कला

छत्तीसगढ़ की शान, बस्तर आर्ट

रायपुर | एजेंसी: प्रकृति के गर्भ से निकली बस्तर की हस्तकला देश और दुनिया की शान हैं. देश का पूरा कला जगत इन्हें बेहद सराहता है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बस्तर के शिल्प कुदरती हैं और अनेक पीढ़ियों से अपने मूल रूप में चले आ रहे हैं. आदिवासी मसलों का कोई जानकार भी नहीं बता सकता कि इनकी शुरूआत कब हुई? असल में आदिवासी समाज ने इन्हें गढना या बनाना सीखा ही नहीं. यह तो उनकी आस्था और रहन-सहन में शुमार उनकी रोजमर्रा की जरूरत की चीजें हैं, जिन्हें शहरी लोगों ने परखा और समझा फिर कला जगत में जगह दिलाई.

आज भी बस्तर के देहातों में रह रहे आदिवासियों को जरा सा भी अंदाज नहीं है कि उनकी मिट्टी की कच्ची झोपड़ी के बाहर लटकने वाला दीपक शहरी इलाकों में कितना सराहा जाता है या उनकी आस्था की प्रतीक प्रतिमाओं को लोग मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी या दिल्ली की कला दीर्घाओं में कितनी शिद्दत से सराहते हैं. महानगरों का अभिजात वर्ग अपनी बैठकों में उन्हें सजाकर कितना गौरवान्वित होता है.

बस्तर आर्ट के नाम पर तीन तरह के शिल्प दिखते हैं सबसे पहले ढोकरा आर्ट जिसे बस्तर में गढ़वा आर्ट कहते हैं. दूसरी लौह आकृतियां जिसे लोहार जाति के लोग बनाते हैं और तीसरे काष्ठ शिल्प यानी लकड़ी से बनी कलात्मक वस्तुएं खासतौर पर लकड़ी पर उकेरा जाने वाला आदिवासी जीवन.

काष्ठ शिल्प यूं तो आदिवासियों की रगों में रचा-बसा था मगर उसे आधुनिकता का पुट इस इलाके में 70 के दशक के आसपास पश्चिम बंगाल से बस्तर पहुंचे गुहा नाम के सज्जन ने दिया. उन्होंने ही इस कला को नए रूप में घर-घर पहुंचाया. उनकी दिलचस्पी और लगन की वजह से बस्तर का बच्चा-बच्चा इस कला में पारंगत है. गुहा का देहांत हुए बीस बरस से ऊपर हो गए पर उनकी सिखाई ये कला आज भी फल-फूल रही हैं.

कला तो दरअसल आदिवासियों का जीवन हैं, भीमबेटका की गुफा चित्रकारी इसका जीता-जागता सबूत है. आदिवासी प्रकृति प्रेमी हैं और उनकी उपासना का दायरा भी इसी के इर्द-गिर्द है. पेड़, पक्षी और नदी पूजक इन आदिवासियों ने अपनी आस्थाओं को कब मूर्ति शिल्प में ढालना शुरू किया कोई नहीं जानता पर बस्तर के लोग इन्हें सदियों से देखते आ रहे हैं.

आदिवासी आस्था के ये प्रतीक जैसा कि जाहिर गढवा जाति के कलाकार बनाते हैं. बस्तर में हजारों देवी-देवता हैं और इन्हें तय आकार के हिसाब से कैसे ढाला जाए यह आदिवासी ही समझते हैं. शहरी लोगों के लिए ये महज कलात्मक वस्तुएं हैं. यहां सबसे ज्यादा मूर्ति दंतेश्वरी देवी की बनती है. कहते हैं कि बस्तर में सती के दांत गिरे थे, लिहाजा यहां दंतेश्वरी का मंदिर बन गया.

शहरी लोग देवी दंतेश्वरी को मानते हैं. इनकी पीठ आज से नक्सल उपद्रवग्रस्त इलाके दंतेवाड़ा शंखिनी नदी के करीब है. अगर छह भुजाओं वाली सिंह पर विराजी कोई मूर्ति दिखे तो इसका मतलब है कि वह दंतेश्वरी मां हैं. इनके अलावा दंतेश्वरी देवी की बुआ मावली माता की प्रतिमाएं भी आदिवासी बनाते हैं. आदित्य देव, भौरमदेव, हिंगलाजिन देवी जैसे अनेक देवी-देवता हैं जिन्हें बिना समझे लोग बस कला के प्रतीक के तौर पर खरीद लेते हैं. इसी तरह बूढ़ी माता, गंगुआ मां, करनकोटी, दूल्हादेव की कलात्मक लगने वाली आकृतियों को पूरे गोंडवाना के आदिवासी पूजते हैं.

