प्रसंगवश

रोटी पर राजनीति क्यों नहीं होती?

रायपुर | जेके कर: हमारे देश में रोटी को छोड़ सब पर राजनीति होती आई है. दादरी के बाद मैनपुरी सुलग चुका है. जम्मू में गोहत्या के विरोध में शनिवार को बंद का आयोजन किया गया है. इसका आव्हान् जम्मू एवं कश्मीर राष्ट्रीय पैंथर्स पार्टी ने किया है. इससे पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा में बीफ पार्टी देने पर दो विधायक मार खा चुके हैं. फिलहाल देश में बीफ पर राजनीति चल रही है. इससे कई साल पहले मंदिर-मस्जिद पर राजनीति हो चुकी है. हैरत की बात है कि जिस देश में 19 करोड़ 14 लाख लोग कुपोषण के शिकार हैं उस देश में रोटी पर राजनीति कभी परवान नहीं चढ़ती है. यह आकड़ा संयुक्त राष्ट्र के खाद्य तथा कृषि संगठन द्वारा जारी किया गया है. भारत से अधिक जनसंख्या होने के बावजूद भी चीन में 13 करोड़ 38 लाख लोग कुपोषण के शिकार हैं.

जाहिर है कि भारत की 15.2 फीसदी आबादी भूखे पेट सोती है. इसके बाद भी इस देश में भूख, कुपोषण के सवाल पर जनता उत्तेजित नहीं होती है या कहना चाहिये कि उन्हें उत्तेजित नहीं किया जाता है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य तथा कृषि संगठन का कहना है कि विकास का लाभ गरीबों तक नहीं पहुंचा है.

देश के इस हालात को देखकर ऐसा लगता है कि हमें ‘स्मार्ट सिटी’ नहीं ‘भरपेट रोटी वाले सिटी’ की जरूरत है. यदि ‘भरपेट रोटी वाले सिटी’ बनाया जाये जहां पर कोई भूखा नहीं रहेगा तो यकीन मानिये देश की जनता उसकी ओर पलायन करने लगेगी. परन्तु ऐसा नहीं किया जा रहा है क्योंकि भूख मिटाने तथा रोटी देने के लिये देश की संपदा तथा संसाधनों का पुनर्वितरण करना पड़ेगा. जिसके लिये न अडानी तैयार होंगे तथा अम्बानी और न ही जिंदल तथा टाटा घराने.

इतिहास इस बात का गवाह है कि जब फ्रांस की जनता ने वहां की रानी से कहा था कि खाने के लिये रोटी नहीं है तो रानी ने जवाब दिया था तो केक खाओ, इसके बाद वहां क्रांति हो गई तथा जनता ने राजशाही को उखाड़ फेंका था. इसलिये यह नहीं माना जा सकता कि रोटी पर राजनीति नहीं हो सकती. दरअसल, रोटी में इतना दमखम है कि उसकी राजनीति सत्ता परिवर्तन करने का माद्दा रखती है.

भारत में भी इंदिरा गांधी ने 1971 के आम चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था या कहना चाहिये अन्य मुद्दों को दबाने के लिये इसका इस्तेमाल किया था. इंदिरा गांधी के इस नारे ने जनता को इतना प्रभावित किया कि उन्हें दो तिहाई बहुमत से विजय मिली थी. इंदिरा गांधी को लोकसभा में 518 सीटों में से 352 में सफलता मिली थी.

इससे जाहिर है कि रोटी के सवाल पर, भूख के सवाल पर तथा गरीबी के सवाल पर हमारें देश में राजनीति की जा सकती है परन्तु लाख टके का सवाल यह है कि उस पर राजनीति क्यों नहीं की जाती है. सामने बिहार विधानसभा का चुनाव है ठीक उससे पहले बीफ पर परवान चढ़ती राजनीति का लाभ किये मिलेगा इसे आसानी से समझा जा सकता है. कम से कम उन गरीबों को तो नहीं मिलने जा रहा है जिन्हें भरपेट रोटी नहीं मिलती है.

सबसे ताज्जुब की बात है कि रोटी पर राजनीति करने वाले आज संख्याबल में कम होते चले जा रहें हैं. इस पर मंथन की जरूरत है कि सबको रोटी सबको काम देने का नारा आखिरकार जनता को क्यों नहीं आकर्षित करता है. जाहिर है कि जनता को संगठित करने से उत्तेजित करना ज्यादा आसान काम है जिसका लाभ राजनीति पार्टियां ठीक चुनाव के पहले उठाती रहती हैं.

भारत एक लोकतांत्रिक देश है. जिसमें हर पांच साल बाद देश पर कौन सा दल शासन करेगा उसके लिये जनता से पूछा जाता है. कहने का मतलब यह है कि जनता के मताधिकार में इतनी ताकत है कि यह कह सकती है कि देश में कौन सी राजनीति को वरीयता मिलनी चाहिये रोटी पर राजनीति को या अन्य किसी मुद्दे को.

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