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ये कैसे नौकरशाह

दिवाकर मुक्तिबोध
किसी राज्य के मंत्री यदि यह गुहार लगाए कि अधिकारी उनकी सुनते नहीं, उनकी परवाह नहीं करते, उनका काम नहीं करते तो इसे क्या कहा जाए? जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होने और सत्ताधिकार के बावजूद उनकी अपनी कमजोरी, भलमनसाहत, नेतृत्व की अक्षमता या और कुछ? नौकरशाही के अनियंत्रित होने की और क्या वजह हो सकती है? जाहिर सी बात है जब राजनीतिक नेतृत्व कमजोर होगा तो प्रशासनिक पकड़ भी कमजोर होगी और ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है नौकरशाही बेलगाम होगी तथा मंत्री अपनी कमजोरियों के चलते मुख्यमंत्री के सामने उसकी निरंकुषता का रोना रोते रहेंगे.

छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है, यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. राज्य में सन् 2003 से डा. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा का शासन है. इस दौरान राज्य के अनेक मंत्री मुख्यमंत्री एवं संगठन की बैठकों में प्रशासनिक अधिकारियों के कामकाज और उनके द्वारा की जा रही उपेक्षा की शिकायतें करते रहे हैं. अभी हाल ही में 24 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री निवास में केबिनेट मीटिंग में, अफसरों को विदा करने के बाद मंत्रियों ने जमकर नौकरशाही पर अपनी भड़ास निकाली. उनका आरोप था कि अफसर जान बूझकर मंत्रियों को बदनाम करने के लिए पुराने मामलों को हवा दे रहे हैं.

जिस काम के लिए उन्हें निर्देशित किया जाता है, वे या तो करते नहीं या किसी न किसी बहाने से अटका देते हैं. अधिकारियों का एक ही धंधा है, पैसा बनाओ तथा मंत्रियों को बदनाम करो. अधिकारी इतने सयाने है कि अपना काम सुनियोजित तरीके से करवा लेते हैं और जिस मामलों में उनका हित नहीं सधता, उन्हें तरह-तरह के बहानों से लटका देते हैं. अपनी मंत्रियों की व्यथा सुनने के बाद मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने आश्वस्त किया कि वे इस मामले को देखेंगे और जहाँ आवश्यकता होगी जांच करवाकर उचित कदम उठाए जाएंगे.

केबिनेट में हुई इन चर्चाओं से समझा जा सकता है कि राज्य में शासन-प्रशासन किस तरह चल रहा है और प्रशासनिक टकराव के कैसे-कैसे चेहरे हैं. वैसे भी नौकरशाही की निरंकुशता और राजनीतिक नेतृत्व के ढीलेपन का सवाल कोई नया नहीं हैं. पिछले दशक से जब से राज्य में डा. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता हैं, नौकरशाही के बेलगाम होने, मंत्रियों, विधायकों को समुचित महत्व न देने और उनकी उपेक्षा की चर्चाएँ राजनीतिक गलियारों के साथ-साथ जनसामान्य के बीच भी होती रही हैं.

अफसरों के नाम लेकर सरेआम आरोप-प्रत्यारोप के उदाहरण यद्यपि कम ही हैं लेकिन मंत्रियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों के बीच टकराव अनेक बार सार्वजनिक हुआ है. मिसाल के तौर पर लंबे समय तक प्रदेश के गृहमंत्री रहे ननकीराम कंवर एवं तत्कालीन राज्य पुलिस के मुखिया विश्वरंजन के बीच कार्यशैली को लेकर विवाद और अप्रिय संबंधों की खबरें अखबारों की सुर्खियां रही हैं. और तो और राज्य के पूर्व मुख्य सचिव सुनील कुमार और वरिष्ठ व कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के बीच कतिपय मामलों में रस्साकशी की काफी चर्चा रही.

दोनों के बीच तनाव इस कदर बढ़ा कि बात मुख्यमंत्री तक पहुंची. बृजमोहन मुख्यमंत्री से मिले तथा उन्होंने मुख्य सचिव सुनील कुमार को हटाने की मांग की. ये दो उदाहरण यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि नौकरशाही और सत्ताधारियों के बीच अपेक्षित सामंजस्य नहीं है. नतीजन दोनों के अपने-अपने राग है, चीजों को देखने का अलग-अलग नजरिया है.

यह नजरिया मुख्यत: योग्यता, कार्यक्षमता और बौद्धिक कौशल पर केंद्रित है. ऐसी स्थिति दोनों तरफ है. कई मंत्री अपने प्रशासनिक अफसरों को तुच्छ और नाकारा समझते हैं और कुछ मंत्रियों को लेकर ऐसी ही राय प्रशासनिक अफसर भी रखते हैं. ऐसा प्राय: उन मंत्रियों के साथ है जो स्वभाव और प्रकृति से सरल है तथा अपने अधिकारियों से भी ऊंचे स्वरों में बात नहीं कर सकते. किंतु 24 नवंबर को मंत्रिमंडल की बैठक में नौकरशाहों पर जो टीका-टिप्पणियां की गई, वे उन मंत्रियों के मुखारविन्द से भी निकली जिन्हें दबंग होने का सेहरा हासिल है.

राज्य मंत्रिमंडल में राजनीतिक चतुराई में माहिर और तेज तर्रार समझे जाने वाले चंद मंत्रियों में सर्वश्री बृजमोहन अग्रवाल, राजेश मूणत, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, आदि का नाम लिया जाता है. यदि ऐसे मंत्री भी यदि अपने अधिकारियों से तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं और नौकरशाहों के सामने लाचार है तो चिंता का विषय हैं.

दरअसल मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह कठोर नहीं है. वे सीधे सरल है किंतु राजनीतिक सूझ-बूझ और कूटनीति में माहिर. सरलता, सहजता और सर्वउपलब्धता की वजह से उनकी छवि एक भले आदमी की है. लेकिन यह भला आदमी किस कदर होशियार है यह उनकी कार्यशैली से जाहिर है. अब तक उनका शासन निद्र्वंद रहा है.

हालांकि उन्हें अनेक बार असहज स्थितियों से गुजरना पड़ा किन्तु उन पर कोई दाग नहीं लगा, न व्यवहार का और न भ्रष्टाचार का. जबकि सरकार के बहुत से नुमाइंदों के भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे रहने की चर्चा सरेआम है. स्वभाव से ऐसे सहज-सरल मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से दबंग नौकरशाही से कैसे दब सकती हैं? ऐसी स्थिति में मंत्रियों की क्या बिसात? मुख्यमंत्री के सामने बोलकर वे अपना दु:ख हल्का तो कर लेते हैं किन्तु उन्हें मालूम है कि होना जाना कुछ नहीं है. क्योंकि पहले भी कुछ नहीं हुआ है. सत्ता और संगठन के बीच तालमेल और नौकरशाही के व्यवहार पर पहले भी भाजपा की बैठकों में विचार-विमर्श होता रहा है. लेकिन शासन-प्रशासन के स्तर पर स्थितियां सुधरी हो, ऐसा नजर नहीं आता.

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