पेड़ महज लकड़ी-पत्ते-फल नहीं
सुनील कुमार
विश्व वानिकी दिवस पर दुनिया भर में जंगलों की याद में सालाना आंसू बहाए जाएंगे. लेकिन इस मौके पर राजस्थान की राजधानी जयपुर में एक दिलचस्प कार्यक्रम हुआ. चंबल के बीहड़ों में एक समय राज करने वाले, और बाद में आत्मसमर्पण करके, या बिना आत्मसमर्पण किए, सजा काटकर जेल से निकले हुए भूतपूर्व डकैतों ने एक सम्मेलन में जंगल विभाग के एक बड़े अफसर और एक सांसद की मौजूदगी में बात की, और कहा कि वे जंगल बचाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं क्योंकि उनके इलाकों में उनकी बात अभी भी चलती है, और जब चंबल के बीहड़ों पर वे राज करते थे, तब उनकी मर्जी के बिना वहां कोई एक पत्ता भी नहीं तोड़ सकता था. ये बीहड़ राजस्थान, मध्यप्रदेश, और उत्तरप्रदेश तीन राज्यों में बिखरे हुए हैं, इसलिए वहां मौजूद अफसरों ने कहा कि वे केन्द्र सरकार के सामने उनका यह प्रस्ताव रखेंगे.
इधर जयपुर से दूर छत्तीसगढ़ के बस्तर में बहुत से लोगों का यह मानना है कि वहां पर जंगल का कटना अगर धीमा हुआ है, तो इसके लिए वन विभाग के अफसर जिम्मेदार नहीं हैं, वहां नक्सलियों की जो मौजूदगी है, और जितना उनका हुक्म चलता है उसकी वजह से जंगल नहीं कट पा रहे हैं, और जंगली जानवरों का शिकार कम हुआ है. अब यह कितना कम हुआ है, यह तो पेड़ और जानवर ही बता सकते हैं क्योंकि उपग्रह से जुटाई गई जानकारी भी एक गलत किस्म की तस्वीर पेश करती है, और यह बताती है कि छत्तीसगढ़ में जंगल बढ़ गए हैं.
जंगल और पेड़ की बात करें तो लगता है कि विज्ञान की बताई बातों को तो लोगों को याद रखना ही चाहिए कि किस तरह पेड़ ऑक्सीजन देते हैं, बारिश को खींचते हैं, धरती को उपजाऊ बनाते हैं, पंछियों को रहने की छाया देते हैं, और लोगों को फल, पत्ते, और लकड़ी भी देते हैं. यह तो बात हुई विज्ञान की, लेकिन एक दूसरे नजरिए से देखें तो पेड़ों से इंसान जिंदगी को लेकर एक फलसफा भी ले सकते हैं, जो कि कुदरत के हर पहलू में है. पेड़ बिना कहे, बिना मुंह खोले एक दार्शनिक की तरह खड़े रहते हैं, और इंसान अगर खुद होकर उन्हें देखकर कुछ सीखें, तो उनकी जिंदगी बदल सकती है.
पेड़ लोगों को सिखाते हैं कि किस तरह उन तमाम लोगों के लिए भी फल-फूल और छाया देनी चाहिए, जिनसे पेड़ों को कुछ भी वापिस नहीं मिलता. बिना किसी मतलब के, बिना किसी उम्मीद के कैसे दूसरों का भला किया जा सकता है, इसकी एक बड़ी नसीहत पेड़ों से मिल सकती है. पेड़ों से एक यह सीखना भी होता है कि आम बोने से आम के पेड़ लगते हैं, और आम के फल मिलते हैं. दूसरी तरफ बबूल बोने से बबूल के पत्ते और कांटे मिलते हैं. मेरे लिखने का यह मकसद नहीं है कि बबूल का पेड़ बुरा होता है, बहुत से ऐसे जानवर हैं जिनको बबूल की पत्तियां सुहाती हैं, और जो उसके कांटों के बीच से ही उसकी पत्तियों को खा लेने की खूबी रखते हैं. लेकिन फिर भी इंसान को यह सीखने मिलता है कि उनके जिस तरह के रहते हैं, उसी तरह का फल उन्हें हासिल होता है, या झेलना पड़ता है. जिंदगी में अच्छे काम करने के लिए इससे बड़ी नसीहत और तो किसी ज्ञानी-विज्ञानी से भी नहीं मिल सकती है.
अब पेड़ों की एक और खूबी देखें, तो वह यह कि हर बरस एक तय मौसम में पेड़ की पत्तियां झड़ जाती हैं, और पतझड़ के बाद जो नई कोंपलें फूटती हैं, वे इसीलिए आ पाती हैं कि पुरानी पत्तियों ने उनके लिए जगह छोड़कर अपनी जिंदगी को काफी मान लिया, और चल बसीं. इंसानों को भी यह सीखने और समझने की जरूरत है कि किस तरह घर-परिवार में, दफ्तर-कारोबार में, समाज या राजनीति में एक वक्त गुजारकर उनको नई पीढ़ी के लिए जगह खाली करनी चाहिए. लोग कंधों पर लेटकर आखिरी सफर शुरू करने के करीब पहुंच जाते हैं, और तब तक उनकी आखिरी हसरत शुरू भी नहीं हो पाती. ऐसी हसरतों को अक्ल सिखाने के लिए, राह दिखाने के लिए पेड़ों के पत्तों की मिसाल बहुत ही वैज्ञानिक भी है, और सरल भी है.
