भगतसिंह को धर्म-सम्प्रदाय़ का बाना पहनाने की कोशिशें
अरुण कान्त शुक्ला
किसी भी देश के किसी भी समाज में ऐसा घृणित काम कभी नहीं हुआ होगा, जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हुआ है. देश की आजादी ही नहीं बल्कि अन्याय पर आधारित समूची शासन व्यवस्था को बदलने के लिए शहादत देने वाले क्रांतिकारियों के सिरमोर भगतसिंह की प्रतिमा से उनका सर कुछ कायर लोग चंद दिन पहले रात के अँधेरे में काट कर ले गये.
अंग्रेजों ने भगतसिंह को फांसी केवल सांडर्स को मारने या असेम्बली में बम धमाका करने के लिए नहीं दी थी, अंग्रेजों ने भगतसिंह के क्रान्तिकारी विचारों को फांसी चढ़ाया था. मात्र 23 वर्ष का युवक जिस तरह अन्याय और शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था की परतें देश की आवाम के सामने उधेड़ रहा था, उससे अंग्रेज भयभीत हो गए थे.
और सिर्फ अंग्रेज ही क्यों, तात्कालीन गुलाम भारत के पूंजीपति/उद्योगपति, फिरकापरस्त ताकतें और उनकी नुमाईंदगी करने वाले आजादी की लड़ाई के अग्रणी नेता, सभी इस नौजवान के क्रांतिकारी दर्शन से भयभीत थे. वो भय आज भी कायम है. वो भय आज बढ़कर इतनी बड़ी हताशा में बदल चुका है की उन्हें अब भगतसिंह को पगड़ी पहनाकर, भगतसिंह की पहचान एक सिख के रूप तक सीमित करने की जरुरत लगने लगी है.
रायपुर का शंकर नगर चौक, जिसे भगतसिंह चौक के नाम से जाना जाता है, पर लगी भगत सिंह की प्रतिमा के धड़ से सर इसलिए अलग कर दिया गया क्योंकि वो सर हेट पहने था. पुलिस में रिपोर्ट के बावजूद, न तो पोलिस ने अपराधियों को ढूंढने की कोई कोशिश की और न ही इस कृत्य को अपराध मानकर कोई अनुसंधान राज्य शासन कर रहा है.
रायपुर के सिख समाज का कहना है कि भगतसिंह ने 80 वर्ष पहले विशेष परिस्थितियों में हैट पहना था. वो सिख थे, इसलिए उनकी प्रतिमा पर पगड़ी वाला सर ही लगना चाहिए. भगतसिंह को धर्म और सम्प्रदाय से रंगने की इन कोशिशों में राज्य के संस्कृति मंत्री भी सिख समाज की भावनाओं को सम्मान देने के नाम पर शामिल हैं.
भगतसिंह धर्म, सम्प्रदाय, जाती से परे एक क्रांतिकारी के रूप में प्रत्येक देशवासी के लिए सम्मानीय हैं. भारत में समाजवाद के नारे को रातों-रात सारे भारतवासियों तक पहुंचाने का जो काम भगतसिंह ने अपनी शहादत देकर किया, उसे यदि भगतसिंह नहीं करते तो करने में आधी सदी लग जाती. ऐसे वीर क्रांतिकारी की पहचान को पगड़ी तक सीमित करने की कोशिश न केवल उनकी शहादत का अपमान है बल्कि एक प्रखर क्रांतिकारी के लिए यह उसके वध के समान है.
रायपुर के शंकर नगर चौक पर स्थित भगतसिंह की प्रतिमा प्रारंभ से ही पगड़ी वाली होती, तब भी कोई संशय किसी के मन में नहीं आता किन्तु पहले प्रतिमा का सर काटकर ले जाना और फिर पगड़ी वाले सर को लगाने की मांग करने से संशय की गुंजाईश बनती है कि जो शहीद मौत के फंदे को गले लगाने तक धर्म और सम्प्रदाय से दूर रहकर नास्तिक बना रहा, उसका साम्प्रदायिकीकरण किया जा रहा है.
