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क्रिकेट और देश का बंटवारा

रामचंद्र गुहा
बंबई तमाशे के एक हफ्ता बाद वार्षिक लाहौर त्रिकोणीय खेली जानी थी. इसमें भाग लेने वाली टीमें हिंदू, मुस्लिम और सिख थीं. परंतु भाग लेने वाली टीमों का ध्यान मार्च में होने वाले चुनावों ने फेर दिया था. प्रतिदिन बढ़ रहे चुनावों के बुखार के फलस्वरूप तेजी से बदतर हो रहे सांप्रदायिक हालात के चलते प्रतियोगिता अंतिम क्षणों में रद्द कर दी गई. जब चुनाव हुए तो मुस्लिम लीग ने पंजाब में अच्छा किया. पंजाब एक ऐसा प्रांत था जो लंबे समय से मांग में था परंतु पहले इसने कोई संकेत नहीं दिए थे. इसी तरह दूसरे राज्यों में लीग ने मुसलमानों के लिए आरक्षित अधिकतर सीटें जीत लीं.

मार्च और जून 1946 के बीच तीन सदस्यों के एक कैबिनेट मिशन ने भारत का दौरा किया ताकि स्वतंत्रता की शर्तों पर समझौता हो सके. जिन्ना ने पाकिस्तान के निर्माण पर जशेर दिया. कांग्रेस ने हमेशा की तरह इसका दृढ़तापूर्वक विरोध किया. इसी बीच वायसरॉय ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस-लीग की एक मिलीजुली अंतरिम सरकार की पेशकश की. कांग्रेस मंत्रियों ने पद की शपथ ली परंतु लीग के मनोनीत लोगों ने उनसे मिलने में देरी की. चुनावी सफलता ने जिन्ना को आवाज उठाने का साहस दिया. अपनी पूरी जिंदगी वह एक संविधानविद रहे थे जो कि अपने मुद्दे पर विधानसभा, कचहरी और प्रेस में बहस करने को तैयार थे. अब उन्होंने डायरेक्ट एक्शन डे की अपील की. उन्होंने अपने अनुयायियों से सार्वजनिक सभाएं, मार्च और हड़तालें करने को कहा. यह हिंसा के लिए एक खुला निमंत्रण था. जिन्ना के तयशुदा दिन यानी 16 अगस्त को पूरे भारत में दंगे भड़क गए. सबसे बुरी तरह से प्रभावित शहर कलकत्ता था जिसमें दंगों में 4000 लोग मारे गए.

1946 की गर्मियों में जबकि देश में सांप्रदायिक माहौल गरमाया हुआ था, तब एक भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड का दौरा कर रही थी. इसके कप्तान पटौदी के नवाब थे और इसके सदस्यों मे हिंदू, मुस्लिम और ईसाई शामिल थे. यह टीम टेस्ट मैचों में हरा दी गई परंतु इसने कांउटियों के खिलाफ खुद को बड़े प्रशंसनीय रूप से खुद किया. इसके कुछ क्रिकेटरों ने खुद को विश्व स्तर का साबित किया. विजय मर्चेंट ने सुंदर ढंग से बल्लेबाजी करते हुए दौरे पर 2000 से अधिक रन बनाए और वीनू मांकड़ ने 1000 रनों और 100 विकेटों के साथ ऑल राउंडर की दोहरी भूमिका अदा की. उनके भारत के लिए विदाई की संध्या को विदाई के दो संदेश प्राप्त हुए. श्रीमान स्टेफोर्ड क्रिप्स एक समाजवादी और व्यापार के बोर्ड के प्रधान थे. स्टेफोर्ड क्रिप्स स्वतंत्र भारत के प्रति आशावान थे. उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि दौरे पर बनाई गई दोस्ती उन दो देशों के बीच अच्छे संबंध बनाएगी जिसकी हम उम्मीद करते हैं और जिसके लिए हम आगे की सोच रखते हैं. एमसीसी के पूर्व अध्यक्ष श्रीमान पहलाम वार्नर ने अपने संदेश में उन पिछली गांठांे का ध्यान दिया गया जो भारत को साम्राज्य से बांधती थीं. उन्होंने क्रिकेटरों की उनके मोहक बर्ताव के लिए प्रशंसा की और फिर कहा कि अभी हुए युद्ध के दौरान आपके सैनिकों की शानदार बहादुरी को इंग्लैंड नहीं भूला है और संभवतः वह भूल भी नहीं पाए.

