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Brexit: वैश्विक पूंजी से बगावत

प्रभात पटनायक
यूरोपियन यूनियन से नाता तोडऩे के ब्रिटिश मतदाताओं के फैसले पर टिप्पणी करने वाले लगभग सभी लोगों ने, चाहे वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी, इस मुख्य नुक्ते को प्राय: छोड़ ही दिया है कि यह वैश्वीकृत वित्त के वर्चस्व के खिलाफ एक जबर्दस्त विद्रोह है. वास्तव में इस असली नुक्ते का नजरों से प्राय: छूट ही जाना अपने आप में इसी की ओर इशारा करता है कि पढऩे-लिखने वाले लोगों के बीच यह वर्चस्व किस कदर सर्वस्वव्यापी है, जबकि ऐसा लगता है कि ब्रिटिश मतदाताओं ने बहुत हद तक खुद को इस वर्चस्व से मुक्त कर लिया है.

वैश्वीकरण और वित्त के वर्चस्व की अभिन्नता
बेशक, कुछ लोग, जिनमें राष्ट्रपति ओबामा भी शामिल हैं, जरूर इतनी पैनी नजर रखते हैं कि उन्होंने ब्रेक्सिट के वोट को, वैश्वीकरण के ठुकराए जाने के रूप में देखा तो है. लेकिन, उन्होंने भी इसके लिए वैश्वीकरण के अनुचित डर को ही कारण बताया है- जिसे दूर किए जाने की जरूरत है- न कि उसके खिलाफ बहुत ही जायज गुस्से को, जो वैश्वीकृत वित्त ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के साथ जो कुछ किया है, उससे पैदा हुआ है. संक्षेप में उन्होंने वैश्वीकरण का बचाव किया है, जिसे वे लाभदायक मानते हैं, जबकि उसकी मुख्य पहचान को भुला ही दिया है कि यह वित्तीय पूंजी का वैश्वीकरण है, जिसके नुकसानदेह परिणामों को वे अनदेखा ही कर देते हैं.

यह प्रवृत्ति कि वैश्वीकरण के लाभों को तो रेखांकित किया जाए (‘यह मानव जाति को और पास लाता है’), लेकिन इस प्रक्रिया पर वित्तीय पूंजी का जो वर्चस्व है उसके निहितार्थों को अनदेखा किया जाए, दुर्भाग्य से इस मामले में योरपीय वामपंथ के बड़े हिस्से के भी रुख की पहचान कराता है. इस वामपंथ का बड़ा हिस्सा यूरोपीय यूनियन का पक्का पैरोकार बना रहा है. वह यूरोपीय यूनियन को उन जातीय या राष्ट्रीय टकरावों से ऊपर उठने के मूर्त रूप के तौर पर देखता है, जिनसे योरप बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में ग्रसित रहा था. यह तब है जबकि खुद यूरोपीय यूनियन पर जर्मन वित्तीय पूंजी हावी रही है. योरपीय वामपंथ का यह हिस्सा इस स्वत:स्पष्ट अंतर्विरोध पर इस झूठी उम्मीद के सहारे, जोकि उनकी एक कल्पना भर ही है, पार पाना चाहता है कि यूरोपीय यूनियन के दायरे में जर्मन वित्तीय पूंजी के वर्चस्व की काट, जनतांत्रिक दबाव के जरिए की जा सकती है.

इस पूर्वधारणा को ग्रीस में सिरिजा ने पूरी तरह से गले से उतार लिया था और इसका गलत होना, खुद ग्रीस के ही मामले में तब खुलकर सामने आ गया, जब यूरोपीय यूनियन के दायरे में सिरिजा के लिए इसके सिवा कोई विकल्प ही नहीं रहा कि ‘कटौतियों’ का एक और पंगुताकारी पैकेज स्वीकार करे, जो वित्तीय पूंजी के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हुए, जर्मनी के वित्त मंत्री वोल्फगांग शाउबले ने उस पर थोपा था. इस अनुभव ने योरपीय वामपंथ के इस हिस्से को पंगु बना दिया है और इस प्रक्रिया में समग्रता में वामपंथ को ही एक सुसंगत स्वर बनने से रोका है. इसका नतीजा यह हुआ है कि धुर-दक्षिणपंथी, नस्लवादी, फासीवादी या अर्द्ध-फासीवादी पार्टियों को इसके लिए खुला मैदान मिल गया है कि वित्तीय पूंजी के वर्चस्व में वैश्वीकरण से पैदा हुए संकट पर उठे जन-असंतोष का फायदा उठाएं.

