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अमरीका को मोदी का गिफ्ट

दिनेश अब्रोल
कैबिनेट ने 12 मई 2016 को राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार (पेटेंट कानून से संबंधित) नीति को अपनी मंजूर दे दी. यह भारत की ‘अपनी तरह की पहली’ ही नीति है, जिसके दायरे में बौद्धिक संपदा के सभी रूप आ जाते हैं और जो विकास की चिंताओं की ओर से आंखें मूंदकर, बौद्धिक संपदा के स्वामियों के अधिकारों के लिए एक समान सिद्धतांतों का अनुसरण करती है. पिछले कछ अर्से से भारत पर, अमरीकी सरकार ने अपनी धारा-301 के तहत दबाव बना रखा था. वास्तव में भारत से इसकी मांग की जाती रही है कि वह अपनी बौद्धिक संपदा व्यवस्था को ट्रिप्स समझौते के तहत जितना जरूरी था, उससे भी ज्यादा कड़ा करे, जबकि भारत ने विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के लिए दबाव में ही उक्त प्रावधान को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया था.

वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारीगण इसका जिक्र करते हैं कि किस तरह भारत सरकार पर, अमरीकी सरकार की ओर इसके लिए दबाव पड़ रहा है कि ट्रांस-पैसिफिक साझेदारी (टीपीपी) पर दस्तखत कर दे, जिसमें ट्रिप्स के प्रावधानों से भी फालतू अनेक प्रावधान हैं. इस नीति की घोषणा का मौका भी बहुत ही महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री मोदी 7-8 जून तक, अमरीका के इस साल के अपने चौथे दौरे पर होंगे. मोदी के अमरीकी संसद को संबोधित करने की भी उम्मीद की जा रही है.

जनता के हितों के खिलाफ
इस नीति के दायरे में पेटेंट कानून, ट्रेड मार्क कानून, डिजाइन कानून, मालों की भौगोलिक पहचान का कानून, कॉपीराइट कानून, पौध किस्मों व किसानों के अधिकारों की रक्षा का कानून, सेमी-कंडक्टर इंटीग्रेटेटेड सर्किट लेआउट डिजाइन कानून और जैव विविधता कानून आते हैं. इस नीति से अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बहुत भारी लाभ होने जा रहा है. दूसरी ओर भारत की जनता को निकट भविष्य में अनेक क्षेत्रों में मालों व सेवाओं के विशाल क्षेत्र में घरेलू औद्योगिक व प्रौद्योगिकीय सामर्थयों के विकास में अनेक नयी बाधाओं के खड़े हो जाने का सामना करना पड़ सकता है. यह बौद्धिक संपदा अधिकार नीति, विदेशी एकाधिकार को मजबूत करने के जरिए, दूसरे भी अनेक प्रतिकूल परिणाम लाने जा रही है.

इसकी मार भारतीय जनता के लिए सस्ती दवाओं तक पहुंच पर दिखाई देगी और मालों व सेवाओं से संबंधित खाद्य व पर्यावरण संरक्षणों पर दिखाई देगी. बौद्धिक संपदा के उपयोक्ताओं के रूप में भारतीय किसानों तथा उद्योगों पर, इस बौद्धिक संपदा अधिकार नीति की भारी मार पड़ेगी. इस नीति के जरिए मोदी सरकार ने दवा, सॉफ्टवेयर, इलैक्ट्रोनिक्स व कम्युनिकेशन्स, बीज, पर्यावरण माल, अक्षय ऊर्जा, कृषि व स्वास्थ्य जैव-प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों को और नयी व उदीयमान प्रौद्योगिकियों के दूसरे कितने ही अभी अज्ञात उपयोगों को भी खतरे में डाल दिया है. इसके अपनाए जाने के बाद भारत की जनता को स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा, सूचना व संचार संबंधी चुनौतियों का सामना करने में, अनेकानेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा.

