प्रसंगवश

सांस की आस का सवाल

डॉ.चन्द्रकुमार जैन | राजनांदगांव: शहरी लोग गाड़ियों से निकलने वाला प्रदूषण, उद्योगों से निकलने वाला प्रदूषण, सिगरेट का धुंआ इत्यादि से प्रभावित हो रहें हैं. इसी के साथ ही घर व कार्यालयों के अंदर वायु प्रदूषण से बच्चे और वयस्क तेजी से गिरफ्त में आ रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से संबंद्ध डा.वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट चौंकाने वाली है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की देखरेख में तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार घर एवं कार्यालयों के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण से पांच लाख से ज्यादा लोगों की मृत्यु हो रही है जो कि दुनिया के किसी भी देश के लिए बहुत ज्यादा है.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि बाहर से होने वाले प्रदूषण के मुकाबले घर में होने वाले प्रदूषण से 1000 गुना ज्यादा लोगों के फेफड़े खराब हो रहे हैं. पांच महागनरों में नवजात शिशुओं से लेकर 65 साल की आयु वर्ग के 22,234 लोगों पर कराए गए अध्ययन में पाया गया कि घर के वायु प्रदूषण से लोग अस्वस्थ तो होते ही है साथ ही मृत्युदर में भी बहुत ज्यादा इजाफा हो रहा है.

पांच साल से कम उम्र के बच्चों में श्वसन क्रिया में संक्रमण मृत्युदर का बहुत बड़ा कारण है. श्वसन की सभी बीमारियों में से अस्थमा हेल्थकेयर में बड़ी समस्या है. अमेरिका में वयस्क और बच्चों में ये तकरीबन 8.8 फीसद तक है तो भारत में इसका स्तर वयस्क और बच्चों में 4-5 प्रतिशत है. विश्व पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर रिपोर्ट के हवाले से पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में श्वसन तंत्रिका एवं फेफड़ों मामलों के अध्यक्ष डा. राजकुमार ने कहा कि तेजी से बढ़ती आबादी संकरी गलियां, छोटे घरों में अधिक लोगों के रहने, रोशनदान की कमी से अन्य महानगरों की अपेक्षा यहां पर बच्चों में फेफड़े में संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं.

कुल आबादी में से 5 साल से कम की आयु के शिशु 12 फीसद तक फेफड़े की बीमारी से ग्रस्त हैं, यह आंकड़ा कोलकाता, मुंबई मद्रास में 7 से 9 फीसद तक देखा गया है.दिल्ली, एनसीआर में सांस फाउंडेशन 2002-2012 के दौरान एक अन्य सर्वेक्षण में 10- 14 साल के उन बच्चों को शामिल किया गया जो अस्थमा से पीड़ित थे. करीब 15 फीसद बच्चे घर या स्कूल के भीतर होने वाली एलर्जियों के कारण अस्थमा से पीड़ित हैं. इसकी वजह अस्थमा और पैक फूड जैसे कि स्नैक्स और तरलपदार्थ का सीधा संबंध भी बताया गया है.

फेफड़े पर अटैक-अस्थमा : मैक्स हेल्थकेयर के डा. विवेक कुमार के अनुसार अस्थमा में फेफड़ों में हवा के आने जाने वाले मार्ग में सूजन हो जाती है. ये सूजन काफी घातक होती है क्यों कि ये चेस्ट एक्सरे या किसी दूसरे टेस्ट से पता नहीं चलती. हालांकि सूजन से कोई दर्द नहीं होता और ये दिखाई भी नहीं देती है लेकिन रोगी को खांसी या सांस लेने में दिक्कत महसूस होती है.

वायुमण्डल में कार्बनडाईआक्साइड का होना भी प्रदूषण हो जाता है यदि वह धरती के पर्यावरण में अनुचित अन्तर पैदा करता है. ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव पैदा करने वाली गैसों में वृद्धि के कारण भू-मण्डल का तापमान निरन्तर बढ़ रहा है. जिससे हिमखण्डों के पिघलने की दर में वृद्धि होगी तथा समुद्री जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती क्षेत्र, जलमग्न हो जायेंगे. हालाँकि इन शोधों को पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका स्वीकार नहीं कर रहा है. प्रदूषण् के मायने अलग-अलग सन्दर्भों से निर्धारित होते हैं.

