों का मोर्चा विरोध के सिलसिले को मुंबई से दिल्ली तक ले जाना चाहता है. आने वाले समय में महाराष्ट्र का मराठा आंदोलन क्या रूप लेता है यह देखना पड़ेगा. उसी के बाद मराठा आंदोलन पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है.