इन कलाओं का जरा सा विकास भी हुआ है. पहले ये सिर्फ आस्था तक सीमित थीं पर अब इसमें व्यावसायिक कोण भी जुड़ गया है. लिहाजा शहरी प्रभाव में ये दरवाजे की मूंठ, जालियां और बालकनी वगैरह के लिए कलात्मक चलजें, दरवाजे भी बनाने लगे हैं.

समय के साथ आदिवासियों ने इन कलाओं का यूजन करना भी सीख लिया है और वे अनेक उपयोगी कलात्मक वस्तुएं बनाने लगे हैं, लोहे, लकड़ी और गढ़वा कलाओं के तालमेल से घरेलू उपयोग की अनेक वस्तुएं जैसे ट्रे, तरह-तरह के प्याले और गुलदस्ते वगैरह भी बनाने लगे हैं. इनकी मांग खासतौर पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बहुत बढ़ गई है. इससे आदिवासियों को फायदा तो हुआ है पर बिचैलिए उससे भी ज्यादा मुनाफा उठा रहे है.

आदिवासी प्रकृति प्रेमी हैं वह अपने कुदरती खूबसूरती से सराबोर गांवों को छोड़ना नहीं चाहता और इसका फायदा जाहिर है बिचैलिए ले जाएंगे. सरकार ने आदिवासी कलाओं को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं.

हाल में सूरजकुंड मेले की थीम छत्तीसगढ़ थी और इसमें बस्तर आर्ट छाया हुआ था. पर दिक्कत वही है कि आदिवासी शहरी जीवन के आदी नहीं हैं. वह घर वापसी को उतावले हो जाते हैं. उन्हें गांव के पहाड़ चाहिए, अपने आंगन में ताजे फलों के पेड़ और बाड़ी की हरी सब्जियां चाहिए, नहाने को झरने, नदी, तालाब चाहिए. खुला माहौल चाहिए और इसी माहौल के हिसाब से उन्होंने अपनी जीवन चर्या बना ली है. शहर में उन्हें दो दिन बाद दिक्कत होने लगती है.

आदिवासियों का लौहशिल्प खासा लोकप्रिय है. इसकी बाजार में खूब बिक्री होती है, इसकी वजह यह है कि बस्तर में इफरात लोहा है. आदिवासियों को यह आसानी से हासिल हो जाता है. उन्हें इसे बनाने में भी आसानी होती है. वह लोहे को तपाकर और ठोंक-पीटकर पसंदीदा आकार दे लेते हैं. पीतल की बनिस्बत लोहा किफायती भी है. पर गढ़वा आर्ट के लिए कच्चा माल मिलना आसान नहीं है. पीतल महंगा हो गया है और बाहर से आता है. इसी तरह लकड़ी के लिए भी जंगल और वन विभाग पर निर्भरता है. वैसे कुदरत इतनी मेहरबान न होती तो शायद घर की कड़छी और दीपक बनाने से हुई अनगढ़ शुरूआत सुघड़ कला तक न पहुंचती.

यह शिल्प पेरिस और अमेरिका में भी बिक रहा है मगर यह गिने-चुने आदिवासी ही जानते होंगे. असल में आदिवासियों के पूरे जीवन में खास तरह की कलात्मक छाप है. उनका हाथ से कता लुगड़ा यानी कपड़ा, बुनी हुई टोकरियां सभी की खूबसूरती देखने वाली है.

आदिवासियों के सबसे बड़े और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कलाकार जयदेव बघेल अपने साथियों के लिए तरक्की का सपना देखते-देखते पिछले साल दुनिया से चले गए. उन्होंने अनेक देशी-विदेशी कलाकारों को आदिवासी गढ़वा कला सिखाई थीं. कोंडागांव में इसका स्कूल भी शुरू किया था पर अपने आखिरी दिनों में वह इसके अकादमिक और व्यावसायिक पहलू पर बड़े चिंतित थे. उनकी राय में आदिवासियों में इन कलाओं के प्रति जागरूकता के लिए कोई ऐसा फार्मूला जरूरी है कि वह इनकी अहमियत समझे और उन्हें पूरा मुनाफा भी मिले.

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