अब उद्योगों के मामले में, सार्वजनिक धन से संचालित शोध व विकास संगठनों के मामले में, शिक्षा संस्थाओं के मामले में, सरकारी विभागों, अदालतों व न्यायाधीशों के मामले में नीतिगत एजेंडा, बौद्धिक संपदा अधिकतमवादियों द्वारा संचालित होगा. इस राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार नीति में, जनहित की कीमत पर बौद्धिक संपदा अधिकारों को अधिकतम किया जाएगा. वास्तव में खुद इस नीति में इस सचाई को स्वीकार किया गया है कि भारत सरकार ने दबाव में 1995 में बौद्धिक संपदा कानून के मामले में जो बदलाव किए थे उनसे, विदेशी कंपनियों की बौद्धिक संपदा में बढ़ोतरी हुई थी.

विडंबनापूर्ण तरीके से इसके बावजूद इस नीतिगत रुख में, नवोन्मेषीपन तथा सर्जनात्मकता के नाम पर, विदेशी इजारेदारियों के पक्ष को ही आगे बढ़ाया गया है. यह इसके बावजूद है कि इस धारणा के पक्ष में रत्तीभर साक्ष्य नहीं है कि कड़े बौद्धिक संपदा अधिकारों पर आधारित खांचा भारत में सर्जनात्मकता/ नवोन्मेषीपन को बढ़ावा देने में मददगार होगा या भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में मददगार होगा. इससे उल्टे साक्ष्य ही काफी पुख्ता हैं और योरप, अमरीका आदि के नीति निर्माताओं के इसी के पक्ष में बढ़ता हुआ रुझान देखा जा सकता है. वास्तव में विकसित देशों में तो कड़ी बौद्धिक संपदा अधिकार व्यवस्थाओं की सर्जनात्मकता/ नवोन्मेषीपन को बढ़ावा देने में विफलता पहले ही, ‘‘उन्मुक्त स्रोत’’ (ओपन सोर्स), ‘‘सर्जनात्मक शामिलात’’ (क्रिएटिव कॉमन्स) तथा ‘‘दवाओं में उन्मुक्त स्रोत नवाचार’’ आदि आंदोलनों के उदय की ओर ले गयी है. यह पूर्वाधार ही अपने आप में संदेहास्पद है कि कड़ी बौद्धिक संपदा अधिकार व्यवस्था से सर्जनात्मकता/ नवोन्मेषीपन को बढ़ावा मिलता है.

गलत पूर्वाधार
इस नीति के विजन दस्तावेज तथा मिशन वक्तव्य में यह दावा किया गया है कि बौद्धिक संपदा सर्जनात्मकता तथा नयी खोजों को प्रोत्साहित करती है, जिससे सार्वजनिक हित पूरे होंगे. कड़ी बौद्धिक संपदा व्यवस्था से उद्यमिता, सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक विकास तथा स्वास्थ्य रक्षा व खाद्य सुरक्षा तक पहुंच और पर्यावरण संरक्षण में प्रगति होगी. लेकिन, इसके विपरीत सारे उपलब्ध साक्ष्य इसी की गवाही देते हैं कि किस तरह बीजों की नयी किस्मों का उत्पादन करने वालों के लिए किसी तरह के बौद्धिक संपदा अधिकार संरक्षण के बिना ही भारत में हरित क्रांति हुई थी.

इसी प्रकार, कड़ी बौद्धिक संपदा अधिकार स्वीकार किए बिना ही भारत के दवा उद्योग ने वह मुकाम हासिल किया है, जहां उसे तीसरी दुनिया का दवाखाना माना जाने लगा है. वास्तव में आज हमारे देश का घरेलू दवा उद्योग, अमरीका तथा योरप के नियंत्रित बाजारों तक बड़ी संख्या में दवाओं की आपूर्ति कर रहा है और अनेक औषधि समूहों के मामले में तो अमरीका तथा योरप के लोगों के लिए जीवन-रेखा ही बना हुआ है, यह विडंबनापूर्ण है कि मोदी सरकार के नीति निर्माताओं ने इन तमाम सचाइयों को अनदेखा ही कर दिया है और एक ऐसी नीति बौद्धिक संपदा अधिकार नीति पर मोहर लगा दी है जो विकास, सर्जनात्मकता तथा नयी खोजों के रास्ते में ही आने जा रही है.

