Columnist

नक्सली नहीं आदिवासी

सुनील कुमार
बस्तर की खबरों को लेकर सोशल मीडिया पर एक बहस छिड़ी है कि वहां समर्पण करने वाले या फरार घोषित आदिवासियों को आदिवासी लिखा जाए, या नक्सली लिखा जाए? छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख अखबार की खबरों की कतरनों को लगाकर कुछ लोग यह आपत्ति कर रहे हैं कि आदिवासियों का समर्पण कहना गलत है और अखबार की इस बात के लिए आलोचना हो रही है.

अब अगर अखबारनवीसी की बुनियादी तकनीक के हिसाब से देखें और आदिवासियों के प्रति न्याय के हिसाब से देखें, तो उन्हें आदिवासी लिखना बेहतर है. वे नक्सली हैं, या नहीं, इसे तो अदालत में साबित होते बरसों लग जाएंगे, लेकिन वे आदिवासी हैं, इसमें तो कोई शक है नहीं, और उनके आदिवासी होने की वजह से ही उनकी अधिक फिक्र की जाती है, और अधिक फिक्र की भी जानी चाहिए. जो लोग सोशल मीडिया पर अखबार की आलोचना कर रहे हैं, वे भी आदिवासियों के लिए जाहिर तौर पर फिक्रमंद लोग हैं, और यह फिक्र होनी भी चाहिए.

अखबारनवीसी और इंसाफ इन दोनों के हिसाब से जब भी किसी कमजोर तबके के खिलाफ जुल्म होता है, तो उसके साथ उसके तबके का जिक्र इसलिए जरूरी हो जाता है कि समाज में लोग ध्यान से देखें और समझें कि दलित, या आदिवासी, या गरीब, या महिला, बुजुर्ग, बच्चे, इनके साथ किस तरह की ज्यादती हो रही है. इसीलिए देश में अलग-अलग ऐसे कानून बनाए गए हैं जो कि इन तबकों की अधिक हिफाजत करते हैं जो कि हिंसा या जुर्म के अधिक शिकार होते हैं. आदिवासी वैसा ही एक तबका हैं, और इसलिए जब पुलिस के सामने उनके समर्पण की कोई खबर बनती है, तो उसमें आदिवासी का समर्पण लिखा जाना सही है.

दूसरी तरफ इससे आगे बढ़ें, तो अखबारनवीसी और इंसाफ दोनों की मांग यह है कि जब तक कोई अपराधी साबित न हो जाए, तब तक उसे मुजरिम लिखा नहीं जाना चाहिए. इसलिए जब तक कोई नक्सली साबित न हो जाए, तब तक उसके बारे में नक्सल आरोपों में गिरफ्तार, या नक्सल आरोपों के साथ समर्पण जैसी भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए. लेकिन इन दिनों मीडिया शब्दों की कटौती के फेर में इस बुनियादी इंसाफ को किनारे रखकर चलता है, और आरोपी या संदिग्ध जैसे शब्द इस्तेमाल होना धीरे-धीरे घटते जा रहा है, इसकी एक वजह यह भी है कि बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार लिखने के बजाय बलात्कारी गिरफ्तार लिखने पर वजन कुछ अधिक पड़ता है, यह अलग बात है कि यह सिरे से ही गलत भाषा है, और बेइंसाफी की भाषा है.

अखबारों की जुबान में बेइंसाफी बढ़ती चली जा रही है, और यह एक आम लापरवाही है जो कि टीवी की खबरों को देख-देखकर भी अखबारों पर हावी हो रही है. टीवी की स्क्रीन पर ब्रेकिंग न्यूज के लिए शब्द इतने गिने-चुने रहते हैं कि वहां पर सच को उसके अनुपात के साथ लिखने की जहमत कोई नहीं उठाते. इसलिए आनन-फानन किसी को भी हत्यारा लिख दिया जाता है, किसी को भी आतंकी लिख दिया जाता है, बरसों तक आतंकी करार देना जारी रहता है, और दस-दस बरस बाद ऐसे लोग अदालतों से बाइज्जत बरी होकर जेल से बाहर आते हैं, लेकिन तब तक मीडिया उनकी इज्जत की मिट्टीपलीद कर चुका रहता है.

