छत्तीसगढ़

बीजापुर में हजारों ‘स्थाई वारंट’

रायपुर | एजेंसी: छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 15-35 हजार आदिवासियों के नाम पुलिस ने ‘स्थाई वारंट’ जारी कर रखे हैं. उल्लेखनीय है कि 2011 के जनगणना के अनुसार बीजापुर की आबादी 2.55 लाख है जिसमें से करीब 69 फीसदी लोग गांवों में निवास करते हैं. इससे आप अंदाजा लगा सकता है कि बीजापुर के जिले की एक बड़ी जनसंख्या के नाम ‘स्थाई वारंट’ जारी किया है. जिससे क्षेत्र के लोगों के मन में हमेशा भय बना रहता है. इसका खुलासा तब हुआ जब 26 से 31 दिसंबर 2014 के बीच पी.यू.डी.आर. का एक जांच दल छत्तीसगढ़ के बीजापुर ज़िले के 9 गावों में गया. जांच दल ने इन क्षेत्रों में माओवादियों से लड़ने के लिए तैनात सुरक्षा बलों के द्वारा की जा रही गिरफ्तारियों, धमकियों, एवं उत्पीड़न के साथ-साथ यौन-उत्पीड़न की घटनाओं को दर्ज़ किया.

मुख्यतः आदिवासी, इन गावों सार्केगुड़ा, राजपेटा, कोट्टागुड़ा, पुसबाका, तीमापुर, लिंगागिरी, कोरसागुड़ा, बासागुड़ा, कोट्टागुडेम के निवासियों ने सुरक्षा कैम्पों में रह रहे सशस्त्र बलों द्वारा प्रतिदिन किये जाने वाले अपराधों तथा हिंसक गतिविधियों के तथ्य बयान किये. सुरक्षा बलों द्वारा लगातार इन ‘क्षेत्रों में प्रभुत्व’ स्थापित करने के प्रयास के दस्तावेज़ीकरण के अलावा, यह रिपोर्ट निम्न बिन्दुओं पर विशेष ध्यान आकर्षित करती है –

आबादी की एक बड़ी संख्या के खिलाफ ‘स्थाई वारंट’ जारी किये गए हैं और इनमें से एक बड़ी संख्या को ‘फरार’ घोषित कर दिया गया है. एक मोटा आंकलन यह दिखाता है की केवल बीजापुर में ही कम से कम 15 से 35 हज़ार लोग ‘स्थाई वारंट’ के आतंक और भय के साये में जी रहे हैं.

बस्तर के गांवों में जाने से जानकारी मिली कि सशस्त्र बल और स्पेशल पुलिस ऑफिसर बेलगाम तरीके से अवैध बर्ताव करते हैं जैसे की नियमतः आदिवासी ग्रामीणों के घरों पर छापा मारना, पिटाई करना, लूट-पात, हवालात में बंद करना तथा उनको सुरक्षा कैम्पों में ‘बेगार’ करने के लिए बाध्य करना. यौन-उत्पीड़न के मामले भी सामने आये.

एक ओर सुरक्षा बलों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज़ करने की असमर्थता है और दूसरी ओर जेलों में बंद ग्रामीणों की गिरफ्तारियों की बढ़ती संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.

छत्तीसगढ़ के बस्तर के गांवों में कैम्पों में आपूर्ति-प्रणाली सुनिश्चित करने हेतु सेना द्वारा बड़े स्तर पर सड़क-निर्माण कार्यों की वजह से सशस्त्र बल के लोग बड़ी संख्या में हैं. सड़कों को खोलने का काम सशस्त्र बलों द्वारा सड़क उदघाटन अभ्यास के बाद ही किया जाता है और तत्पश्चात सड़क-अवरोधकों तथा चेक पोस्टों पर बार-बार यात्रियों को रोका जाता है. यह रोज़ाना का सिलसिला है.

बीजापुर और बासागुड़ा के बीच चलने वाली सार्वजनिक बसों में सशस्त्र बलों के जवान ग्रामीणों को यात्रा के दौरान उत्पीड़त करते हैं. अंतर्राष्ट्रीय नियमों की घोर अवहेलना करते हुए, सुरक्षा बल जान-बूझकर संभाव्य मुठभेड़ों के खिलाफ यात्रियों को ‘मानवीय कवच’ के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

आदिवासी ग्रामीणों की जीवन-स्थिति पर कैम्पों ने बहुत बुरा प्रभाव डाला है. कृषि-कार्यों में कमी और परिणामस्वरुप पारिवारिक आय और वेतनों में गिरावट इस उत्पीड़न का निश्चित परिणाम है. ख़राब स्वास्थ्य सेवाओं के साथ ही वर्तमान स्कूल व्यवस्था को अब इरादतन ‘आश्रम स्कूलों’ में बदला जा रहा है और जिसका मकसद आदिवासी बच्चों को उनके घरों और ग्रामीण परिवेश से खींच लेना है.

वर्तमान परिस्थिति की प्रबलता सलवा जुडूम की गतिविधियों के समय ग्रामीणों के बेदखली और सामूहिक विस्थापन से ज्यादा है. वर्तमान परिस्थिति केवल विस्थापन और पुनर्वास की दुर्गति को रेखांकित करती है जिसके तहत पहले भी ग्रामीणों को गुज़रने के लिए बाध्य किया गया था.

माओवादियों द्वारा बारम्बार किये जा रहे बम विस्फोटों तथा सड़कों को निशाना बनाये जाने के बावजूद, ग्रामीण सुरक्षा कैम्पों से डरते हैं क्योंकि वे सशस्त्र बल ही है जो उन्हें प्रताड़ित करते हैं और उनके खिलाफ नृशंस व्यवहार करते हैं.

जनसंहारों के साथ-साथ इस क्षेत्र में दैनिक उत्पीड़न राज्य द्वारा चलाए जा रहे युद्ध की दोहरी रणनीति का हिस्सा है.

वर्तमान सैन्य उपक्रम के पीछे यही मंसूबा है की खनन गतिविधियों को और अधिक बढ़ाने के लिए क्षेत्र को साफ कर दिया जाए. उद्देश्य यह भी है की आदिवासियों की राज्य का विरोध करने की इच्छा शक्ति को ख़त्म कर दिया जाये और उन्हें आधिकारिक प्रयासों को स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाये.

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