गाय की नर्क जैसी जिंदगी
सुनील कुमार
गाय को काटने के खिलाफ देश भर के भाजपा-राज्यों में एक बड़ी मुहिम चल रही है, और बाकी देश के लिए भी एक माहौल बनाया जा रहा है. कई राज्यों में कानून बन गए हैं कि गोमांस खाना भी जुर्म है, रखने पर भी कैद है, और काटने पर तो कैद है ही. लेकिन इस मुहिम से देश में जो बूढ़ी और बीमार गायें बढऩे वाली हैं, उनके लिए कोई इंतजाम इन सरकारों के बनते कानूनों में नहीं है.
पिछले हफ्ते ही मेरे शहर में किसी संस्था ने दो गायों के ऑपरेशन करवाए. उनके पेट से 70 किलो पॉलीथीन निकला. दुबली-पतली, कुपोषण की शिकार गाय के पेट में अगर 35-35 किलो पॉलीथीन भरा हुआ है, तो इस गाय को बचाकर और कितने वजन के पॉलीथीन का इंतजार किया जाएगा?
इस मुद्दे पर आज लिखना इसलिए जरूरी लगा कि गायों का यह हाल अभी पास के कुछ और शहरों में भी देखकर आया, और देश भर की तस्वीरें भी देखने मिलती हैं. आज ही सुबह ब्रिटेन की एक तस्वीर देखने मिली जिसमें दुनिया की सबसे ऊंची गाय अभी पैर जख्मी होने के बाद गुजर गई. छह फीट दो इंच ऊंची यह गाय देखते ही बनती है. और हिन्दुस्तानी शहरों में गायों का हाल देखना हो तो सबसे संपन्न घूरे पर जाकर देखा जा सकता है जो कि गायों के खाने के लिए अकेली जगह है.
गाय को बचाने की भावना एक हिसाब से ठीक है, कि जिसका दूध पीकर बड़े हुए हैं, वह मां के बराबर है, और उसे कटने नहीं देना चाहिए. लेकिन लोग गाय के साथ भैंस का दूध भी पीते हैं, और अधिकतर मामलों में तो यह पता भी नहीं रहता कि दूध इन दोनों में से किसका है, इसलिए भैंसों को बचाना भी उतना ही जरूरी होना चाहिए. फिर कुछ लोग बकरी का दूध पीते हैं, राजस्थान में ऊंटनी के दूध का भी चलन है, इसलिए उनको भी बचाना चाहिए.
यह सोच मुझको व्यक्तिगत रूप से ठीक लगती है, क्योंकि मैं एक कट्टर शाकाहारी हूं, और उसका किसी धर्म से लेना-देना नहीं है. मेरा शाकाहारी होना मेरी सोच से जुड़ा है कि अपने स्वाद के लिए, अपने खाने के लिए किसी दूसरे प्राणी को नहीं मारना चाहिए. इसलिए गाय के काटने पर रोक मुझको ठीक लगेगी, अगर यह रोक बाकी जानवरों तक भी बढ़ जाए. लेकिन बाकी को छोड़कर सिर्फ गाय को बचाने के लिए भारत में एक धार्मिक उन्माद खड़ा करना, एक साम्प्रदायिकता खड़ी करना, हिन्दू धर्म के फैले हुए जातियों के ढांचे में से सिर्फ सनातनी हिस्से को पूरा ढांचा मान लेना, और देश की पशु-अर्थव्यवस्था, कृषि-अर्थव्यवस्था, मांस के बाजार की अर्थव्यवस्था को समझे बिना सिर्फ धार्मिक और जातीय भेदभाव को लादने के लिए गाय को काटने पर रोक लगाना सबसे बड़ी बदनीयत और नासमझी है.
अब यह देखें कि गाय के लिए भारत के इस हिन्दू-सनातनी तबके की, या भाजपा की, या कुछ हिन्दू संगठनों की जो भावनाएं हैं, उनकी हकीकत क्या है. एक गाय को मां मानना, उसकी पूजा करना, उसे राष्ट्रीय पशु बनाने की मांग करना, यह सब तो अच्छी बात है, लेकिन अगर किसी ने गाय को पलते देखा है, उसके दूध का कारोबार देखा है, तो गाय का जो दूध उसके अपने बच्चों के लिए होता है, उस दूध का हक उसके बच्चों से छीनकर, उस दूध को ये गोभक्त पीते हैं.
