प्रसंगवश

यूपी में किंकर्तव्य विमूढ़ भाजपा

भाजपा का रवैया उत्तर प्रदेश विधानमंडल सत्र के उद्घाटन के दौरान किंकर्तव्य विमूढ़ की स्थिति में था. राज्यपाल के अभिभाषण पढ़ने के दौरान भाजपा सदन में उदासीन थी. सदन के अंदर न इधर न उधर, न जानें भाजपा किधर की स्थिति में थी.

मुख्य विपक्ष की भूमिका बहुजन समाज पार्टी के विधायक बखूभी निभा रहे थे तो वहीं कांग्रेस भी विपक्ष के साथ खड़ी नजर आ रही थी. सपा सरकार के क्रियाकलापों को लेकर बसपा के सदस्य राज्यपाल का विरोध कर रहे थे तो वहीं कांग्रेस विधायक भी सपा सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे थे.

वहीं उत्तर प्रदेश में 2017 में जीत का दंभ भरने वाली भाजपा न तो सरकार के साथ खड़ी नजर आई और न ही विपक्ष में. सदन के अंदर भाजपा का यह रवैया काफी कुछ संकेत करता है. सदन के अंदर उस समय मात्र दो ही दल नजर आ रहे थे. एक दल था समाजवादी पार्टी तो दूसरी विपक्ष के रूप में थी बसपा. कांग्रेस भी अपने को विपक्ष के साथ मान रही थी.

राजनीतिज्ञों की मानें तो आगामी विधानसभा चुनाव में भी सपा बसपा का ही मुकाबला होगा. भाजपा सदन से जैसे गायब दिख रही थी. चुनाव में भी उसी तरह दिखेगी. कारण स्पष्ट है कि भाजपा को समझ में ही नहीं आ रहा है कि आखिर वह किस मुद्दे को तूल दें, जिससे राजनीतिक सरगर्मी बढ़े.

सत्ता हमेशा संघर्ष से ही मिलती है. संघर्ष से ही कार्यकर्ता पैदा होते हैं. उन्हीं कार्यकर्ताओं की मेहनत और परिश्रम से दल सत्ता में आते हैं. भाजपा हमेशा अपने कार्यकर्ताओं को संयम और अनुशासन में रहने की सलाह देती है. भाजपा विधायकों का संयम और अनुशासन सदन के अंदर देखने को मिला, लेकिन वह अनुशासन और संयम किस काम का कि जहां पर लोकहित से जुड़े मुद्दों पर आवाज बुलंद की जानी चाहिए, वहां पर सरकार के खिलाफ लचर रवैया अपनाया जा रहा है.

रही बात राज्यपाल के सम्मान की तो राज्यपाल के सम्मान का तरीका यह नहीं कि आप सदन में एकदम दिखें ही नहीं. कुछ सांकेतिक विरोध भी हो सकता था या फिर सदन के बाहर तो विरोध कर रही सकते थे. लेकिन करें तो क्या करें, भाजपा को समझ में ही नहीं आ रहा है कि सपा सरकार की किस योजना और कार्यक्रम का विरोध करें, क्योंकि भाजपा के नेता अब जमीन से जुड़े नहीं रह गए हैं. सच तो यह है कि उन्हें प्रदेश की जमीनी सच्चाई का ज्ञान नहीं हैं.

भाजपा के प्रवक्ता मीडिया रूम से ही अपने बयान जारी करने के आदी हो गए हैं. उत्तर प्रदेश में सपा के मुकाबले संघर्ष में भाजपा कहीं दिख ही नहीं रही है. ऐसा नहीं है कि समस्याएं नहीं हैं, मुद्दे नहीं हैं, लेकिन मुद्दों को भुनाने का तरीका भाजपा नेताओं के पास नहीं हैं. रही बात सदन के अंदर की तो अब भाजपा में अब आक्रामक तेवर वाले नेता ही नहीं बचे हैं.

भाजपा अब तेवरदार नेताओं से परहेज करने लगी है. लेकिन जनता तेवर देखती है, नेता के तेवर के आधार पर ही जनमत तैयार होता है. कल्याण कटियार में अगर तेवर नहीं होता तो उत्तर प्रदेश में भाजपा नहीं आती.

आज उत्तर प्रदेश में तेवरदार नेताओं का अभाव है. अगर कुछ तेवरदार नेता हैं भी तो भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ऐसे तेवरदारों से परहेज करती है. आज भी उत्तर प्रदेश में योगी, वरुण और संगीत सोम जैसे जुझारू नेता मौजूद हैं, लेकिन नेतृत्व को इन नेताओं पर भरोसा नहीं हैं. जिन पर भरोसा है, चुनावी वैतरणी पार कराना उनके बस का भी नहीं है.

उत्तर प्रदेश भाजपा में दो महीने से अध्यक्ष पद की तलाश हो रही है, लेकिन अभी घोषणा नहीं हो पाई. लेटलतीफी यही दर्शाती है कि भाजपा के पास नेता नहीं हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक व भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी कहा करते थे कि एक कार्यकर्ता दूसरे कार्यकर्ता को तैयार करे. एक मुख्य शिक्षक दूसरा मुख्य शिक्षक तैयार करे, कार्यवाहक दूसरा कार्यवाहक तैयार करे और इसी सूत्र का पालन राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को करना चाहिए. एक मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए दूसरा मुख्यमंत्री तैयार करे. एक अध्यक्ष रहते हुए दूसरा अध्यक्ष तैयार करे.