बस्तर में जिन आदिवासियों का आत्मसमर्पण बताया जा रहा है, उनके बारे में बस्तर के आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, और मीडिया के एक बड़े हिस्से का यह मानना है कि ये बेकसूर आदिवासी हैं, और इनको नक्सल बताकर, इनके समर्पण की तैयारी में पहले से इनके ऊपर ईनाम की मुनादी करके इन्हें खासा बड़ा नक्सली साबित करने की पुलिसिया तैयारी की जाती है. ऐसे मामलों की हकीकत तो जांच के बाद अदालत में ही सामने आएगी, लेकिन अभी चार दिन पहले (एक अमरीकी मीडिया के लिए) रिकॉर्ड किए गए एक लंबे इंटरव्यू में सोनी सोरी ने मुझसे कहा कि उनके खिलाफ दायर किए गए छह मुकदमों में से पांच में वे बाइज्जत बरी हो चुकी हैं, और छठवां झूठा मुकदमा भी इसी तरह खारिज होना तय है. उन्होंने यह भी बताया कि उनके पति के खिलाफ भी एक झूठा मुकदमा चलाया गया था जिससे वे बरसों जेल में रहने के बाद बरी हुए, और फिर जल्द ही मर भी गए.

छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर में बैठे हुए बड़े अफसर यह मानते हैं कि बस्तर में चल रहे ऐसे समर्पण बड़े पैमाने पर फर्जी हैं, लेकिन उनका यह मानना है कि इससे नक्सलियों का मनोबल टूट रहा है. उनका तर्क यह भी है कि ऐसे समर्पण से आदिवासियों का सिर्फ फायदा ही हो रहा है, कोई भी नुकसान नहीं हो रहा है. कुछ सबसे बड़े अधिकारी आपसी बातचीत में अपनी सोच बताते हैं कि ऐसा समर्पण करने वाले हर आदिवासी को सरकार की तरफ से दस हजार रूपए मिलते हैं, और आत्मसमर्पित नक्सली के रूप में सरकारी नौकरी के लिए भी प्राथमिकता मिलती है. इसके बाद पुलिस उन्हें परेशान करना भी बंद कर देती है, तो इससे उनका नुकसान क्या है? एक बहुत बड़े अफसर ने कुछ हफ्ते पहले मुझसे बातचीत में यह पूछा था कि मानवाधिकार आंदोलनकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, या मीडिया के कुछ लोग ऐसे समर्पण पर आपत्ति क्यों जाहिर करते हैं? उनका कहना था कि अगर ये समर्पण झूठे भी हैं, तो भी इन पर आपत्ति तो सिर्फ सरकार को होनी चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों को सरकारी खजाने से दस-दस हजार रूपए तुरंत दिए जाते हैं. उनका मानना था कि आदिवासी को तो फायदा ही फायदा है, भले ही वह नक्सली रहा हो, या न रहा हो.

इस तर्क को सुनकर मैं यह सोचते रह गया कि क्या शहर में रहने वाले अफसर और नेता ऐसे किसी फायदे के चेक के लिए अपने आपको नक्सली करार देकर समर्पण करना चाहेंगे? एक आदिवासी की जिंदगी की आजादी, उसकी इज्जत, इन सबको दस हजार में तौलने वाली सरकार के आखिर कितने ऐसे लोग होंगे जो कि दस लाख रूपए के लिए भी अपने को नक्सली बताकर पुलिस के सामने समर्पण करके उसकी तस्वीर अखबारों में देखकर खुश होंगे?

इसलिए ऐसे तमाम आत्मसमर्पण में मैं लोगों को नक्सली लिखे जाने के खिलाफ हूं, और उन्हें आदिवासी लिखे जाने का हिमायती हूं. इसके साथ-साथ ऐसी तमाम खबरों में यह जिक्र साफ-साफ होना चाहिए कि इन्हें नक्सल आरोपों में गिरफ्तार किया गया है, या इन पर नक्सल आरोप थे, और इन्होंने समर्पण किया है. आरोपों के जिक्र के बिना तमाम लोग मुजरिम साबित करार दिए जाते हैं, और ऐसा तो अदालत मेें जाकर भी दस फीसदी मामलों में भी नहीं हो पाता. सरकार और राजनीति में बैठे हुए बड़े-बड़े बहुत से लोग कई तरह के मुकदमे झेलते हैं, क्या उन तमाम लोगों को सीधे-सीधे मुजरिम लिखकर मीडिया बच सकता है? मुकदमे शुरू होने और उनके खत्म होने तक कोई ताकतवर लोगों को नक्सली, भ्रष्ट, अनुपातहीन सम्पत्ति का मालिक लिखकर तो देखे, उनके खिलाफ आनन-फानन मानहानि के मुकदमे दर्ज हो जाएंगे.