किसी डेयरी में ऐसा नहीं होता कि पहले गाय के बच्चों को पेट भर दूध पीने दिया जाए, और फिर बचे हुए दूध को इंसान इस्तेमाल करें. इंसान तो गाय के बच्चों को भूखा मारकर उसके दूध को पीकर अपने आपको गोभक्त साबित करते हैं. जिन लोगों ने डेयरी को देखा होगा, उनको यह पता होगा कि किसी गाय या भैंस के बच्चे के मर जाने पर, उसकी लाश की खाल के भीतर भूसा भरकर उसे गाय या भैंस के पीछे थनों के पास खड़ा किया जाता है, ताकि अपने बच्चे की मौत से बेखबर गाय-भैंस दूध देती रहें, और इंसान को वह दूध मिलता रहे.
अब जिस गाय को धोखा देकर, उसके साथ जालसाजी करके, उसके बच्चों को भूखा मारकर, उससे अधिक दूध पाने के लिए उसे नुकसानदेह दवाइयों के इंजेक्शन लगाकर जो इंसान अपना पेट और अपनी तिजोरी भरते हैं, वे आज गाय को कटने से बचाने के लिए लगे हुए हैं.
जो लोग गाय को बचाने के झंडे-डंडे लेकर सड़कों पर रहते हैं, उनके घरों के पास ही, उनके रास्तों पर ही गायें रात-दिन बैठी रहती हैं, न खाने का ठिकाना, न पीने का, न सिर पर छत, और न ही कोई भविष्य. हिन्दुस्तान की शहरी सड़कों पर गायों का डेरा इसलिए दिखता है कि सड़कों से परे मिट्टी कीचड़ हो जाती है, और गाय के बैठने को सूखी जगह सिर्फ सड़क पर बचती है.
गाय की यह बदहाली करने वाले सनातनी-हिन्दू और हिन्दू राजनीति करने वाले लोग इस बात को पूरी तरह अनदेखा कर रहे हैं कि इसी हिन्दुस्तान की वैदिक संस्कृति में गोवंश को खाने का पुराना चलन रहा है.
उस वक्त भी सामाजिक इतिहास बताता है कि लोग जानवरों के खेती के लिए, या दूध के लिए इस्तेमाल के न रह जाने पर उनको काटते थे. बहुत से धार्मिक रीति-रिवाजों में भी गोवंश को, गाय-बैल को काटा जाता था. आज मोदी सरकार के मंत्री भी ऐसे भड़काऊ बयान देते हैं कि जिन लोगों को गोमांस खाना हो, वे पाकिस्तान चले जाएं. लेकिन मुसलमानों पर लगाया गया यह निशाना नाजायज इसलिए है कि हिन्दू समाज के कई तबके हमेशा से गोमांस खाते आए हैं, यह एक अलग बात है कि दलित और आदिवासी तबकों को हिन्दू समाज के सनातनी लोग एक समय मनुवादी जाति व्यवस्था में समाज के बदन के सबसे नीचे के हिस्से, पैर मानकर चलते थे, और उनको अछूत बनाकर रखा था.
कानून में और लंबे सामाजिक संघर्ष ने अब वह छूत-अछूत की व्यवस्था गैरकानूनी बना दी है, इसलिए अब सनातनी-सोच ने दलित-आदिवासी तबकों को हिन्दू समाज के भीतर भेदभाव का शिकार बनाने के लिए एक नया इंतजाम किया है, और अब उनके खानपान पर हमला किया गया है. दलित-आदिवासियों के अलावा भी हिन्दू समाज के बहुत से तबके गोमांस खाते आए हैं, और उन पर कानून बनाकर यह नया हमला किया जा रहा है.
यह समझने की जरूरत है कि आज भारत का पूरा उत्तर-पूर्व राजनीतिक-भावनात्मक रूप से वैसे भी देश के बाकी हिस्से से अलग-थलग करके, कटा हुआ रखा गया है. खानपान का यह भेदभाव उन लोगों को बाकी देश से एक बार फिर काटकर रख देगा. यही हाल देश के किनारे के बहुत से और राज्यों का है. बंगाल से लेकर केरल तक, तमिलनाडू से लेकर आन्ध्र तक, और उधर ऊपर कश्मीर तक, दर्जनभर ऐसे किनारे के राज्य हैं जहां पर गोमांस लोगों के खानपान में हजारों बरस से शामिल रहा है.
