केजरीवाल ने इस्तीफा क्यों दिया था?
रायपुर | अन्वेशा गुप्ता: बुधवार को ‘आप’ के संयोजक पद से केजरीवाल ने अपना इस्तीफा भेज दिया था. जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, ‘आप’ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे को स्वीकार नहीं किया. उसके बाद केजरीवाल के अपने इस्तीफे पर अड़े रहने की कोई खबर नहीं आई. जाहिर है केजरीवाल के इस्तीफे का मकसद पूरा हो चुका था. इसके उलट ‘आप’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने पार्टी के राजनीतिक मामलों की समिति से प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
किसी भी पार्टी में इस्तीफा देना उसका अंदरुनी मामला है तथा हमारे देश में यह आम बात है. इसमें खास बात केवल इतनी भर है कि अभी तक सभी पार्टियों से अलग होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी में भी उसी परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है.
राजनीति में गुटबाजी आम बात है तथा असका असर पार्टियों के संगठन पर अक्सर देखा जा सकता है. चाहे वह सत्तारूढ़ भाजपा हो या सत्ताच्युत कांग्रेस हो. यहा तक कि राज्यों में सत्तासीन दलों तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, डीएमके, एआईडीएमके तथा कम्युनिस्ट पार्टियां तक इससे मुक्ति नहीं पा सकी हैं.
इस कारण से ‘आप’ के संयोजक पद से अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिये परन्तु इस पार्टी के फिर से दिल्ली की सत्ता में काबिज होने के बाद से उम्मीद की जा रही थी कि इसमें कुछ ‘पार्टी विद डिफरेंस’ होगा.
इसके बावजूद, ‘आप’ के संयोजक अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा चौंकाने वाला तथा लीक से हटकर था. गौरतलब है कि अरविंद केजरीवाल बुधवार को सारा दिन दिल्ली सरकार के सचिवालय में बैठकर काम निपटाते रहें परन्तु पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक से नदारत रहे. बुधवार को सबेरे से ही साफ़ लग रहा था कि प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव को राजनीतिक मामलों की समिति से हटाये जाने की स्क्रिप्ट पहले ही लिखी जा चुकी थी.
प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव को राजनीतिक मामलों की समिति से हटाकर कोई दिगर जिम्मेवारी सौंपना उनका आंतरिक मामला हो सकता है परन्तु केजरीवाल ने 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के प्रचार में स्वीकार किया कि 2014 में ‘आप’ की दिल्ली सरकार का इस्तीफा देना गलत फैसला था जिसके लिये उन्हें माफ़ किया जाये.
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीज़े ऐलान करते हैं कि 70 सदस्यों वालो विधानसभा में ‘आप’ को 67 सीटों का मिलना, जनता द्वारा दी गई माफ़ी का संकेतनामा है. उसके महज माह भऱ में ही अरविंद केजरीवाल का पार्टी के संयोजक पद से इस्तीफा देना गले से नहीं उतरता है.
सत्ता के गलियारों से छनकर जो खबरें बाहर आ रहीं हैं उसके अनुसार योगेन्द्र यादव चाहते थे कि हरियाणा विधानसभा का चुनाव पार्टी लड़े. वहीं, खबरों के अनुसार केजरीवाल चाहते थे कि पार्टी लोकसभा चुनाव हारने के बाद अपना सारा ध्यान दिल्ली के विधानसभा चुनावों पर केन्द्रित रखे. साफ है कि केजरीवाल की रणनीति ने ‘आप’ को देश के राजनीतिक नक्शे में इसी फैसले के चलते फिर से स्थापित किया है.
लोकसभा चुनाव में मोदी को चुनौती देने के बाद देजरीवाल को समझ में आ गया था कि रणनीतिक रूप से विरोधी को कमजोर नहीं समझना चाहिये. जाहिर है कि इसके चलते योगेन्द्र यादव का अहम उनसे टकरा गया होगा.
योगेन्द्र यादव तथा प्रशांत भूषण को बाहर करके अरविंद केजरीवाल ने यह भी संकेत दे दिया है कि उनके सही-गलत फैसले को अस्वीकार करने वाले के लिये कम से कम पार्टी के शीर्ष स्थानों पर तो कोई जगह नहीं है. दोनों नेताओं को बाहर किये जाने का लाभ पार्टी के उन नेताओं को भी मिलेगा, जो अपने को तीसरी पंक्ति का नेता मानते थे.
ऐसे नेताओं के टीवी साक्षात्कारों को देख कर उनकी खिचड़ी का स्वाद जाना जा सकता है. लेकिन संकट केवल इतना भर है कि देश में लाखों लोग इस पूरे घटनाक्रम में एक अधिनायकवाद की ध्वनि सुन रहे हैं. अरविंद केजरीवाल इसे ग़लत साबित करेंगे, इसकी उम्मीद अभी तो कम से कम नहीं है.