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बंगाल चुनाव, भविष्य की पदचाप

रायपुर | जेके कर: इस साल होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे भविष्य के राष्ट्रीय राजनीति का संकेत दे जायेगा. पश्चिम बंगाल में देश की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा जहां लोकसभा चुनाव के समान करिश्मे की उम्मीद लगाई बैठी है वहीं पश्चिम बंगाल विधानसभा की विपक्षी दल सीपीएम के लिये यह ढ़हते किले को बचाने के समान है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का ‘मोदी ब्रांड’ अपने चरम अवस्था पर था. लेकिन बाद के उप-चुनावों तथा दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों ने उसके श्रेष्ठ होने के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है.

भाजपा तथा प्रधानमंत्री मोदी की टीम 2016 के पश्चिम बंगाल तथा 2017 के उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में 2014 के लोकसभा चुनाव के समय बनाई गई बढ़त को बनाये रखना चाहेगी. ख़ासकर बंगाल में तो उससे और आगे बढ़ना है ताकि राष्ट्रीय राजनीति में उसका ब्रांड अग्रणी तथा अपराजेय की स्थिति में रहें. बंगाल के चुनाव के नतीजें कुछ हद तक उत्तरप्रदेश में भी हवा बनाने का काम करेगा.

मोदी सरकार के तमाम डिजीटल दावों के विपरीत न तो महंगाई कम हो रही है और न ही रोजगार बढ़ रहा है. बढ़ रहा है तो केवल विदेशी पूंजी का निवेश जो मुनाफ़ा बटोरकर अपने वतन भेजता रहेगा. देर सबेर जनता को भी समझ में आ रहा है कि चुनावी दावों तथा सोशल मीडिया पर किये जा रहें कमेंट उन्हें उऩकी दुश्वारियों से छुटकारा नहीं दिला सकती है. इससे एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण हुआ है जिसमें लेफ्ट तेजी से फल-फूल सकता है परन्तु हो इसके विपरीत ही रहा है. सीपीएम ने अपने सांगठनिक कमजोरियों को दूर करने के लिये पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में ‘प्लेनम’ का आयोजन किया था. अब इससे उसे संसदीय राजनीति में तथा जमीनी संगठनों में कितना फायदा होता है उसकी एक झलक पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों से जाहिर हो जायेगी.

2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को 17.2% मत मिले थे यह 2011 के विधानसभा चुनाव के समय मिले 4.06% मत से 13.14% ज्यादा है. चुनावों में इतनी बढ़ोतरी कई पार्टियों की नैय्या पार लगा देती है. लेकिन सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के समय 39.79% मत मिले थे जो 2011 के विधानसभा चुनाव के समय मिले 38.93% मत से महज 0.86% ज्यादा है. इससे ऐसा जाहिर होता है कि भाजपा की दाल पश्चिम बंगाल में नहीं गलने वाली है.

दूसरी तरफ, तीन दशकों से ज्यादा समय तक पश्चिम बंगाल में लगातार राज करने वाली वामपंथ तथा सीपीएम चुनावों में मूक दर्शक की भूमिका में नहीं रहेगी यह पहले से ही तय है. 2014 के लोकसभा चुनाव में वामपंथ के घटक दलों सीपीएम को 22.96%, सीपीआई को 2.36%, आरएसपी को 2.46% तथा फार्वर्डब्लॉक को 2.17% मत मिले थे. यह कुल जमा 29.95% का होता है. यदि 2011 के विधानसभा के आकड़ों को देखा जाये तो वामपंथ के घटक दलों सीपीएम को 30.08%, सीपीआई को 1.84%, आरएसपी को 2.96% तथा फार्वर्डब्लॉक को 4.80% मत मिले थे. इन सबका जोड़ होता है 39.68%. जाहिर है कि 2011 से 2014 आते-आते वामपंथ की ताकत 9.73 फीसदी कम हो गई थी.

लाख टके का सवाल है कि क्या लेफ्ट इसकी भरपाई कर सकेगा तथा तृणमूल कांग्रेस को पछाड़ सकेगा. खबरें तो यह भी चल रहीं है कि सीपीएम तथा कांग्रेस के राज्य स्तरीय कुछ नेता आपस में गठजोड़ करना चाह रहें हैं. ऐसा चुनावी समझौता धरातल पर उतर के आता है या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है. फिलहाल उस पर कयास ही लगाये जा सकते हैं. फिर भी एक बार आकड़ों की बाजीगरी करके देख लिया जाये कि यदि ऐसा होता है तो कैसा होगा.

लोकसभा चुनाव में वामपंथ को 29.95% मत मिले थे. यदि इसमें कांग्रेस को मिले 9.69% मत को जोड़ दिया जाये तो वह होता है 39.91% जोकि लोकसभा चुनाव के समय मिले तृणमूल कांग्रेस के मतों के करीब-करीब बराबर का है. अब सवाल यह भी है कि भाजपा का वोट घटेगा या बढ़ेगा? यदि घटेगा तो उसका फायदा किसे होगा और यदि बढ़ेगा तो उससे किसे नुकसान होगा लेफ्ट को या तृणमूल कांग्रेस को. संपूर्ण गणित इसी पर आकर टिक गया है.

बहरहाल, इंतजार करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. हां, इतना तय है कि पश्चिम बंगाल आने वाले कल का संकेत दे जायेगा भाजपा, वामपंथ तथा तृणमूल के लिये.

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