लेकिन बस्तर के गरीब और बेजुबान आदिवासी दो तरफ की बंदूकों के बीच जंगल में अकेले जीते हैं, और उन्हें वहां के नेताओं का भी कोई सहारा नहीं रहता जो कि उनके नाम पर जीतकर विधायक और सांसद बनते हैं, मंत्री बनते हैं, और कमाते-खाते हैं. ऐसे बेसहारा लोगों को जो बंदूक चाहे, वह मार देती है, जिसकी कटार चाहे वह उनके गले काट देती है, जो चाहे वह उन्हें पुलिस मुखबिर बताकर मौत दे देता है, और जो चाहे वह उन्हें नक्सली बताकर उनका समर्पण करवा देता है. और ऐसे बेसहारा लोगों के मामले भी लडऩे के लिए उन्हें कोई वकील न मिलें, इसलिए बस्तर से उन वकीलों को नक्सली करार देकर भगवाया जाता है जो कि अपने पेशे की सबसे इज्जतदार परंपरा के तहत गरीबों के मामले-मुकदमे मुफ्त लड़ते हैं. कल के दिन गरीबों का मुफ्त इलाज करने वालों को मारा जाएगा, उसके बाद गरीबों की खबरों को मुफ्त में छापने वाले लोगों को मारा जाएगा, और गरीबों को केवल सरकार पर आश्रित किया जाएगा. इस साजिश को समझने की जरूरत है.

सत्ता दुनिया भर में इस तरह की कई साजिशें करती हैं, और यह किसी एक पार्टी या किसी एक देश-प्रदेश की साजिश नहीं है. इसलिए आज आदिवासियों के हमदर्द जो सामाजिक कार्यकर्ता मीडिया की इस जुबान पर आपत्ति कर रहे हैं कि समर्पण करने वाले लोग आदिवासी हैं, वे एक बुनियादी चूक कर रहे हैं. वे नक्सली नहीं हैं, वे आदिवासी हैं, और उन पर जो नक्सल तोहमत दस हजार के दाम पर थोपी जा रही है, वह तो किसी जांच आयोग या अदालत में जाकर ही साबित हो सकती है. पुलिस की चतुराई यह है कि वह इनके खिलाफ कोई मुकदमे चलाने नहीं जा रही, इसलिए उनके नक्सली होने और न होने की बात उनके समर्पण और सरकारी चेक के साथ ही दफन हो जाएगी, और वे एक आंकड़ा बन जाएंगे, पुलिस की बनाई तस्वीर में भरने के लिए. लेकिन दुनिया का इतिहास गवाह है कि बेजुबानों पर हुई ज्यादती के लिए सदियों बाद भी लोगों को माफी मांगनी पड़ती है.

ऑस्ट्रेलिया की संसद में अभी कुछ बरस पहले उन आदिवासियों को न्यौता भेजकर सदन के भीतर बुलाया, और पूरी संसद में खड़े होकर वहां उनसे माफी मांगी क्योंकि ऑस्ट्रेलिया के गैरआदिवासी, शहरी और संपन्न तबके ने कोई एक सदी पहले उनसे उनके बच्चे छीन लिए थे कि शहरों में वे बच्चे अधिक सभ्य और शिक्षित बनेंगे. ऑस्ट्रेलिया में इसे स्टोलन-जनरेशन (चुराई गई पीढ़ी) कहते हैं. हो सकता है कि इस सदी के चलते, और हो सकता है कि अगली सदी में हिन्दुस्तान की सरकारें इस बात के लिए विधानसभाओं और संसद में आदिवासियों से माफी मांगेंगी कि उन्होंने आदिवासियों को झूठा नक्सली करार देकर दस हजार रूपए में उन पर तोहमत थोपी थी. फिलहाल ऐसे समर्पण को नक्सली कहना सामाजिक कार्यकर्ताओं की नासमझी होगी, और उन्हें आदिवासी ही कहा जाना चाहिए.
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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