लगता है कि भाजपा के लोग इस सूत्र को भुला चुके हैं. वहीं भाजपा के कामकाज को देखकर यही लगता है कि इसके ठीक उलट सारे कार्य हो रहे हैं. जहां अपने बाद का नेतृत्व तैयार करने की बात होनी चाहिए वहीं अपने बाद कोई नहीं की नीति पर अमल हो रहा है.

मौजूदा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी शीर्ष नेतृत्व को यही समझाने में लगे हैं कि विधानसभा चुनाव के लिए हमसे ज्यादा अच्छा दूसरा कोई व्यक्ति प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए हो ही नहीं सकता. हो सकता है कि वह लोकसभा चुनाव को आधार मानकर नेतृत्व को यह समझा सकने में सफल भी हो जाएं. वहीं भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी उत्तर प्रदेश में नए अध्यक्ष को लेकर दुविधा में है.

नई दिल्ली और बिहार की हार के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. जातिवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद और एकात्म मानवाद के सिद्धांतों एवं समानता की बात करने वाली भाजपा अगड़े-पिछड़े के फेर में फंसी है.

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने संघ की ओर से 1963 में जौनपुर संसदीय क्षेत्र से लोकसभा का उप चुनाव लड़ा. स्थानीय कार्यकर्ताओं और जौनपुर के राजा यादवेंद्र दत्त दुबे ने उनसे कहा कि यह ब्राह्मण बहुल सीट है. जातिवाद का सहारा लेकर वोट मांगा जाएगा.

दीनदयाल ने साफ तौर पर यह सुझाव खारिज कर दिया. बोले, ‘हो सकता है मैं इससे चुनाव जीत जाऊं लेकिन जनसंघ हार जाएगा.’

इसी तरह चुनाव के दौरान प्रचार के क्रम में एक सभा में उनका कार्यकर्ता लाउडस्पीकर से भाषण के दौरान कांग्रेस की आलोचना कर रहा था. इसी बीच दीनदयाल पहुंच गए. उन्होंने उसे तुरंत टोका और कहा कि ‘किसी दल के खिलाफ बोलने से बेहतर है कि तुम अपने विचारों के बारे में कहो.’ जब चुनाव का परिणाम आया तो वह हार गए. जौनपुर की हार के बाद उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा था, ‘मेरा प्रतिद्वंद्वी अपनी बात वोटरों तक ले जाने में मुझसे अधिक सफल रहा.’

आज भाजपा के कितने नेता हैं जो दीनदयाल जी के आदर्शो को केंद्र में रखकर राजनीति करते हैं? अगर भाजपा के नेता दीनदयाल के आदर्शों को ध्यान में रखकर उत्तर प्रदेश में काम करते तो आज उत्तर प्रदेश भाजपा की यह हालत न होती.

उत्तर प्रदेश में अगर भाजपा को मजबूत करना है तो उत्तर प्रदेश के सभी नेताओं को आपसी मनमुटाव त्याग कर पार्टी हित में सामूहिकता के साथ आगे बढ़ना होगा, अन्यथा उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को बिहार जैसी स्थिति होने से कोई बचा नहीं सकता.

हर प्रदेश एवं क्षेत्र के अपने अलग-अलग राजनीतिक समीकरण होते हैं. भाजपा एक ही समीकरण सभी जगह लागू करना चाहती है. बिहार में यही हुआ. भाजपा नेतृत्व बिहार के राजनीतिक समीकरण को समझने में विफल रहा. यही गलती भाजपा उत्तर प्रदेश में भी दुहराने जा रही है.

उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को चुनाव जीतने खातिर पूर्वाचल के लिए अलग, बुंदेलखड के लिए अलग, अवध के लिए अलग, पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश के लिए अलग-अलग रणनीति बनानी होगी. इसलिए कि हर क्षेत्र के अपने अलग राजनीतिक समीकरण और समस्याएं होती हैं. जैसे बुंदेलखंड में जो पानी की समस्या है उससे पूर्वाचल का क्या लेना देना है. पूर्वाचल बाढ़ और जापानीज इंसेफ्लाइटिस से कराहता है तो बुंदेलखंड पानी और सूखे से कराहता है.

इसी तरह कुछ क्षेत्रों में कुछ इलाकाई छत्रप होते हैं, वे राजनीति में अपने को स्थापित करने के लिए हर हथकंडे अपनाते हैं तो उनसे भी निपटने के लिए अलग प्रकार से रणनीति बनाकर काम करना होगा.

रही बात जातिवाद की तो देशभर में सबसे ज्यादा जातिवाद उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ता है. मुलायम सिंह यादव देश में सबसे बड़े ‘जातिवादी’ माने जाते हैं. राजनीति में भी उनका परिवार देश में सबसे बड़ा सियासी परिवार है. ऐसा भी नहीं है कि अन्य दलों के नेता अपने परिवार को राजनीति से दूर रखना चाहते हैं, लेकिन वह सफल नहीं हो पाते. मुलायम इसमें सफल दिख रहे हैं. (एजेंसी)

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