वामपंथ में विभाजन क्यों?
यह ब्रिटेन के मामले में साफ तौर पर देखा जा सकता है. लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन ने, जो वैसे तो उन ‘कटौतियों’ के पक्के विरोधी हैं, जो वित्तीय पूंजी ने यूरोपीय यूनियन पर तथा इसलिए ब्रिटेन पर भी थोपी हैं, वित्तीय पूंजी के बोलबाले वाले यूरोपीय यूनियन के खिलाफ हमले का नेतृत्व करने के बजाए, जनता से यूरोपीय यूनियन में ‘‘बने रहो’’ के पक्ष में वोट डालने के लिए कहा था. इस तरह वह टोरी प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के ही सुर में सुर मिला रहे थे और ब्रिटिश वित्तीय पूंजी के ठिकाने, ‘‘सिटी ऑफ लंदन’’ की धुन पर नाच रहे थे. बेशक, वामपंथ का एक हिस्सा (कथित ‘‘लैक्जि़ट’’), ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन से बाहर निकलने के पक्ष में अभियान चला रहा था. फिर भी, इस मुद्दे पर वामपंथ के बिखराव ने स्वाभाविक रूप से इस आवाज को कमजोर कर दिया था. ऐसे हालात में जनता के गुस्से के इजहार की पहल दक्षिणपंथी यूके इंडिपेंडेंट पार्टी और टोरियों के एक हिस्से के हाथ में चली गयी, जिसका नेतृत्व लंदन का पूर्व-मेयर, बोरिस जान्सन कर रहा था.

यूरोपीय यूनियन से ‘‘एक्जिट’’ करने के विरोधियों ने, इस तथ्य को कि ‘‘एक्जि़ट’’ के पक्ष में फैसले पर प्रकटत: आप्रवास के खिलाफ लफ्फाजी का का असर पड़ा था (यूरोपीय यूनियन के नियम सभी सदस्य देशों पर यह जिम्मेदारी डालते हैं कि वे अन्य सदस्य देशों के आप्रवासियों को अपने यहां आने देंगे) और इसलिए इस वोट में कुछ रंग नस्लवादी विश्व-दृष्टि का भी है, ‘‘एक्जि़ट’’ के विकल्प को ठुकराने के लिए दलील की तरह पेश किया है. यह आरोप कितना सही है, यह अभी स्पष्ट नहीं है. फिर भी, ‘‘एक्जि़ट’’ खेमे पर जो भी नस्लवादी रंग लग गया हो, यह ठीक इसीलिए तो लगा था कि वामपंथ ने तथा सेंटर-लैफ्ट ने (जिसमें सबसे बढक़र लेबर पार्टी शामिल है), भारी बेरोजगारी तथा वित्तीय पूंजी द्वारा थोपे गए संकट के खिलाफ जनता के गुस्से को अनदेखा करने का रास्ता अपनाया था और उससे ‘‘बने रहो’’ के पक्ष में वोट डालने के लिए कहा था.