इस नीति में बौद्धिक संपदा अधिकारों को निजी अधिकारों, खरीदी-बेची जा सकने वाली वित्तीय परिसंपत्तियों और आर्थिक औजार के रूप में देखा जा रहा है. लेकिन, ऐसी किसी भी नीति के लक्ष्य तथा औजार तो शासन तथा समाज के बीच होने वाली संविदा से निर्देशित होनी चाहिए, जिसका आधार समाज के विकास की प्रक्रिया पर पडऩे वाले इस बौद्धिक संपदा के प्रभाव को बनाया जाना चाहिए. इसे ध्यान में रखें तो भारतीय राज्य कार्पोरेटों को एकाधिकार नहीं दे सकता है. एक नियमनकारी औजार के रूप में राज्य को पहले यह सवाल पूछना चाहिए कि कार्पोरेटों को ये अधिकार देने से समाज को किस तरह तथा क्या लाभ मिलने जा रहे हैं और भारतीय जनता को इसके लिए क्या कीमत अदा करनी पड़ेगी. बेशक, उक्त सामाजिक संविदा में नयी खोज करने वाले के लिए पुरस्कार या प्रोत्साहन की व्यवस्था होनी चाहिए. लेकिन, इसके साथ ही यह भी तो पूछा जाना चाहिए कि बदले में बौद्धिक संपदा अधिकार के स्वामी किस तरह की नयी खोज तथा ऐसी नयी खोज तक पहुंच मुहैया कराने जा रहे हैं.

प्रोत्साहन, विकास के चरण के हिसाब से होने चाहिए और बौद्धिक संपदा की गुणवत्ता के अनुरूप होने चाहिए. बौद्धिक संपदा के खुलासे व प्रसार को, ज्ञान तक पहुंच को तथा सार्वजनिक हित का अधिकतम किया जाना चाहिए. लेकिन, इस नीति में इस संतुलन को बहुत ही गोल-मोल तरीके से इस रूप में परिभाषित किया गया है कि बौद्धिक संपदा अधिकार स्वामियों के अधिकारों को इस तरह से लागू किया जाए, जो सामाजिक व आर्थिक कल्याण के अनुरूप हो और बौद्धिक संपदा अधिकारों के दुरुपयोग को या उनके बेजा इस्तेमाल को रोके.

इससे क्या होगा?
इस नीति में विभिन्न स्तरों पर बौद्धिक संपदा अधिकार प्रवर्तन एजेंसियों की सामर्थ्यों में बढ़ोतरी का प्रावधान किया गया है. इसमें राज्य पुलिस बलों में बौद्धिक संपदा अधिकार प्रकोष्ठओं को मजबूत करना शामिल है. इसमें बौद्धिक संपदा विवादों का निपटारा वाणिज्यिक अदालतों से कराने का प्रस्ताव किया गया है. यह नीति स्पष्ट रूप से बौद्धिक संपदा के स्वामियों के पक्ष में और भारतीय जनता के हितों के खिलाफ जाती है. यह नीति स्पष्ट रूप से तथा बड़े पैमाने पर, अब तक के स्थापित रास्ते से अलग जाती है, जो बख्शी टेकचंद तथा न्यायमूर्ति आयंगर कमेटियों की समझ पर आधारित थी और अब तक भारत के पेटेंट कानून के सूत्रीकरण का मार्गदर्शन करती आयी है. इस नीति में लिखित रूप से यह घोषणा की गयी है कि सरकार, अंतर्राष्ट्रीय संधियों व समझौतों की वार्ताओं में रचनात्मक तरीके से शामिल होगी.

इसमें स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा गया है कि इसमें कुछ ऐसी बहुपक्षीय संधियों तक पहुंच हासिल करने पर विचार किया जाएगा, जो भारत के हित में हों. यह इसका इशारा है कि भारत ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) में शामिल हो सकता है, जिसमें ट्रिप्स से आगे का एजेंडा पहले ही स्वीकार किया जा चुका है. मोदी सरकार ने अपनी खास शैली में इस नीति में बौद्धिक संपदा का सम्मान किए जाने की दुहाई को जोड़ दिया है और यह अपेक्षा की है कि इस संदेश को स्कूलों तक, कॉलेजों तक और आम जनता तक ले जाया जाएगा. इस नीति में बौद्धिक संपदा अधिकार सुगमताकारक केंद्रों को मजबूत करने तथा उनका ताना-बाना फैलाने का प्रस्ताव है. इसके साथ ही इसमें परंपरागत ज्ञान की एक डिजिटल लाइब्रेरी खोलने का भी प्रस्ताव किया गया है.

