प्रसंगवश

रैंबो के हसीन सपने

हाल ही में हॉलीवुड के महशूर नायक रैंबो का भारतीय संस्करण राजनीति के अखाड़े में अवतरित हुआ है. खाखरा, थेपला और लिज्जत पापड़ पर गुजारा करने वाला यह गुजराती रैंबो गोयबल्स के छक्के छुड़ा देगा. गोयबल्स का तकिया कलाम था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सत्य प्रतीत होता है. अपना रैंबो तो केवल इशारा ही करता है तो पन्द्रह हजार बाढ़ पीड़ित गुजरातियों का उद्धार हो जाता है. मीडिया उनके इशारे को ही सत्य मान लेता है. अब देशवासियों के मन में क्या है, यह तो 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद पता चलेगा.

विएतनाम युद्ध में करारी हार से खिसियाये अमरीका ने देशवासियों को तसल्ली देने के लिये रैंबो को हॉलीवुड में उतारा था. रैंबो सिनेमा के पर्दे पर अकेला ही वियतनामी सेना को पछाड़ देता है. भले ही पूरी अमरीकी सेना अपने नापाम बम के साथ बेइज्जत होकर लौट आयी थी. रैंबो के कई संस्करण पर्दे पर आये, यहां तक कि एक फिल्म में वह अफगानिस्तान में घुसकर सोवियत सेना से अपने बॉस को छुड़ा लाता है.

जर्मनी के युद्धकालीन प्रचार मंत्री गोयबल्स के कुशाग्र बुद्धि का यदि किसी ने सबसे ज्यादा फायदा उठाया है तो वह अमरीका है. वियतनाम तथा अफगानिस्तान में मुँह की खाने के पश्चात भी उसने रैंबो के माध्यम से अपने देशवासियों को झूठी दिलासा देने में कामयाबी हासिल की कि अमरीका अपराजेय है. यह तो हुई हॉलीवुड के रैंबो तथा अमरीकी प्रशासन के छाया युद्ध की बात.

हम बात कर रहे थे भारतीय रैंबो की. आखिरकार यह किसकी उपज है. यह कौन-सा किला फतह करने जा रहा है. इसका सीधा-साधा जवाब है कि देश को ऐसे ही किसी रैंबो की तलाश थी. आज जो सवाल देश के सामने खड़ा है, उससे देशवासियों का ध्यान हटाना एक बड़ा ही पुनीत कार्य है. हमारे देश में महंगाई दिनों-दिन सुरसा के मुँह के समान बढ़ती जा रही है. नौजवानों को देने के लिये नौकरी का अभाव है. भ्रष्टाचार के बिना कोई भी काम नहीं होता. रुपये का मूल्यांकन किसी वस्तु के समान किया जा रहा है. विदेशी आयात के लिये पहले डालर का आयात करना पड़ता है, तभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार से कुछ खरीदा जा सकता है.

प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाँट खुलेआम जारी है. कोल ब्लाक के नाम पर पिछले दरवाजे से कोयला खदानों का निजीकरण किया जा रहा है. उसमें भी कैग ने गड़बड़ियों का खुलासा किया है. जंगल को गाजर-मूली के समान काटा जा रहा है. जरूरत न होने पर भी नदियों पर बिजली उत्पादन के लिये बांध बनाये जा रहे हैं. इन सबके मूल में मोटा नाँवा कमाने का उद्देश्य छिपा है. जिसे अब जनता समझ गयी है.

मनमोहनी चेहरे के पीछे छिपे वालमार्ट तथा वाल स्ट्रीट, ज्यादा दिनों तक जनता को बरगला नहीं पायेगी. ऐसे में इस व्यवस्था के रहनुमा टाटा-बिड़ला-अंबानियों के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा है कि कौन उनकी नाव को (जनता की नहीं) वैतरणी के पार ले जायेगा. एक ऐसा व्यक्ति चाहिये, जो उनके शोषण व्यवस्था को बरकरार रख सके. अमरीका के सीआईए के शब्दो में कहें तो हमें अमरीकी कंपनियों के लिये शांति व्यवस्था कायम रखने वाले शख्स की जरूरत है.

यही खोज जाकर रैंबो पर खत्म होती है. वर्गीस कुरियन के अमूल सहकारिता आंदोलन से हुए गुजरात के विकास को अपना बताने वाला रैंबो, टाटा के नैनो के लिये जमीन मुहैय्या करवाने का माद्दा रखने वाला रैंबो यदि इस व्यवस्था के आंखों का तारा नहीं बनेगा तो क्या वामपंथी बनेंगे.

रैंबो पर भारतीय तथा विदेशी धन्ना सेठों ने बहुत बड़ा दांव लगाया है. यदि मनमोहनी हँसी में जनता न फँसी तो रैंबो के पीछे तो खड़ी ही हो जायेगी. इसी कारण कार्पोरेट मीडिया रैंबो का प्रचार करने का कोई भी मौका नहीं गँवाना चाहती है. रैंबो को उसके मुकाम तक पहुंचाने के लिये तैयारी जारी है. तिल का ताड़ तथा ताड़ का तिल अभी से बनाया जा रहा है. रैंबो के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गई है. जिसे रैंबो ने सहर्ष स्वीकार किया है. इसी जिम्मेदारी के अहसास के चलते पार्टी के भीष्म पितामह को कुपित करने से भी बाज नहीं आये.

बाढ़ पीड़ितों के नाम पर जो छलावा दिया गया है, वह तो एक छोटी-सी मिसाल है. आगे ऐसा बहुत कुछ होगा, जो गोयबल्स को कब्र से बाहर आकर नया पाठ सीखने के लिये मजबूर कर देगा. देखते हैं, हॉलीवुड के रैंबो के समान यह रैंबो सफलता पाता है कि नहीं. कुछ परिस्थिति भिन्न है. इस रैंबो के साथ संपूर्ण पार्टी खड़ी है. इंतजार करिये 2014 के लोकसभा चुनावों का.

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