अगर वामपंथ ने जनता के इस गुस्से को पर्याप्त गंभीरता से लिया होता और वित्तीय पूंजी के बोलबाले वाले वैश्वीकरण से ‘‘नाता तोडऩे’’ के पक्ष में जोर लगाया होता, तो जनता को गुस्से को, इस तरह का कोई नस्लवादी स्वर लेने के बजाए, सचेत रूप से वित्तीय पूंजी के वर्चस्व तथा यूरोपीय यूनियन पर उसके प्रभुत्व के खिलाफ मोड़ा जा सकता था और कार्रवाई का एक और ही परिदृश्य तैयार किया जा सकता था. लेकिन, ‘‘नाता तोडऩे’’ के मामले में वामपंथ की हील-हवाली के चलते, धुर-दक्षिणपंथ को जनता के इस गुस्से फायदा उठाने का मौका मिल गया (हम उम्मीद करते हैं कि यह कोई हमेशा के लिए नहीं होगा). ऐसा न करने के पीछे वामपंथ के इरादे, जो असंदिग्ध रूप से योरप के विनाशकारी ‘‘राष्ट्रवादी’’ अतीत से परे जाने की आकांक्षा पर ही आधारित थे, बेशक प्रशंसनीय रहे होंगे. लेकिन, ऐसा न करने के पीछे की उसकी यह पूर्व-धारणा कि वित्त के वैश्वीकरण की परिघटना से नाता तोड़े बिना भी, वित्तीय पूंजी पर नियंत्रण हासिल किया जा सकता है, साफ तौर पर गलत थी.

इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रेक्सिट का फैसला, वित्त के वर्चस्व के खिलाफ गैर-सचेतन विद्रोह ही रह गया, क्योंकि जो इसे एक सचेतन विद्रोह के रूप में नेतृत्व दे सकते थे, उन्हें ऐसी कोई भी भूमिका अदा करना मंजूर नहीं हुआ.

लेबर पार्टी की भूमिका
वास्तव में उनका दोष, मैंने जितने की ओर इशारा किया है उससे भी कहीं ज्यादा है. यहां तक मैंने जनता शब्द का ही प्रयोग किया है. लेकिन, इतना तो साफ ही है कि यूरोपीय यूनियन के खिलाफ पड़े वोट में बहुत बड़ा हिस्सा, ब्रिटिश मजदूर वर्ग के वोट का ही है. एक रिपोर्ट के अनुसार तो, लेबर पार्टी के मतदाताओं में से पूरे 63 फीसद ने यूरोपीय यूनियन में रहने के खिलाफ वोट दिया था. चूंकि आज भी और ब्लेअरवाद के दौर से गुजरने के बावजूद, लेबर पार्टी के मतदाताओं में ज्यादातर मजदूर वर्ग से हैं, साफतौर पर ब्रिटिश मजदूर वर्ग के प्रचंड बहुमत ने यूरोपीय यूनियन को ठुकराया है.

दुर्भाग्य से उसे वामपंथ तथा सेंटर-लैफ्ट के ज्यादातर हिस्से की ओर से तो यूरोपीय यूनियन के पक्ष में वोट डालने की ही सलाह दी जा रही थी. मजदूर वर्ग और उसका प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वालों के बीच असंबंध का, इससे बड़ा उदाहरण खोजना मुश्किल होगा. जब मजदूर वर्ग वित्तीय पूंजी के वर्चस्व के खिलाफ विद्रोह कर रहा था, जिनसे उसका नेतृत्व करने की उम्मीद की जाती थी, वित्तीय पूंजी की हां में हां मिला रहे थे.

जब मैं वित्तीय पूंजी के खिलाफ विद्रोह की बात करता हूं, तो मेरा आशय सिर्फ जर्मन पूंजी के खिलाफ विद्रोह से ही नहीं है. मेरा आशय सबसे बढक़र तो ब्रिटिश वित्तीय पूंजी के खिलाफ विद्रोह से है. इससे दूसरी तरह से कहें तो हम यह कह सकते हैं कि ब्रेक्सिट के खिलाफ वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी खड़ी थी, उसका निकास चाहे किसी भी देश से क्यों न हो. लंदन सिटी हमेशा से पक्का यूरोपपरस्त रहा है, ताकि यूरोपीय महाद्वीप के वित्त के केंद्र के रूप में लंदन की जगह छीनने की फ्रेंकफुर्त की महत्वाकांक्षा को विफल कर सके. लंदन सिटी के प्रति यूरोप के उदासीन रहने से, फ्रेंकफुर्त का यह मंसूबा पूरा हो गया होता. लंदन शहर की यूरोप में ब्रिटेन के प्रवेश में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. और जब प्रधानमंत्री की हैसियत से मार्गरेट थैचर ने यूरोपविरोधी भावनाओं को स्वर देना शुरू किया, उनकी छुट्टी कराने में भी लंदन की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी.