इस नीति में राष्ट्रीय शोध प्रयोगशालाओं, विश्वविद्यालयों, प्रौद्योगिकी संस्थानों तथा अन्य शोधकर्ताओं का शोध उत्पाद बढ़ाने और इसके लिए उनके बौद्धिक संपदा अधिकार हासिल करने को प्रोत्साहित करने तथा सुगम बनाने का प्रस्ताव है. इस नीति में इसका प्रस्ताव किया गया है कि बौद्धिक संपदा निर्माण को सार्वजनिक धन से संचालित शोध व विकास संस्थानों तथा प्रौद्योगिकी संस्थानों के प्रदर्शन के मुख्य पैमाने में शामिल किया जाए. इस नीति में स्पष्ट रूप से यही कहा गया है कि सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा बड़े पैमाने पर बौद्धिक संपदा को आगे बढ़ाया जाए, जिसके लिए मिसाल के तौर पर पेटेंटिंग या शोध के नतीजों की लाइसेंसिंग पर जोर दिया गया है.

दूसरी ओर, इसमें निजी क्षेत्र के साथ सार्वजनिक संस्थाओं की साझेदारी पर जोर दिया गया है. लेकिन, इससे खुद ब खुद उठने वाले सवाल को पूछने से बचा गया है कि काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रिअल रिसर्च (सीएसआइआर) और इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आइसीएआर) में अब तक जो इसी तरह की नीति पर चला जा रहा था, उसके कैसे नतीजे निकले हैं.

सार्वजनिक शोध पर हमला
1990 के मध्य से ही सीएसआइआर के शोधार्थियों को इसके निर्देश दिए जा रहे थे कि पेटेंट दावे दर्ज कराएं. लेकिन, यह नीति ऐसे कोई भी पेटेंट पैदा नहीं कर पायी, जिनसे सीएसआइआर राजस्व अर्जित कर पाता. न सिर्फ इसमें सीआइएसआर का पैसा डूबा तथा उसे कोई राजस्व हासिल नहीं हुआ बल्कि इस चक्कर में सीआइएसआर के शोध व विकास प्रयासों को कहीं महत्वपूर्ण दिशाओं से हटाया भी गया. ऐसी बौद्धिक संपदा पैदा करने के लिए जिसका बाजार हो, प्रयोगशालाओं को पेटेंट पोर्टफोलियो का नियोजन करना था, जिनके बिना उपयोग में लाए जाने लायक बौद्धिक संपदाओं का निर्माण संभव नहीं था.

याद रहे कि अलग-अलग शोधकर्ताओं द्वारा निर्मित बौद्धिक संपदाओं की प्रशंसा करना ही काफी नहीं होता है. कार्पोरेट खिलाड़ी बौद्धिक संपदा निर्माण की चुनौती को रणनीतिक तरीके से लेते हैं. वे पेटेंट के के मुकद्दमों पर पैसा खर्च करते हैं. आखिर, भारत क्या चाहता है कि हमारी प्रयोगशालाएं विज्ञान पर अपना ध्यान लगाएं या मुकद्दमेबाजी पर. पुन:, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अगर सार्वजनिक धन से संचालित प्रयोगशालाओं को इसके लिए प्रोत्साहित किया जाता है कि अपने शोध योगदानों को पेटेंट कराएं, उन पर इकलौतेपन के अधिकार हासिल करें और अपने शोध कार्य से निजी क्षेत्र से पैसा कमाएं, तो कर दाताओं को वास्तव में इसमें दो-दो बार खर्चा करना पड़ रहा होगा. इसकी वजह यह है कि निजी क्षेत्र तो उक्त सार्वजनिक बौद्धिक संपदा से कमाई करने के लिए, सब कुछ लागत में शामिल कर रहा होगा. इस नीति में यह प्रस्ताव किया जा रहा है कि बौद्धिक संपदा सुगमीकरण केंद्रों को स्थापित किया जाए तथा मजबूत किया जाए, जो उद्योगों तथा नयी खोज करने वाले विश्वविद्यालय व अन्य शोध केंद्रों के बीच, पुल का काम करेंगे. भारत में बौद्धिक संपदा आधारित उद्यमिता के मामले में, विज्ञान व प्रौद्योगिकी पार्को के प्रदर्शन का अनुभव कोई उत्साहजनक नहीं रहा है.