परम्परागत रूप से प्रदूषण में वायु, जल, रेडियोधर्मिता आदि आते हैं. यदि इनका वैश्विक स्तर पर विश्लेषण किया जाये तो इसमें ध्वनि, प्रकाश आदि के प्रदूषण भी सम्मिलित हो जाते हैं. गम्भीर प्रदूषण उत्पन्न करने वाले मुख्य स्रोत हैं, रासायनिक उद्योग, तेल रिफायनरीज़, आणविक अपशिष्ट स्थल, कूड़ा घर, प्लास्टिक उद्योग, कार उद्योग, पशुगृह, दाहगृह आदि. आणविक संस्थान, तेल टैंक, दुर्घटना होने पर बहुत गम्भीर प्रदूषण पैदा करते हैं. कुछ प्रमुख प्रदूषक क्लोरीनेटेड, हाइड्रोकार्बन्स, भारी तत्व लैड, कैडमियम, क्रोमियम, जिंक, आर्सेनिक, बैनजीन आदि भी प्रमुख प्रदूषक तत्व हैं.

प्राकृतिक आपदाओं के पश्चात् प्रदूषण उत्पन्न हो जाता है. बड़े-बड़े समुद्री तूफानों के पश्चात् जब लहरें वापिस लौटती हैं तो कचरे कूड़े, टूटी नाव-कारें, समुद्र तट सहित तेल कारखानों के अपशिष्ट म्यूनिसपैल्टी का कचरा आदि बहाकर ले जाती हैं. ‘सुनामी’ के पश्चात् के अध्ययन ने बताया कि तटवर्ती मछलियों में, भारी तत्वों का प्रतिषत बहुत बढ़ गया था. प्रदूषक विभिन्न प्रकार की बीमारियों को जन्म देते हैं. जैसे कैंसर, इलर्जी, अस्थमा, प्रतिरोधक बीमारियाँ आदि. जहाँ तक कि कुछ बीमारियों को उन्हें पैदा करने वाले प्रदूषक का ही नाम दे दिया गया है. जैसे मरकरी यौगिक से उत्पन्न बीमारी को ‘मिनामटा’ कहा जाता है.

शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से भारत की वायु गुणता में अत्यधिक कमी आयी है. विश्वभर में 30 लाख मौतें, घर और बाहर के वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष होती हैं, इनमें से सबसे ज्यादा भारत में होती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत की राजधानी दिल्ली, विश्व के 10 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से एक है. सर्वेक्षण बताते हैं कि वायु प्रदूषण से देश में, प्रतिवर्ष होने वाली मौतों के औसत से, दिल्ली में 12 फीसद अधिक मृत्यु होती है.

एक अलग अध्ययन के अनुसार, भारत का सकल घरेलू उत्पाद पिछले दो में 2.5 फीसद बढ़ा है, वाहनों से होने वाला प्रदूषण 8 फीसद बढ़ा है जबकि उद्योगों से बढ़ने वाला प्रदूषण चौगुना हो गया है. भारत के प्रदूषणों में वायु प्रदूषण सबसे अधिक गम्भीर समस्या है. यह कई रूपों में हो रहा है जैसे- वाहनों से निकलने वाला धुऑं, औद्योगिक धुऑं आदि. दुर्भाग्यपूर्ण है कि औद्योगिकीकरण के अतिरिक्त बढ़ते शहरीकरण से नये-नये औद्योगिक केन्द्र खुल गये हैं पर उनके लिए आवश्यक नागरिक सुविधाओं तथा प्रदूषण नियंत्रण के तरीकों का विस्तार नहीं हुआ है.

वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए आवश्यक प्रावधानों को दिल्ली जैसे शहर में पूर्णरूपेण लागू कर पाना काफी मुश्किल कार्य है. फिर भी इस दिशा में कार्य जारी है. विशेष रूप से सी.एन.जी. गैस के प्रयोग ने, इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है पर भविष्य में वाहनों की संख्या के लगातार बढ़ने की सम्भावना से, जुड़े हुए सरकारी प्रयासों की तथा प्रदूषण नियंत्रण प्रावधानों को कठोरता से लागू करने की आवश्यकता है. वही, प्रदूषण के खतरों से अनजान रहने में ही अपना सुकून ढूंढने वाली मानसिकता से आम लोगों के बाज़ आने की ज़रुरत से भी इंकार नहीं किया जा सकता. वरना, कोई आश्चर्य नहीं कि बकौल अरुणा दुबलिस एक दिन हम खुद कहेंगे –

रास्ते में खो गया है आदमी
आदमी को ढूंढता है आदमी
कौन जाने किस हवा में उड़ गया
एक मुट्ठी धूल-सा है आदमी

(लेखक ख्याति प्राप्त वक्ता और शासकीय दिग्विजय पीजी स्वशासी महाविद्यालय, राजनांदगांव के राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक हैं.
संपर्क – 9301054300 / chandrakumarjain@gmail.com)

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