baatcheet

अपराध मुक्त भारत बनाएँ

डॉ.चन्द्रकुमार जैन
हमारे देश में यूरोप की तरह कभी कोई बड़ी सामाजिक क्रान्ति नहीं हुयी. सामन्ती शासन व्यवस्था से सत्ता छीन कर जो औपनिवेशिक व्यवस्था यहाँ आयी उसका मूल उद्देश्य अपने पितृदेश के लिये अधिकतम सम्भव मुनाफ़ा कमाना था. 1857 के बाद से तो अँग्रेज़ी शासन ने किसी सामाजिक सुधार की जगह पूरी तरह से यहाँ की उत्पीड़क सामाजिक संस्थाओं का दोहन अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया.

यह समाज को धार्मिक तथा जातीय आधारों पर बाँटे रहने का सबसे मुफ़ीद तरीक़ा था. जहाँ पूरे यूरोप के साथ-साथ इंग्लैण्ड में उस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवर्तनों की बयार चल रही थी, भारत में अँग्रेज़ी शासन के अन्तर्गत ऐसी कोई बड़ी पहल इस दौर में सम्भव नहीं हुयी. सती प्रथा विरोध जैसे जो कुछ समाज-सुधार आन्दोलन 1857 के पहले थे भी वे बाद के दौर में नहीं दीखते. सामाजिक संरचना पूरी तरह से सामन्ती मूल्य-मान्यताओं पर आधारित रही.
000
संकीर्ण सोच का बोझ अब तक !
देश में पूँजीवाद आया भी तो औपनिवेशिक शासक के हितों के अनुरूप कमज़ोर और बीमार. यह किसी सक्रिय क्रान्ति की उपज नहीं था जो अपने साथ सामाजिक संरचना को भी उथल-पुथल कर देती. दक्षिण में रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में और फिर ज्योतिबा फुले तथा भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पकार बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर के नेतृत्व में जातिगत भेदभाव विरोधी आन्दोलन चले भी लेकिन जेण्डर को लेकर कोई बहुत मज़बूत पहल कहीं दिखाई नहीं दी.

उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की मुख्यधारा में शामिल अधिकाँश लोगों के भाषणों, आचार-व्यवहार और नीतिगत निर्णयों में पितृसत्तात्मक तथा ब्राह्मणवादी नज़रिया साफ़-साफ़ झलकता है. विश्लेषकों का कहना बेमानी नहीं है कि राष्ट्रपिता मोहनदास करमचन्द गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद से लेकर हिन्दूवादी नेताओं जैसे मदन मोहन मालवीय जी तक में यह स्वर कभी अस्पष्ट तो कभी मुखर रूप से दिखाई देता है. इस दौरान पनपे हिन्दू तथा मुस्लिम दक्षिणपन्थी संगठनों में तो यह स्वाभाविक ही था कि महिलाओं को लेकर बेहद संकीर्ण और उलझी हुई दृष्टि भी अपनाई जाती रही.
000
अपराधी मानसिकता की शिनाख्त
अपराधी मानसिकता के फलने-फूलने में ये परिस्थितियाँ कैसी भूमिका निभाती हैं इसे अस्सी के दशक में लिखे गये जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यास मुरदा घर में तो हाल में आये अरविन्द अडिगा के उपन्यास द व्हाईट टाइगर में देखा जा सकता है. नब्बे के दशक के बाद ये प्रक्रिया और बढ़ी. आर्थिक असमानता की खाई तो चौड़ी हुयी ही साथ में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो थोड़ी-बहुत इमदाद मिलती थी वह भी बन्द हो गयी.

आवारा पूँजी से भरे बाज़ार ने एक तरफ चकाचौंध को कई गुना बढ़ा दिया तो दूसरी तरह मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा धीरे-धीरे ख़त्म की जाने लगी. खेती नष्ट हुयी और गाँवों से रोज़गार की सम्भावनायें भी. नतीजतन गाँवों और छोटे कस्बों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ा और बड़ी संख्या में लोग उन्हीं परिस्थितियों में रहने और काम करने को मज़बूर हुये. इस बीच अनेक प्रकार के अपराध घर करने लगे. जिनके सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष की अक्सर अवहेलना होती रही. वह आज भी जारी है.
000
किरण बेदी की जानदार नसीहत
इस सिलसिले में पुलिस की आला अफसर रहीं जानी मानी शख्सियत किरण बेदी का मंतव्य उन्हीं के शब्दों में पढ़िए – मेरा यह मानना है कि समय पर किए गए उपाय अपराधों को रोक सकते हैं, इसलिए मैं ऐसी खबरों से बहुत विचलित होती हूं. इनमें से बहुत से कांड रोके जा सकते थे यदि सामुदायिक भागीदारी पर आधारित अपराध-निरोधी उपाय दीर्घकालिक नीति के तौर पर अपनाए जाते.

अपराध रोकने का यह तरीका अनेक देशों में सफलता सहित आजमाया जा चुका है. इस पर खर्च भी बहुत कम आता है लेकिन यह सफल तभी हो सकता है यदि समय रहते प्रयास शुरू किए जाएं. जवानी की दहलीज पर पांव रख रहे बच्चों को यदि अपराध रोकने और उनके अंदर जिम्मेदारी का भाव जगाने की शिक्षा दी जाती है तो इससे अपराध की जड़ें काटने में सहायता मिलती है.

सवाल यह पैदा होता है कि कौन-सी आयु ऐसी शिक्षा शुरू करने के लिए बिल्कुल सही है. वैसे तो 25-30 वर्ष का व्यक्ति भी जवान होता है लेकिन हम निश्चय ही उस आयु तक इंतजार नहीं करेंगे. अनेक सामाजिक प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि कम से कम 12 वर्ष की आयु से ही बच्चों को अपराध निरोधी संस्कार दिए जाने की जरूरत है.

इसी उम्र में उनमें खुद के एवं व्यापक रूप में देश और समाज के बारे में जागरूकता भरने की जरूरत होती है लेकिन हम उन्हें उस आयु में प्रेरित करने की कोशिश करते हैं जब पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका होता है.
000
चोट के गहरे निशान अब और नहीं
वह घर, वह परिवार, वह समाज, गांव,शहर और प्रदेश-देश आदर्श कहलाते हैं, जहां न्यूनतम अपराध होते हैं. अपराध रोकने और अपराधियों को दंडि़त करने के सख्त कानून बने रहते हैं. किन्तु क्या यह अफ़सोस और चिता का विषय नहीं है कि हमारा पूरा देश अपराधियों के लिए अभयारण्य बना हुआ है. अपराधियों के मन में अपराध करने के लिए संकोच, झिझक, अपराधबोध और भय नहीं होता. अपराध को रोकने के लिए ढ़ेरों कानून हैं, किन्तु इससे बचने की गलियां भी बहुत है. दुष्यंतकुमार ने लिखा है – वह आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / माथे पे जिसके चोट का गहरा निशान है.

तरह-तरह के अपराध कर से बेखौफ घूम रहे लोगों ने आम ज़िंदगी में चोट के जो गहरे निशान पैदा किये हैं उनकी शिनाख्त और उन पर अंकुश वक्त की बहुत बड़ी मांग है. स्वच्छ भारत के साथ अपराध मुक्त भारत का निर्माण एक बड़ी चुनौती है.आइये हम सब मिलकर कुछ करें.

error: Content is protected !!