दुनिया के जो सबसे समझदार समाज हैं, वे आदिवासी, वे जंगलवासी, या दुनिया की अलग-अलग जुबानों में नेटिव, एबओरिजिन, और ट्राइबल जैसे कई नामों से बुलाए जाने वाले लोग कुदरत के इतने करीब रहते हैं, और उससे इतना तालमेल बिठाकर चलते हैं, उससे इतना सीखते चलते हैं, कि उनकी समझ शहरी दुनिया की सबसे अधिक पढ़ी-लिखी बिरादरी से भी बहुत अधिक होती है. एक गजल के एक शेर के अंदाज में कहें तो जो पेड़ों के बहुत करीब होते हैं, वे बड़े खुशनसीब होते हैं.
आदिवासी समाज की खूबियों को देखें, तो अपनी न्यूनतम जरूरत के लिए ही वे जंगल से कुछ लेते हैं, और एक किफायत में जीते हैं. उनके बीच औरत और मर्द के हकों का फासला कम होता है, और उनकी सोच में इंसाफ कूट-कूटकर भरा होता है. वे शहरियों के खून के प्यासे नहीं रहते, दूसरी तरफ शहरी उनके जंगलों, और उन जंगलों के नीचे दबी खदानों के खून के प्यासे रहते हैं. कुदरत के करीब रहने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि लोगों की सोच बिना पढऩा सीखे, बिना विज्ञान नाम का शब्द जाने वैज्ञानिक हो जाती है.
इसलिए आज जब दुनिया में पेड़ों का नुकसान होता है, तो वह नुकसान सिर्फ लकड़ी, पानी, ऑक्सीजन, फल और छाया का नहीं होता है, वह नुकसान एक पूरी स्कूल का नुकसान होता है, जिंदगी की ऐसी स्कूल जो कि पीढिय़ों को सब कुछ सिखाते चलती है. जिसके पास ब्लैकबोर्ड नहीं है, जिसके पास चॉक या डस्टर भी नहीं है, लेकिन जिसके पास असल जिंदगी की सबसे सकारात्मक समझ लबालब है. इसलिए जब कभी जंगलों की बात होती है, तो पेड़ों सहित बाकी कुदरत के बारे में यह भी सोचना चाहिए कि यह धरती की किसी मुर्दा दौलत की बात नहीं हो रही है, यह धरती में पीढ़ी दर पीढ़ी को समझदार बनाने की स्कूल की बात भी हो रही है. पेड़ कहते कुछ नहीं हैं, कट जाने पर भी बद्दुआ नहीं देते हैं, लेकिन इंसान उस पेड़ की लकड़़ी, उसके फल, उसके पत्तों जैसी बहुत सारी चीजों के साथ-साथ उस पेड़ से सीख पाने की संभावना भी खत्म कर बैठते हैं.
और फिर जहां से बात आज शुरू की है, वहीं पर अगर पहुंचे, तो यह सोचने की बात है कि क्या आज इंसान इस कदर हैवान हो गए हैं कि पेड़ों की हिफाजत नक्सलियों या भूतपूर्व डकैतों की मोहताज हो गई है? और यह हैवान शब्द भी मैं प्रचलित भाषा से उठाकर इस्तेमाल कर रहा हूं, हैवान और कुछ भी नहीं है, वह इंसान के भीतर का वह हिस्सा है, जिसे अपना मानने से इंसान को शर्मिंदगी होती है, और वह अपनी किडनी, अपने लीवर, अपनी आंखों की तरह के ही अपने इस हैवान को अपने से बाहर दिखाने की कोशिश करने लगते हैं. अगर पेड़ों से इंसानों ने कुछ सीखा होता, सीखना जारी रखा होता, तो वे यह सीखते कि अपने कांटों को लेकर बबूल के मन में कोई अपराधबोध नहीं होता, और वह उन कांटों को किसी और पेड़ का बताने के लिए उनको कोई और नाम नहीं दे देता.
किसी पेड़ के कटने से जो कागज बना होगा, उसी पर अभी यह लिखा जा रहा छपेगा. इसलिए कागज को एक हद से अधिक बर्बाद न करने के लिए इस बात को यहां रोक देना बेहतर है, लेकिन लोग पेड़ों के सामने कुछ देर बैठकर उसके पहलुओं, और उसके तौर-तरीकों के बारे में जरूर सोचें कि अपनी इंसानी जिंदगी में उन्हें पेड़ों से क्या-क्या सीखने मिल सकता है.