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नंदिनी के संदेश

जे के कर
छत्तीसगढ़ के नंदिनी अहिरवारा में निर्माणाधीन जेके लक्ष्मी सीमेंट प्लांट में जो कुछ घटा, वह सकारात्मक न माना जाये तो भी यह किसी के लिये भी अप्रत्याशित नहीं था. इस फैक्ट्री की स्थापना के लिये अपनी जमीन और खेती गंवा चुके किसान पिछले 14 फरवरी से आंदोलन कर रहे थे. उसके बाद उनकी मांग मानने के बजाये जेके लक्ष्मी सीमेंट के सुरक्षाकर्मियों ने आंदोलनकारियों को पीटा, महिलाओं के साथ बदसलूकी की और उन्हें भी दौड़ा-दौड़ा कर मारा. इसके बाद उग्र भीड़ ने सीमेंट प्लांट के कुछ वाहनों में आग लगा दी, तोड़ फोड़ किया. अब पूरे इलाके में तनाव है और ताज़ा हिंसक घटनाओं पर बहस जारी है.

जब से सोवियत रुस तथा पूर्वी यूरोप में समाजवाद का पराभव हुआ एवं दुनिया एक ध्रुवीय हुई तभी से राजनीतिक एवं सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है. इस एक ध्रुवीय दुनिया में आम आदमी मानों निहत्था हो गया है. जनता द्वारा अपने हक में विकल्प चुनने का मार्ग बंद हो गया है, ऐसा शासक वर्ग द्वारा सोचा जा रहा है. इसी कारण दुनिया भर में प्राकृतिक संसाधनों की जम कर लूट मची है, चाहे वह जमीन के नीचे हो या ऊपर. यही वह मूल कारण है कि जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा है.

पिछले कुछ सालों में जाने कैसे ये धारणा प्रबल होती जा रही है कि मानव द्वारा मानव के शोषण को खत्म करने के सारे रास्ते और आंदोलन खत्म हो गये हैं. लेकिन ऐतिहासिक परिदृश्य में इसे देखें तो यह भरी गरमी की दोपहरी में चांदनी की शीतलता जैसी उम्मीद की तरह ही है. इसे साफ समझने की जरुरत है कि जहां पर भी अत्याचार होता है, उसका विरोध भी वहीं पर ही पहले होता है. विरोध करने का तरीका गलत या आत्मघाती हो सकता है लेकिन विरोध को गलत नही ठहराया जा सकता. नंदिनी अहिरवारा की घटना का वास्तविक कारण क्या है, आइये इस पर एक बार गौर फरमा लें.

ग्रामीणों से जमीन लेकर उस स्थान पर कारखाना बनाया गया है. अर्थात उनको रोज़गार देने वाले, रोटी मुहैय्या कराने वाले, उनके बच्चो को शिक्षा का खर्च दिलाने वाला स्थाई रोजगार के साधन पर अब दूसरे का कब्जा हो गया है. ऐसी हालात में यदि ग्रामीण स्थाई रोज़गार की मांग प्रबंधन से कर रहे थे तो इसमें गलत क्या है. गलती तो कारखाने के मालिक की है, जिन्होंने उनका स्थाई रोजगार छीना. यह अंतर्द्वंद होना स्वभाविक ही है. इसमें न्याय का पलड़ा ग्रामीणों के पक्ष में झुका हुआ है.

अब सवाल उठता है कि मांग पूरी न होने पर कारखाने की संपत्ति जला देना क्या उचित है. इसका जवाब हर कोई देगा कि यह एक गलत कदम है. फल नही देने से क्या पेड़ को ही काटा जाता है या इसका उपाय किया जाता है कि आगे से पेड़ फल दे; इस अंतर्द्वंद्व का हल ही समाज को आगे ले जाता है. जाहिर है, इसमें सब से बड़ी भूमिका सरकार की है. लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार एक बार फिर घटना के बाद जागी है और पूरे मामले की जांच की बात कही जा रही है.

हालांकि पिछले अनुभव बताते हैं कि इस तरह के जांच का कोई सकारात्मक हल नहीं निकलता. कितना अच्छा होता कि इस तरह के आंदोलन की शुरुवात में ही सरकार हस्तक्षेप करती. अगर ऐसा होता तो कम से कम गुरुवार की हिंसक घटना को रोका जा सकता था. अब तो जो कुछ होगा, वह केवल कागजी खानापूर्ति है और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उन्हीं किसान-मजदूरों को भुगतना पड़ेगा, जो पहले से ही फैक्ट्री की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिंसा के शिकार रहे हैं.

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