आउट सोर्सिंग यानी विकल्पहीनता
सुरेश महापात्र
छत्तीसगढ़ में आउट सोर्सिंग से शिक्षकों के रिक्त पदों पर भर्ती को लेकर भारी हंगामा मचा हुआ है. लेकिन इसे सीधे-सीधे जायज या नाजायज ठहराना थोड़ी जल्दीबाजी होगी. आप कह सकते हैं कि यह बात जायज या नाजायज़ में से कोई एक होनी चाहिए? सही बात है पर विषय के मर्म को समझे बगैर किसी विषय पर सीधे जायज़ या नाजायज़ का विकल्प ठोक देना भी तो गलत है. पहले यह बात समझी जाए कि बस्तर और सरगुजा में आखिर विशेषज्ञ शिक्षकों के पद रिक्त क्यों हैं?
प्रदेश में भाजपा की सरकार बीते करीब 12 बरसों से है. यानी जो बच्चा कक्षा पहली में था वह अब 12वीं में पहुंच गया है. यदि सरकार ने अपनी नीति में सुधार किया होता तो कम से कम 12वें बरस में सरकार को आउट सोर्सिंग के शरण में जाने की नौबत नहीं आती.
यह सच है कि बस्तर में शिक्षा का स्तर मुख्य सचिव की चिंता से भी कहीं खतरनाक हाल में है. पढ़ाई के नाम पर केवल खानापूर्ति का खेल चल रहा है. आठवीं क्या, 10 वीं के बच्चे से पूछें तो बहुत से ऐसे मिल जाएंगे, जिन्हें अपना नाम भी सही उच्चारण करना या हिंदी और अंग्रेजी में सही तरह से लिखना नहीं आता. जाहिर है, इसके लिए सरकार की शिक्षा नीति का सीधा दोष है. जिसमें प्रारंभिक काल में ध्यान नहीं दिया गया, अब जब समस्या गंभीर हो गई तो गुणवत्ता सुधारने के लिए फिक्र का दिखावा हो रहा है. राजीव गांधी प्राथमिक शिक्षा मिशन, राजीव गांधी माध्यमिक शिक्षा मिशन, राजीव गांधी उच्चतर शिक्षा मिशन ऐसी संस्थाएं हैं जहां पैसों का खेल सीधे चलता है. अगर कोई कहे कि इन संस्थाओं में बिना नगद लेन-देन के सब कुछ होता है तो यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे इस लेख को पढ़ते हुये आप कह दें कि आपने लेख पढ़ा ही नहीं.
शिक्षा विभाग का पूरा ताना बाना इसी मकड़जाल में उलझा हुआ है. जो खुद को श्रेष्ठ समझता है वह पैसे के लेन-देन में माहिर है और उसकी सेटिंग के हिसाब से पूरा खेल चलता है. यानी शिक्षा विभाग जिसकी मौलिक जिम्मेदारी स्कूलों में पढ़ाई और उससे जुड़ी बातों पर होना चाहिए वह इसी मूल जिम्मेदारी को छोड़कर बाकि सब कुछ करने को तैयार है. निर्माण की सभी सरकारी एजेंसियों में जितना पैसा निर्माण के लिए आता है, उससे कहीं ज्यादा पैसा स्कूल शिक्षा विभाग में इन्हीं मिशनों के माध्यम से पहुंचता रहा है. विभाग यह बता दे, इसमें बिना लेन देन के कोई अफसर टिक भी सकता है तो यह सीधा चैलेंज है. करप्शन की सारी सीमाएं परिभाषा से परे जाकर खत्म होती हैं.
जिन गंभीर चिंताओं को दूर करने के लिए योजनाओं का निर्माण किया गया है, उनके मूल में शिक्षा को छोड़कर निर्माण और खरीदी सीधे तौर पर जुड़ गया है. पूरी जद्दोजहद इसी व्यवस्था के हिसाब किताब में निकल जाती है. ऐसे में बच्चे पढ़ेंगे कैसे? और पढ़ेंगे नहीं तो आने वाली पीढ़ि को पढ़ाने के लायक बनेंगे कैसे? यह समझा जा सकता है.
बस्तर और सरगुजा में आरक्षण रोस्टर का पालन किए बगैर किसी भी प्रकार की नियुक्ति नहीं की जा सकती. जब आरक्षित वर्ग से बच्चे विषयों की विशेषज्ञता के साथ पढ़ाई कर बाहर नहीं निकलेंगे तो उन विषयों के शिक्षकों की पूर्ति निश्चित तौर पर कभी नहीं हो सकती. इसके कारण अंग्रेजी, गणित, विज्ञान के विषयों के शिक्षकों व्याख्याताओं के सैकड़ों पद रिक्त हैं. इन पदों पर वर्षों से भर्ती नहीं हो पाई है. यह बात भी सही है कि कई बार विज्ञापन भी निकाले गए पर जब कोई उस वर्ग से पढ़कर निकला हो जो शिक्षक और व्याख्याता बनना चाहता हो तभी तो आवेदन भरेगा! तो आप सीधे समझ सकते हैं कि जिन वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जानी है उन तक शिक्षकों की ही पहुंच नहीं है.
छत्तीसगढ़ में शिक्षा का हाल जानना हो तो बस्तर आ जाइए. यहां साफ दिख जाएगा कि प्रदेश के मुख्य सचिव की चिंता कितनी जायज है. बच्चे जब बड़ी कक्षाओं में जाने के बाद भी पढ़ नहीं पाते और लिख नहीं पाते तो वे कैसे शिक्षक बन पाएंगे? इस समस्या की जड़ में सरकार की वह नीति है जिसमें वह पैसे बचाकर स्कूली शिक्षा को चलाना चाहती है.