इस जनमत संग्रह में भी लंदन सिटी ने जोर-शोर से ब्रेक्सिट के खिलाफ अभियान चलाया था. इसमें शायद ही अचरज की कोई बात होगी कि स्कॉटलैंड तथा उत्तरी आयरलैंड के अलावा, जहां के लोगों की यूरोपीय-यूनियनपरस्त भावनाओं को, उनके अंग्रेज विरोधी राष्ट्रवाद से ताकत मिली होगी (यह भी वामपंथ द्वारा हालात को पूरी तरह से गलत समझे जाने की ही गवाही देता है क्योंकि वामपंथ इन समुदायों की आशंकाओं को दूर सकता था), लंदन शहर यूके का ऐसा इकलौता क्षेत्र है, जहां बोरिस जॉन्सन के दूसरे पक्ष में होने के बावजूद, ‘‘बने रहो’’ का बहुमत आया था. इसमें शक नहीं कि लंदन की आबादी में अप्रवासियों की संख्या भी काफी है, जिनका झुकाव ब्रेक्सिट के विरोध का ही ज्यादा रहा होगा और यह लंदन शहर के ‘‘बने रहो’’ के पक्ष में फैसला करने के पीछे एक कारण रहा होगा. फिर भी, ब्रिटिश वित्तीय पूंजी के प्रभाव ने भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है.

मुश्किलों भरे होंगे आने वाले दिन
आने वाले दिन ब्रिटिश जनता के लिए बहुत ही मुश्किलों भरे दिन साबित होने जा रहे हैं. इसके कारण अनेक हैं. पहला तो यही कि वैश्वीकृत वित्त के वर्चस्व से किसी भी तरह का विच्छेद, अनिवार्य रूप से अपने साथ संक्रमण की गंभीर समस्याएं लेकर आता है. इनमें पूंजी का पलायन, मुद्रा का बैठना, भुगतान संतुलन की स्थिति बदतर होना और मुद्रास्फीति का बढ़ना आदि शामिल हैं. वास्तव में इन सभी की मार विच्छेद का रास्ता अपनाने वाली जनता पर ही पडऩे जा रही है. ये सब मुसीबतें ब्रिटेन के ऊपर आने वाली हैं और वास्तव में उस पर इनकी मार और भी ज्यादा तीखी होने जा रही है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था एक बहुत ज्यादा खुली हुई अर्थव्यवस्था है.

दूसरे, ब्रएक्सिट के जनमत संग्रह से पहले भी ब्रिटेन अपने ऊंचे चालू खाता घाटे के चलते, जो सकल घरेलू उत्पाद के 7 फीसद के स्तर तक पहुंच गया था, गंभीर समस्याओं से जूझ रहा था. सबसे अच्छे दौर में भी इस स्तर के घाटे का बोझ उठाना बहुत ही मुश्किल होता. वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी से टकराव के दौर में इस स्तर के घाटे का बोझ उठाना तो और बहुत मुश्किल होने जा रहा है. तीसरे, ब्रेक्सिट के पक्ष में फैसले के बाद, ब्रिटिश जनता की जिंदगी मुश्किल करने के लिए, वित्तीय पूंजी हर संभव हथियार आजमाने जा रही है.

इस लड़ाई में हारने के बाद, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी, विश्व वित्तीय पूंजी अब हालात को इस तरह अपने पक्ष में मोड़कर युद्ध में विजय हासिल करने की कोशिश करेगी कि उसकी इच्छा की अवज्ञा करने वाली जनता, आखिरकार उसके ही चरणों में आकर गिरने के लिए मजबूर हो जाए.