इसी प्रकार, नेशनल रिसर्च एंड डैवलपमेंट कार्पोरेशन (एनआरडीसी), नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन (एनआइएफ), टैक्रोलॉजी एंड इन्फार्मेशन फोरकॉस्टिंग एंड असेसमेंट काउंसिल (टीआइएफएसी) तथा बॉयोटैक्रोलाजी विभाग के तहत एसआबीआरआइ तथा बीआइआरएसी का इसी मंत्र पर चलने का अनुभव, बौद्धिक संपदा आधारित उद्यमिता तथा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के पहले से कोई उत्साहजनक नहीं रहा है. पुन:, हालांकि इस नीति में ओपन सोर्स ड्रग डिस्कवरी (ओएसडीडी) को बढ़ावा देने की बात कही गयी है, सचाई यह है कि सीएसआइआर द्वारा ओएसडीडी कार्यक्रम को आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है.

इन नीति में साफ्टवेयर, बीज तथा सर्जनात्मक प्रकाशन के क्षेत्र में ओपन सोर्स के विचार को बढ़ावा दिया जा सकता था, बशर्ते सरकार सार्वजनिक खरीदी की नीति का एलान करने के लिए तैयार होती, जिससे साफ्टवेयर व बीजों के क्षेत्र में ओपन सोर्स को बढ़ावा मिलता. इसके लिए ओपन सोर्स लाइसेंसिंग के पक्ष में कानून लाने की घोषणा की जानी चाहिए थी. बौद्धिक संपदा के गैर-परवर्जी प्रसार के लिए विशेष लाइसेंस दिए जाने को भी बढ़ावा दिया जा सकता था. याद रहे कि आस्टे्रलिया, बेल्जियम, क्रोएशिया, चैक गणराज्य, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, हंगरी तथा इटली समेत, पूरे 25 देश हैं जिन्होंने ओपन सोर्स के पक्ष में कानून बनाए हैं.

यह नीति बताती है कि भारत, ट्रिप्स समझौते तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में, दोहा घोषणा के साथ बंधा रहने जा रहा है. लेकिन इससे छूट संभव नहीं थी क्योंकि भारत सरकार ने पहले ही नैरोबी के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में व्यापार व निवेश के मुद्दों पर इक्कीसवीं सदी के लिए अमरीकी मुद्दों के लिए मंजूरी दे दी थी. यूएसटीआर के अनुसार दोहा विकास एजेंडा का अंत ही हो चुका है. इस एजेंडे पर कोई प्रगति नहीं हुई है. कहने की जरूरत नहीं है कि नयी बौद्धिक संपदा अधिकार नीति का बौद्धिक संपदा अधिकतमकारी एजेंडा, निश्चित रूप से अमरीकी सरकार को खुश करने जा रहा है.

प्रधानमंत्री मोदी को अपनी इस यात्रा में अमरीका के लिए कोई न कोई गिफ्ट तो लेकर जानी ही थी और नयी बौद्धिक संपदा अधिकार नीति ही वह गिफ्ट है. यह नहीं भूलना चाहिए कि इस नीति को अपनाया गया तो कानून तथा अदालतों के स्तर पर भी बौद्धिक संपदा अधिकतमकारी एजेंडा तथा उसे प्रतिबिंबित करने वाले कानून को ही लागू किया जा रहा होगा और उसके ही आधार पर मुकद्दमों का निपटारा किया जा रहा होगा. यह एक बहुत भारी बदलाव होगा. इसलिए, नयी राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा अधिकार नीति का विरोध करना होगा और उसे बाकायदा राष्ट्रीय नीति का रूप लेने से रोकना होगा.

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