एक सवाल, यदि भगतसिंह स्वयं ज़िंदा होते तो क्या वे अपने इस साम्प्रदायिकीकरण को गवारा करते? वे, जो आज, भगतसिंह को साम्प्रदायिक बाना पहनाने पर तुले हैं, कह सकते हैं की यह एक हाईपोथेटिकल सवाल है. पर, यह हाईपोथेटिकल सवाल नहीं है. स्वयं भगतसिंह ने न केवल इस प्रश्न बल्कि इस तरह के अनेकों प्रश्नों का जबाब अपनी मृत्यु के एक दिन पूर्व दे दिए थे.
उन दिनों जालंधर से निकलने वाले “प्रताप” के सम्पादक वीरेन्द्र उसी जेल में थे, जिसमें भगतसिंह कैद थे. उन्होंने इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है:
“फांसी से एक दिन पहले चीफ वार्डन सरदार चतरसिंह भगतसिंह के पास पहुंचे. वह सेवानिवृत फ़ौजी हवलदार थे और अब जेल में नौकर हो गए थे. उनको जब मालूम हो गया कि भगतसिंह की जिन्दगी के कुछ ही घंटे बाकी हैं, तो उन्होंने एक धार्मिक सिख के नाते अपना कर्तव्य समझा कि भगतसिंह को याद दिलाएं कि इस जीवन के बाद एक दूसरा जीवन शुरू होता है. अपनी समझ से चतरसिंह बहुत अच्छा काम कर रहे थे.
वह भगतसिंह के पास पहुंचे और बोले –“बेटा, अब तो आख़िरी वक्त आ चुका है. मैं तुम्हारे बाप के बराबर हूँ. मेरी एक बात मान लो.”
भगतसिंह को बहुत आश्चर्य हुआ. उन्होंने पूछा –“ क्या बात है?”
इस पर चतरसिंह बोले-“ मेरी सिर्फ एक दर्खास्त है कि आख़िरी वक्त में तुम ‘वाहे गुरु’ का नाम ले लो और गुरुवाणी का पाठ करो. यह लो गुटका तुम्हारे लिये लाया हूँ.”
इस पर भगतसिंह हंस पड़े, और उन्होंने कहा “ आपकी इच्छा पूरी करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी, अगर कुछ समय पहले आप कहते. अब जबकि आख़िरी वक्त आ गया है, मैं परमात्मा को याद करूँ तो वे कहेंगे कि यह बुजदिल है. तमाम उम्र तो इसने मुझे याद नहीं किया, अब मौत सामने नजर आने लगी है तो मुझे याद करने लगा है. इसलिए बेहतर यही होगा कि मैंने जिस तरह पहले अपनी जिन्दगी गुजारी है, उसी तरह मुझे इस दुनिया से जाने दीजिये. मुझ पर यह इल्जाम तो कई लोग लगायेंगे कि मैं नास्तिक था और मैंने परमात्मा में विश्वास नहीं किया, लेकिन यह तो कोई नहीं कहेगा कि भगतसिंह बुजदिल और बेईमान भी था और आख़िरी वक्त मौत को सामने देखकर उसके पाँव लड़खड़ाने लगे.”
(मन्मथनाथ गुप्त की पुस्तक “भगतसिंह और उनका युग” पृष्ठ 221/222, संस्करण 1985)
एक शहीद, जिसने मृत्यु के कुछ घंटे पूर्व भी धर्म और सम्प्रदाय के सामने सर झुकाने से मना कर दिया, जिसके पांव मौत को सामने देखकर भी नहीं डगमगाये, उसके सर को कुछ बुजदिलों ने रात के अँधेरे में काट दिया ताकि उसके क्रांतिकारी विचारों को साम्प्रदायिक रंग दिया जा सके. ऐसा वे भगतसिंह के क्रांतिकारी विचारों पर अमल करके तो कर नहीं सकते थे, इसलिए, वो भगतसिंह को ही सम्प्रदाय और धर्म का बाना पहनाने पर तुल गए हैं.