चौथे, ठीक इस मुकाम पर जब जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा होगा, उसे वामपंथी ताकतों का नेतृत्व उपलब्ध नहीं होगा. यूकेआइपी के प्रमुख निगेल फरागेस तथा बोरिस जोन्सन जैसे लोग वैश्वीकृत वित्त के खिलाफ जनता के किसी भी संघर्ष का नेतृत्व करने में पूरी तरह से असमर्थ हैं. सचाई यह है कि यूकेआइपी जैसे सभी फासिस्ट तो इसी का इंतजार कर रहे होंगे कि वित्तीय पूंजी उन्हें पटा ले और यही बात जॉन्सन जैसों पर भी लागू होती है. वामपंथ ही है जिसके पास इस लड़ाई में जनता का नेतृत्व करने के लिए जरूरी भविष्यदृष्टि है, लेकिन उसने तो इस मुकाम पर जनता का साथ छोडऩे का रास्ता अपनाया है. संक्षेप में यह कि जनता वित्त के वर्चस्व के खिलाफ वर्ग संघर्ष में उलझी है, जहां उसका मुकाबला बहुत भारी विरोधी से है, जबकि उसके परंपरागत नेतृत्व ने उसका साथ छोड़ दिया है.

आगे का रास्ता
जब तक लेबर पार्टी (जिसका नेतृत्व इस समय कथित रूप से वामपंथ का हाथों में है) का नेतृत्व अपनी गलती को दुरुस्त नहीं करता है और खुद अपने ही समर्थन आधार की आवाज सुनने तथा उसका आदर करने के लिए तैयार नहीं होता है, जनता के लिए वित्तीय पूंजी के खिलाफ जो लड़ाई उसने छेड़ी है उसे चलाते रहना मुश्किल होगा. लेबर पार्टी को अब इसकी कसम खानी चाहिए कि जनमत संग्रह के फैसले को लागू किया जाएगा (जिसका वादा डेविड कैमरून तक ने किया है) और उसे फौरन नये सिरे से चुनाव कराए जाने की मांग करनी चाहिए और एक भरोसा जगाने वाले नये कार्यक्रम के साथ जनता के सामने जाना चाहिए.

इस तरह के कार्यक्रम में ‘कटौतियों’ का ठुकराया जाना शामिल होना चाहिए. इसके अलावा इस कार्यक्रम में यूरोप की अन्य वामपंथी ताकतों के साथ गठबंधन शामिल होना चाहिए, जैसे पोडेमोस जो कि सता में आने के करीब है. इसके साथ ही इसमें चालू खाता घाटे के लिए इस तरह वित्त जुटाए जाने की फौरन व्यवस्था करना शामिल होना चाहिए, जिसमें ‘कटौतियां’ स्वीकार न करनी पड़ें और इसके साथ ही साथ, अगर हो तो प्रत्यक्ष कदमों के जरिए इस घाटे पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए.

बहरहाल, ब्रिटेन में निकट भविष्य में घटनाक्रम चाहे जो भी रूप ले, यूरोपीय यूनियन से अलग होने के ब्रिटेन के फैसले के दो महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं. पहला, यह उस संकट को रेखांकित करता है तथा और बढ़ाता है, जिसमें विश्व पूंजीवाद इस समय डूबा हुआ है. ब्रिटिश जनता का फैसला इस संकट के खिलाफ जिस विद्रोह का संकेतक है, पूंजीपतियों के ‘‘भरोसे’’ को और कमजोर ही करने जा रहा है और बहाली के दरवाजे पर होने के सारे झूठे दावों को और बलपूर्वक नकारने जा रहा है.

दूसरे, यही तथ्य अपने आप में दूसरे देशों के लिए इसका प्रोत्साहन बनने जा रहा है कि ब्रिटिश मिसाल का अनुकरण करें और अगर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था की संक्रमण की मुश्किलें बहुत भारी साबित होती हैं, तब भी यह प्रवाह रुकने वाला नहीं है. संक्षेप में यह कि अब मेहनतकश जनता को संकट में फंसे रहना मंजूर नहीं होगा. अब जबकि मधुमक्खी के छत्ते पर पत्थर मार दिया गया है, पलटकर यथास्थिति पर जाना नामुमकिन होगा. इस तरह हम वैश्वीकरण की उस परिघटना के उखडऩे को देख रहे हैं, जो अब तक हमारी दुनिया की पहचान बना हुआ था.

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