तरुणाई को दिशा दें
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
किशोरावस्था तीव्र शारीरिक भावनात्मक और व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों का काल है. यह परिवर्तन शरीर में उत्पन्न होने वाले कुछ हारमोंस के कारण आते हैं जिनके परिणाम स्वरुप कुछ एक ग्रंथियां एकाएक सक्रिय हो जाती है. ये सब परिवर्तन यौन विकास के साथ सीधे जुड़े हुए हैं क्योंकि इस अवधि में गौण यौन लक्षणों के साथ-साथ बहुत महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते हैं.
किशोर बात-बात में अपनी अलग पहचान का आग्रह करते हैं और एक बच्चे की तरह माता-पिता पर निर्भर रहने की उपेक्षा एक प्रौढ़ की तरह स्वतंत्र रहना चाहते हैं. वे अपने माता-पिता से थोड़ा दूरी बनाना शुरू कर देते हैं और अपने सम-आयु समूह यानी पीयर ग्रुप में ही अधिकतर समय व्यतीत करने लगते हैं. यौन-उर्जस्विता की आरंभिक अभिव्यक्ति के कारण किशोरावस्था का मानव जीवन में एक विशिष्ट स्थान है.
मानव जीवन का वसंतकाल
किशोरावस्था मनुष्य के जीवन का बसंतकाल माना गया है. यह काल बारह से उन्नीस वर्ष तक रहता है, परंतु किसी किसी व्यक्ति में यह बाईस वर्ष तक चला जाता है. यह काल भी सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों के विकास का समय है. भावों के विकास के साथ साथ बालक की कल्पना का विकास होता है. उसमें सभी प्रकार के सौंदर्य की रुचि उत्पन्न होती है और बालक इसी समय नए नए और ऊँचे ऊँचे आदर्शों को अपनाता है. बालक भविष्य में जो कुछ होता है, उसकी पूरी रूपरेखा उसकी किशोरावस्था में बन जाती है. जिस बालक ने धन कमाने का स्वप्न देखा, वह अपने जीवन में धन कमाने में लगता है. इसी प्रकार जिस बालक के मन में कविता और कला के प्रति लगन हो जाती है, वह इन्हीं में महानता प्राप्त करने की चेष्टा करता और इनमें सफलता प्राप्त करना ही वह जीवन की सफलता मानता है. जो बालक किशोरावस्था में समाज सुधारक और नेतृत्व के स्वप्न देखते हैं, वे आगे चलकर इन बातों में आगे बढ़ते है.
कुछ कर दिखने की दहलीज़
किशोर बालक सदा असाधारण काम करना चाहता है. वह दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है. जब तक वह इस कार्य में सफल होता है, अपने जीवन को सार्थक मानता है और जब इसमें वह असफल हो जाता है तो वह अपने जीवन को नीरस एवं अर्थहीन मानने लगता है. किशोर बालक के डींग मारने की प्रवृत्ति भी अत्यधिक होती है. वह सदा नए नए प्रयोग करना चाहता है. इसके लिए दूर दूर तक घूमने में उसकी बड़ी रुचि रहती है.
किशोर बालक का बौद्धिक विकास पर्याप्त होता है. उसकी चिंतन शक्ति अच्छी होती है. इसके कारण उसे पर्याप्त बौद्धिक कार्य देना आवश्यक होता है. किशोर बालक में अभिनय करने, भाषणा देने तथा लेख लिखने की सहज रुचि होती है. अतएव कुशल शिक्षक इन साधनों द्वारा किशोर का बौद्धिक विकास करते हैं.
किशोर बालक की सामाजिक भावना प्रबल होती है. वह समाज में सम्मानित रहकर ही जीना चाहता है. वह अपने अभिभावकों से भी सम्मान की आशा करता है. उसके साथ उपेक्षा का व्यवहार करने से, उसमें द्वेष की मानसिक ग्रंथियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे उसकी शक्ति दुर्बल हो जाती है और अनेक प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं.
तरुणाई की दें सही दिशा
किशोरावस्था शिक्षा विद्यार्थियों के किशोरावस्था के बारे में जानकारी प्रदान करने की आवश्यकता के सन्दर्भ में उभरी एक नवीन शिक्षा का नाम है. किशोरावस्था जो कि बचपन और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है, को मानवीय जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्ती के अंत में ही मिला पायी. हजारों सालों तक मानव विकास की केवल तीन अवस्थाएं – बचपन, युवावस्था और बुढ़ापा ही मानी जाती रही है. कृषि प्रधान व ग्रामीण संस्कृति वाले भारतीय व अन्य समाजों में यह धारणा है कि व्यक्ति बचपन से सीधा प्रौढावस्था में प्रवेश करता है. अभी तक बच्चों को छोटी आयु में ही प्रौढ़ व्यक्तियों के उत्तरदायित्व को समझने और वहां करने पर बाध्य किया जाता रहा है. युवक पौढ पुरुषों के कामकाज में हाथ बंटाते रहे हैं और लडकियां घर के. बाल विवाह की कुप्रथा तो बच्चों को यथाशीग्र प्रौढ़ भूमिका में धकेल देती रही है. विवाह से पूर्व या विवाह होते ही बच्चों को यह जाने पर बाध्य किया जाता रहा है कि वे प्रौढ़ हो गए हैं.
पुराने रवैये से बात नहीं बनेगी
लेकिन अब कई नवीन सामाजिक और आर्थिक धारणाओं की वजह से स्थिति में काफी परिवर्तन आ गया है. शिक्षा और रोजगार के बढ़ते हुए अवसरों के कारण विवाह करने की आयु भी बढ़ गयी है. ज्यादा से ज्यादा बच्चे घरों और कस्बों से बाहर निकल कर प्राथमिक स्तर से आगे शिक्षा प्राप्त करते हैं. उनमें से अधिकतर शिक्षा व रोजगार की खोज में शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं. देश के अधिकतर भागों में बाल विवाह की घटनाएं न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी है.
लडकियां भी बड़ी संख्या में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं. जिसके फलस्वरूप वे जल्द वैवाहिक बंधन में बंधना नहीं चाहतीं. इस मानसिक परिवर्तन में संचार माध्यमों की भी महती भूमिका रही है. एक ओर विवाह की आयु में वृद्धि हो गयी है और दूसरी ओर बच्चों में बेहतर स्वास्थ और पोषण सुविधाओं के कारण यौवानारम्भ निर्धारित आयु से पहले ही हो जाता है. इन परिवर्तनों के कारण बचपन और प्रौढावस्था में काफी अंतर पढ़ गया है. इस कारण अब व्यक्ति की आयु में एक ऐसी लम्बी अवधि आती है जब उसे न तो बच्चा समझा जाता है और न ही प्रौढ़ का दर्जा दिया जाता है. जीवन के इसी काल को किशोरावस्था कहते हैं.