कलारचना

अलविदा निदा फ़ाज़ली

मुंबई | समाचार डेस्क: उर्दू और हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार और बॉलीवुड के नामचीन गीतकार निदा फाजली का दिल का दौरा पड़ने से सोमवार को मुंबई में निधन हो गया. वह 78 वर्ष के थे. इधर कुछ दिनों से बीमार निदा ने सोमवार को पूर्वाह्न् 11.30 बजे अंतिम सांस ली. दिल्ली में 12 अक्टूबर, 1938 को एक कश्मीरी परिवार में जन्मे फाजली के पिता भी उर्दू के मशहूर शायर थे. उनका मूल नाम मुख्तदा हसन निजा था. बाद में उन्होंने अपना नाम निदा फाजली रख लिया. निदा का मतलब है आवाज और फाजल कश्मीर का एक इलाका है, जहां उनके पुरखे रहते थे.

भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया, लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का फैसला किया.

निदा ने स्कूल से लेकर कालेज तक की पढ़ाई ग्वालियर में की. वर्ष 1957 में उन्होंने स्नातक की डिग्री हासिल की. वर्ष 1964 में रोजगार की तलाश में वह मुंबई आए और यहीं के होकर रह गए.

साहित्यकार निदा की 24 किताबें प्रकाशित हैं, जिनमें कुछ उर्दू, कुछ हिंदी और कई गुजराती भाषा में हैं. उनकी कई रचनाएं महाराष्ट्र में स्कूली किताबों में शामिल हैं.

उन्हें वर्ष 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2013 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया था.

फाजली ने ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’, ‘होश वालों को खबर क्या’, ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है’ और ‘किसका चेहरा’ जैसी कई मशहूर गजलों से शायरी की दुनिया में अपना खास मुकाम बनाया.

तरक्की पसंद शायर निदा का एक शेर है-

घर से मस्जिद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.

यह शेर धर्म, मजहब के नाम पर झगड़ने वालों को अच्छी सीख देता है. वह कट्टरता के खिलाफ थे और प्रगतिशील विचारों के लिए जाने जाते हैं.

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