जोगी होने का मतलब-5
दिवाकर मुक्तिबोध
भाजपा के दिन
राकांपा की मौजूदगी और जोगी के प्रति आक्रोश का पूरा फायदा भाजपा को मिला. उस भाजपा को, जो चुनाव के पूर्व बिखरी हालत में थी और जिसे कमजोर बनाने में जोगी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. यह कहना उचित ही होगा कि जोगी के प्रति जनआक्रोश नकारात्मक वोटों की शक्ल में भाजपा की झोली में गिरा और उसकी झोली ऐसी भरी कि वह बहुमत के साथ सत्ता में आ गई. जोगी का अतिरेक आत्मविश्वास एवं उनके राजनीतिक कृत्य उन्हें तथा कांग्रेस को ले डूबे.
वे ऐसे डूबे कि नवम्बर 2008 में हुए राज्य विधानसभा के द्वितीय चुनाव के दौरान भी जोगी की वापसी का भय मतदाताओं को इस कदर सताया कि उन्होंने भाजपा को फिर सत्ता सौंप दी. चुनाव प्रचार के दौरान जोगी से यह गलती हो गई कि उन्होंने स्वयं को मुख्यमंत्री के रुप में प्रोजेक्ट किया, जिसमें हाईकमान की कोई राय नहीं थी. उनका ऐसा करना कांग्रेस को पुन: भारी पड़ा.
यह निश्चित है कि छत्तीसगढ़ की जनता जोगी को मुख्यमंत्री के रूप में देखने अभी भी तैयार नहीं है. उनके तीन वर्ष के शासन को लोग कुशासन के रुप में याद करते हैं जबकि सच्चाई ठीक विपरीत है लेकिन तानाशाह का लेबल उन पर कुछ इस तरह चिपक गया है कि वह उन्हें सत्ता के करीब कभी नहीं आने देगा. यह लेबल तभी उतर सकता है जब पार्टी चुनाव के समय उन्हें कोई जिम्मेदारी न सौंपे और उन्हें स्वयं को मुख्यमंत्री के रुप में पेश करने की इच्छा पर कड़ाई से अंकुश लगाए.
नवम्बर 2008 के चुनाव में यदि जोगी ने स्वयं को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया होता तो आज तस्वीर शायद दूसरी होती. जोगी को यह समझ लेना चाहिए कि लोग उनकी बुद्धिमता, कार्यकुशलता, दूरदृष्टि एवं विकासपरक सोच के कायल जरुर हैं किन्तु उन्हें पुन: शासनाध्यक्ष के रुप में स्वीकार करने तैयार नहीं हैं.
कुशल शासक
अजीत जोगी के शासनकाल की चर्चा करें तो नि:संदेह उन्हें एक अच्छा शासक माना जाएगा जिसने एक नए राज्य के लिए सबसे बड़ा काम उसे मजबूत आर्थिक आधार देकर किया. यदि आज छत्तीसगढ़ खुशहाली और विकास की ओर तेजी से अग्रसर है तो उसकी बड़ी वजह उसकी आर्थिक नींव है जिस पर अब समृद्धता की इमारत बुलंद हो रही है. आज रमन सरकार को विभिन्न केन्द्रीय योजनाओं के लिए जितना पैसा केन्द्र सरकार से मिल रहा है, वह जोगी के शासनकाल से कई गुना अधिक है.
नए राज्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक स्रोतों को विकसित करने की होती है. जोगी ने यह काम खूब अच्छी तरह किया. उन्होंने इस राज्य को करमुक्त करने का सपना देखा था. यदि देवभोग की हीरा खदानों से हीरे निकालने का काम शुरु हो गया होता तो नि:संदेह छत्तीसगढ़ देश का पहला ‘कर मुक्त’ राज्य बन जाता लेकिन यह सपना हकीकत से काफी दूर है क्योंकि देवभोग के मामले में रमन सरकार कोई तरजीह नहीं दे रही है. जाहिर ऐसा राजनीतिक कारणों से है.
मुख्यमंत्री के रुप में जोगी के खाते में कई उजली लकीरें है. इस बात में शक नहीं कि गरीब किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, हरिजनों तथा सर्वहारा वर्ग के इतर लोगों के प्रति उनके मन मंर बड़ा दर्द है. दर्द इतना है कि वह सवर्णों के प्रति आक्रोश में बदल गया है. वह उन्हें शोषक मानते हैं. उनके आक्रोश की अभिव्यक्ति उनके शासनकाल में दंडात्मक प्रतिक्रिया के रुप में स्पष्टत: प्रकट हुई. हालांकि वे यह दावा करते हैं कि उनके व्यक्तित्व के निर्माण में, उन्हें आई.ए.एस. से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में सवर्ण नेताओं का प्रमुख योगदान रहा है.