इनमें सिर्फ अल्पसंख्यक लोग नहीं हैं, इनमें गोमांस खाने वाली हिन्दू आबादी अल्पसंख्यकों से कहीं अधिक है. इसलिए देश में आज गाय को काटने के खिलाफ जो एक उन्माद खड़ा किया जा रहा है, उससे दसियों करोड़ लोग ऐसे हमलावर और भेदभाव वाले कानून के खिलाफ हो रहे हैं.
पिछले एक बरस में इस देश में यह एक संगठित कोशिश चली है कि भारत के इतिहास के नाम पर एक ऐसे पुराण को लादा जाए जो कि लोगों के एक छोटे तबके को एक झूठा आत्मगौरव जुटाकर देता है. इसके तहत गोरक्षा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है, और गोमूत्र को लेकर, गोबर को लेकर तमाम किस्म की अवैज्ञानिक बातें फैलाई जा रही हैं.
अब जिस गाय के मूत्र की इतनी महिमा, इतनी चिकित्सकीय महिमा गिनाई जा रही है, उस गाय का वह मूत्र, उसका वह गोबर घूरे के खाने से बना हुआ है. मतलब यह कि इंसान उस गाय को एक दवा कारखाना तो बनाना चाहता है, उसे स्थापित कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ वह इंसान उस दवा कारखाने को कच्चे माल की शक्ल में घूरों का कचरा ही दे रहा है.
यह पूरी सोच एक बहुत ही विज्ञान-विरोधी सोच है, न सिर्फ अवैज्ञानिक. इसके खतरे इस देश के लोगों की सोच के अंधविश्वासी हो जाने की शक्ल में वैसे भी सामने आ रहे हैं. यह पूरा अभियान लोगों को धर्मान्ध और अलोकतांत्रिक भी बना रहा है, हिंसक भी बना रहा है, और हमलावर भी. यह सिलसिला कभी ठीक न होने वाला नुकसान भी छोड़ रहा है.
गाय को बचाने की सोच इस देश में करोड़ों रोजगार खत्म कर रही है, और इससे परे की एक बात और यह कि दरअसल ये गायें बच नहीं रही हैं, बहुत बुरी मौत मरने के लिए तैयार की जा रही हैं. जिस गाय को उसके हाथ-पैर चलते ही, उसकी जवानी में ही रहने को सड़क और खाने को घूरा ही नसीब है, उस गाय का तब क्या होगा जब उसके हाथ-पैर नहीं चलेंगे, और वह एक जगह बस पड़ी रह जाएगी? और हर गाय का ऐसा दिन आना तय है, क्योंकि हर प्राणी का ऐसा दिन आना तय है.
इंसानों में से बहुतों के बच्चे उनका ख्याल रख लेते हैं, और मरने तक उनको खाना-पीना नसीब हो जाता है. लेकिन गायों को तो यह सहूलियत भी हासिल नहीं है. इसलिए गाय को बचाने वाले लोग एक बहुत बड़ा जुर्म करना शुरू कर चुके हैं, कि आज तो जो गाय किसी बूचडख़ाने में काट दी जाती, वह गाय अपनी आखिरी के कई बरस घिसट-घिसटकर बहुत बुरी मौत मरेगी, और उस दिन उसे चारा-पानी देने वाले भी कोई गोभक्त आसपास नहीं रहेंगे.
आज पूरे देश में गाय के नाम पर ट्रस्ट चलाने वाले, गौशाला चलाने वाले लोगों को देख लें, तो ऐसी समाजसेवी संस्थाओं के नाम पर ये लोग खा-खाकर खुद तो सांड हो गए हैं, लेकिन गायों के बुढ़ापे के लिए इनके पास दिखावे के लिए, दानदाताओं को लुभाने के लिए, कोई इंतजाम हो तो हो, हकीकत में कोई इंतजाम नहीं हैं. अगर कोई इंतजाम होता तो शहरी सड़कें, और शहरी घूरे गायों से पटे हुए नहीं होते.
कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की शिकार एक बेजुबान गाय उस नर्क जैसी जिंदगी के लिए तैयार की जा रही है जिस नर्क का जिक्र धर्म बड़े खुलासे से करता है.
* लेखक रायपुर से प्रकाशित शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.