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में पंचायतों से शिक्षा कर्मियों की जो भर्ती प्रथा प्रारंभ हुई इसका अंत फिलहाल दिख नहीं रहा है. शिक्षित बेरोजगारों के शोषण का नायाब हथियार शिक्षा कर्मी साबित हुआ. 1995 में शिक्षकों के विकल्प के रूप में शुरू किए गए इस शिक्षाकर्मी अभियान ने पूरी शिक्षा व्यवस्था की नींव को हिला दिया है. आठ बरस तक दिग्विजय सिंह, तीन बरस तक अजीत जोगी, उसके बाद डा. रमन सिंह के 12 बरस शिक्षा कर्मी युग के रूप में चिन्हें जाएंगे. कहते हैं कि शिक्षा में किए गए प्रयोगों का असर एक दशक बाद परिलक्षित होता है. हो भी यही रहा है.
इसके लिए कांग्रेसी अगर भाजपा सरकार को कोसकर अपना दामन बचाना चाह रहे हैं तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा को आउट सोर्सिंग के दहलीज तक लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है. सरकार में जो भी हो, उसे अपने खजाने की चिंता तो होगी ही. भले ही नियमितिकरण जैसे जुमलों के दम पर भाजपा कांग्रेस से सरकार छिनने में कामयाब हो गई. उसे 12 बरस में भी अपनी इस व्यवस्था को एक कदम भी आगे बढ़ाने में कामयाबी नहीं मिल सकी है.
अभी तो हाल यह है कि अगर कोई शिक्षा कर्मी के रूप में भर्ती होता है तो उसका जिले से बाहर तबादला भी नहीं मिल सकता. चाहे वह बीमार हो, पति-पत्नी जैसा न्याय संगत कारण हो. विधि विभाग ने शिक्षाकर्मियों को सरकारी कर्मचारी मानने तक से इंकार कर दिया है. इसका मतलब यह है कि सरकार खुद ही नहीं चाहती कि व्यवस्था सुधरे और लोग सही विकल्पों की दिशा में आग बढ़ने के लिए तैयार हों.
बस्तर के केदार कश्यप तो डा. रमन सिंह की अगुवाई वाली तीसरी सरकार में शिक्षा मंत्री के रूप में काम देख रहे हैं. इससे पहले जिन लोगों ने इस जिम्मेदारी को निभाया है क्या उन्हें दोषमुक्त माना जा सकता है. बस्तर में पले-बढ़े आदिवासी युवा नेता के रूप में केदार कश्यप पूरी गंभीरता के साथ शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी को संभाल रहे हैं. उन्हें बस्तर की शिक्षा की स्थिति की चिंता है तभी वे भविष्य की राह खोलना चाह रहे हैं. फिलहाल बस्तर में शिक्षा के गुणवत्ता सुधार के लिए आउट सोर्सिंग ही सही विकल्प है. पूरा बस्तर इस बात को स्वीकार करेगा कि जिन स्कूलों में विषय विशेषज्ञ शिक्षकों, व्याख्याताओं की दरकार है, उसकी पूर्ति कराई जाए.
राजनीति के नाम पर महज राजनीति करने से भी भविष्य में माफी नहीं मिल सकती. इस बात को और तथ्य को लोगों को नहीं भूलना चाहिए. केदार जानते हैं कि उनके पिता बलीराम कश्यप किन परिस्थितियों में पढ़कर निकले और शिक्षक के रूप में अपनी जिंदगी को नई दिशा दी. इसी बस्तर के युवा पढ़ने और पढ़ाने के लायक हो सकें इसका प्रयास भी दंतेवाड़ा जैसे पिछड़े इलाके से हुआ. यहां अंदरूनी इलाकों के विज्ञान विषय पढ़ने के इच्छुक बच्चों को छू लो आसमान योजना के तहत अंग्रेजी, गणित और विज्ञान की पढ़ाई आउट सोर्सिंग के माध्यम से कराई जा रही है. यह एक छोटा प्रयास था. जिसे पूरे बस्तर में अपने तरह से लागू करने का आउट सोर्सिंग से पद भरने का विचार शिक्षा के लिए बेहतर कल उपार्जित करेगा. ऐसा विश्वास कम से कम मुझे तो है.
अगर सरकार बेहतर शिक्षा के लिए काम करना चाहती है तो उसे अपनी शिक्षा नीति पर भी कई बुनियादी सुधार करने की दरकार है. शिक्षा कर्मियों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा देकर विधि विभाग की आपत्ति को सरकार दूर कर सकती है. इससे आवश्यकता के अनुरूप शिक्षकों की पदस्थापना आवश्यक क्षेत्रों में स्थित शालाओं में की जा सकती है.
नियमित शिक्षकों को शिक्षा के अलावा सभी तरह की व्यवस्थाओं से मुक्त रखना भी सरकार का दायित्व है. इससे भी शिक्षा गुणवत्ता सुधार की दिशा में सही प्रयासों को बल मिलेगा. शिक्षा के लिए बनाए गए निरर्थक आयोगों को राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने का संसाधन बनाने के बजाए विशेषज्ञों को लेकर सकरार सही दिशा पर बढ़ सकती है. खैर अभी तो यही कहा जा सकता है कि जब तक ऐसा ना हो यही माना जाए कि आउट सोर्सिंग माने कि हमारे पास विकल्प नहीं है.
* लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित ‘बस्तर इंपैक्ट’ के संपादक हैं.