यह बात तो ठीक है कि विधान पुरुष स्व. मथुरा प्रसाद दुबे, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, विद्याचरण शुक्ल, राजीव गांधी एवं अन्य कई सवर्ण नेताओं ने उनका मार्ग प्रशस्त किया किन्तु यह बात भी स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री के रुप में जिस सामाजिक सद्भाव के विस्तार की उनसे उम्मीद की जा रही थी, वह पूरी नहीं हुई बल्कि जातीयता की भावना को उन्होंने उभारा एवं प्रश्रय दिया लेकिन सौभाग्य से छत्तीसगढ़ में अनेकानेक जातियों के बीच आपसी सद्भाव, विश्वास, स्नेह एवं सामंजस्य का तत्व इस कदर गहरा है कि कोई भी चोट उसे बिखेर नहीं सकती. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यहां इक्का-दुक्का घटनाओं को छोड़ कभी जातीय दंगे नहीं हुए. भविष्य में इसकी कोई आशंका भी नहीं है.
दूरगामी सोच
शासक के रुप में जोगी ने बड़ा काम किसानों के हित में उनके धान की विपुल खरीदी के रुप में किया. समर्थन मूल्य पर राज्य के किसानों से धान खरीदी का मतलब था सरकार पर राजस्व का भारी बोझ. पर जोगी ने किसानों को शोषकों के पंजे से मुक्त करने एवं उन्हें आर्थिक सम्बल प्रदान करने खर्च की चिंता नहीं की. किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य प्रदान करने राज्य सरकार की इस अभिनव पहल को जोगी के बाद रमन सरकार को भी जारी रखना पड़ा. रमन सरकार ने दो कदम आगे बढ़ते हुए दो रुपए प्रति किलो की दर से गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को 35 किलो चावल उपलब्ध करने का जो फैसला लिया, वह उनकी सत्ता में दोबारा वापसी का एक प्रमुख कारण बना. पिछले (2008) चुनाव में जोगी की ‘एकला चलो’ और भाजपा की दो रुपए किलो चावल नीति कांग्रेस की पराजय एवं भाजपा की सत्ता में पुन: वापसी की प्रमुख वजहें मानी जाती है.
बहरहाल सत्ताधीश के रुप में जोगी की कार्यशैली भले ही विवादास्पद रही हो पर इसमें संदेह नहीं कि उनके कुछ और फैसले भी अच्छी सोच के परिचायक थे. मसलन त्रिवर्षीय चिकित्सा पाठ्यक्रम, पीईटी,पीएमटी पद्धति को समाप्त कर प्रावीण्यता के आधार पर इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश, निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना, भिलाई में आईटी हब, सिंचाई के लिए जोगी डबरी जैसी योजनाएं, सड़कों का जाल, आधारभूत संरचनाएं जिसकी वजह से विभिन्न क्षेत्रों में विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ आदि-आदि.
हालांकि निजी विश्वविद्यालय की सोच पर सही ढंग से अमल नहीं हुआ और पीएमटी, पीईटी, चिकित्सा पाठ्यक्रम जैसे फैसलों की भी आलोचना हुई पर उनके ये फैसले दूरगामी हितों के संवर्धन की दृष्टि से थे.
छत्तीसगढ़ में ग्रामीण स्वास्थ्य की जैसी दुर्दशा है वह ठीक हो सकती थी बशर्ते त्रिवर्षीय चिकित्सा पाठ्यक्रम को जारी रखा जाता. इसी तरह पीईटी, पीएमटी प्रवेश परीक्षाएं समाप्त करने का फैसला, जिस पर अमल नहीं हो पाया यर्थाथपरक था. आज प्रदेश के 49 इंजीनियरिंग महाविद्यालयों में प्रवेश का यह आलम है कि सीटें रिक्त पड़ी हुई हैं और 12वीं बोर्ड की पूरक परीक्षाओं में उत्तीर्ण छात्रों को प्रवेश दिया जा रहा है.
उच्च तकनीकी शिक्षा की ऐसी दुर्दशा इसीलिए है क्योंकि शैक्षणिक स्तर की चिंता नहीं की गई. अपने शासन में जोगी ने प्रवेश परीक्षाएं खत्म करने का फैसला आदिवासी छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए लिया था.
जारी..
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.