प्रसंगवश

प्रगतिशील विचारधारा सबसे सहिष्णु

संजय पराते
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश द्वारा उदघाटन के साथ रायपुर में 19वां मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह प्रारंभ हुआ. 25 नवम्बर तक चलने वाले इस समारोह में 9 नाट्य प्रस्तुतियां होंगी. और पहले दिन की प्रस्तुति थी — ‘ आदाब, मैं प्रेमचंद हूं. ‘ मुजीब खान के निर्देशन में आइडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट, मुंबई ने मुंशी प्रेमचंद की पांच कहानियों का नाट्य रूपांतर प्रस्तुत किया. ये कहानियां थीं क्रमशः — प्रेरणा, मेरी पहली रचना, सवा सेर गेहूं, आप-बीती और रसिक संपादक. मुजीब खान पर प्रेमचंद को मंचित करने का जुनून है.

वे प्रेमचंद की 315 कहानियों के 500 से ज्यादा मंचन कर चुके हैं. इसके लिए लिम्का बुक में उनका नाम दर्ज है. गिनीज़ बुक में वे दर्ज होना चाहते हैं और इसकी तैयारी चल रही है. कुछ लोग इतिहास में इसी तरह दर्ज होते हैं. शायद प्रेमचंद को भी सुकून हो कि उन्हें मंचित करने के लिए मुजीब खान ने फिल्म और टेलीविज़न को भी ठुकराया. मंचन का जुनून ऐसा कि ट्रेन में आरक्षण न मिलने पर तत्काल का सहारा लिया — आने में और जाने में भी. इतने विकट संघर्ष से ही रंगकर्म जिंदा है.

मुंबई में रंगकर्म को जिंदा रखना आसान नहीं है. जो लोग थियेटर से जुड़ते हैं, वे नाम और पैसे के लिए टीवी व फिल्मों में सरक लेते हैं. रंगकर्म से उनका जुड़ाव 5-6 महीनों तक का होता है. प्रेमचंद पहली सीढ़ी है, जिस पर पांव रखकर आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन मुजीब नींव के पत्थर है, प्रेमचंद को जिंदा रखने के लिए. वे नौसिखियों व नवागतों के सहारे अपने रंगकर्म को खींच रहे हैं और थियेटर से जुड़े रहने का रिकॉर्ड बना रहे हैं.

प्रेमचंद अपनी लेखनी से महान थे, इसमें किसी को शक नहीं. वे सामंतवादविरोधी-साम्राज्यवादविरोधी प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के अगुआ थे. अपनी लेखनी में उन्होंने न जॉन को बख्शा, न गोविंद को. सांप्रदायिकता हमेशा उनके निशाने पर रही कि किस तरह वह संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है और आम जनता को बरगलाती है.

जिस ‘ गाय ‘ पर आज भारतीय राजनीति में घमासान मचा हुआ है, उस गाय के विविध चित्र अपने पूरे रंग में उनकी कहानियों में छाये हुए हैं -दो बैलों की कथा से लेकर पंच परमेश्वर और गोदान तक फैली हुई. सामाजिक कुरीतियों पर जिस तरह उन्होंने करारा व्यंग्य किया, बहुत ही कम लोगों ने किया और इसके लिए उन्हें ‘ घृणा का प्रचारक ‘ कहा गया. महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने अपने शिक्षकीय पेशे से त्यागपत्र दिया. आज यदि वह ऐसा काम करते, तो शायद हमारा संघी गिरोह उन्हें अपनी गालियों से नवाजता. वैसे तब भी वे सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर थे.

सभी कहानियां मंचन योग्य नहीं होती. प्रेमचंद पर भी यह लागू होती है. ऐसी कहानियों को मंचित करने की कोशिश की जाएं, तो उसके मंच पर कहानी-पाठ बनकर रह जाने का खतरा रहता है. ऐसी कहानियां सूत्रधारों के बल पर चलती है. सूत्रधारों का रंगाभिनय रंग-दर्शकों की रंग-कल्पना को उत्तेजित करता है और उसके रंग-मानस में दृश्य रचता है.

इस मायने में सूत्रधार कमजोर, तो पूरे मंचन के बैठ जाने का खतरा रहता है. यह मुजीब का ही साहस है कि वे इस खतरे को उठा रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद, जहां भी हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति रही, कलाकारों ने जमकर नाटक खेला है और दर्शकों को प्रेमचंद से जोड़ने में सफलता हासिल की है.

आज समूचा प्रगतिशील कला-जगत संघी गिरोह के निशाने पर है. वे पूरे समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांट देना चाहते हैं, ताकि अपने ‘ हिंदू-राष्ट्र ‘ के निर्माण के लक्ष्य की ओर बढ़ सकें. हिंदुत्व की मानसिकता पैदा करने की कोशिश कितनी नापाक है, यह निर्दोष ईखलाक की भीड़ द्वारा हत्या से पता चलता है.

एक बहुलतावादी, धर्म-निरपेक्ष और सहिष्णु समाज को एकरंगी, पोंगापंथी और असहिष्णु समाज में बदलने की कोशिश जोर-शोर से जारी है. इसके खिलाफ संघर्ष में प्रेमचंद मशाल लिए आगे-आगे चल रहे हैं. प्रेमचंद की इस मशाल को मुक्तिबोध ने थामा था और हिंदुत्ववादियों ने उनकी पुस्तकों की होली जलाई थी. प्रेमचंद और मुक्तिबोध की इस मशाल को गोविंद पानसारे, नरेन्द्र दाभोलकर और कलबुर्गी ने थामा था और उन्हें शहादत देनी पड़ी.

लेकिन इस समारोह ने स्थापित किया कि प्रगतिशील विचारधारा से ज्यादा सहिष्णु और कोई विचारधारा नहीं हो सकती. जिस देश में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारों का सम्मान किया जा सकता है, उस देश में इप्टा को संघी पत्रकार के निधन पर श्रद्धांजलि देने से कोई हिचक नहीं हो सकती. इस समारोह के इस पत्रकार के नाम पर समर्पित होने की ख़बरें तो हवा में चल ही रही है.
(लेखक की टिप्पणी — बतौर एक दर्शक ही)

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