क्या 1946 में पंचकोणीय होगी? सितंबर के पहले हफ्ते में बीसीसीआई के नए निर्वाचित प्रधान एएस डिमेलो ने बंबई में एक भाषण दिया. इस भाषण में वे हमारे राष्ट्रीय जीवन पर क्रिकेट के एकीकरण के प्रभावों पर बोले कि कैसे खेल अलग-अलग समुदायों को स्वस्थ विवादरहित और मनोरंजक स्तर पर एक साथ ला रहा है. यह पंचकोणीय का बचाव जो छिपा हुआ भी नहीं था नहीं था और सचमुच द रेस्ट का यह निष्ठावान समर्थक राजाओं से उनके खिलाड़ियों को महोत्सव भेजने के लिए सम्मति मांग रहा था. जेसी मैत्र ने बोर्ड अध्यक्ष को फटकारा कि देश में बढ़ रहे सांप्रदायिक तनाव से उन्हें कोई मतलब नहीं है. वह सहज ढंग से सुझाव देता है कि खेल के मैदान पर सांप्रदायिक प्रतिद्वंद्विता सांप्रदायिक सौहार्द के प्रोत्साहन का श्रेष्ठ तरीका है. परंतु सितंबर के आखिरी हफ्ते मे बोर्ड बड़ौदा में मिला तो डीमेलो अब वह इंसान नहीं रहा था. उसके पंचकोणीय के प्रति विचार आकस्मिक बदलाव से गुजरे थे. कलकत्ता का वीभत्स जनसंहार अभी भी उसके दिमाग में ताजा था. वह अब मान चुका था कि देश के वर्तमान मिजाज में यह बोर्ड का कर्तव्य है कि वह पंचकोणीय प्रतियोगिता को इस वर्ष और भविष्य में कभी भी करने के औचित्य पर ध्यानपूर्वक विचार करे. दो महीने बाद इसकी अगली मीटिंग में बोर्ड ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके तहत ‘यह सांप्रदायिक क्रिकेट को मान्यता नहीं देता’ और यदि बीसीसीआई इस बात पर राजी होता है कि वह किसी भी सांप्रदायिक प्रतियोगिता को नहीं करवाता है तो बोर्ड सीसीआई को जोनल प्रतियोगिता का संचालन करने का अधिकार अध्यक्ष और सीसीआई के बीच शर्तों और नियमों पर परस्पर सहमति के आधार पर सौंप कर प्रसन्न होगा.’

आखिरकार पब को बंद करना था. फिर भी यह काफी समय से खुला था. 1946 के अंत तक पाकिस्तान का निर्माण तय था और महोत्सव अपने कट्टर समर्थकों को छोड़कर सभी के लिए परेशानी का कारण था. उन सर्दियों में पंचकोणीय की जगह ब्रेबाॅर्न स्टेडियम ने जोनल प्रतियोगिता की मेजबानी की, यह जेसी मैत्र द्वारा सांप्रदायिक क्रिकेट के बदले में गैर-सांप्रदायिक विकल्प के लिए चलाए गए. दो वर्षों के अभियान की पराकाष्ठा थी. पश्चिमी जोन में मुस्लिम इब्राहिम और ईसाई हजारे, पारसी मोदी और हिंदू मांकड़, अधिकारी और फाड़कर एक साथ खेल रहे थे, इसी प्रकार उत्तरी जोन भी सार्वभौमिक थी. फाइनल में पश्चिमी और उत्तरी जोन आमने-सामने थी. उत्तरी जोन के ग्यारह खिलाड़ियों में हिंदू अमरनाथ और किशनचंद, पारसी ईरानी और आधा दर्जन मुस्लिम क्रिकेटर शामिल थे. क्रिकेट और क्रिकेटरों की गुणवत्ता उच्च स्तर की थी परंतु भीड़ की प्रतिक्रिया उदासीन थी, क्योंकि कुछ हजार प्रशंसक ही मैच देखने के लिए आए थे.

टाइम्स ऑफ इंडिया में हार्टले ने इसकी एक विवेचना लिखी-तकरीबन 50 सालों चले आ रहे बंबई क्रिकेट महोत्सव का निलंबन एक बुरा प्रभाव है.’ उन्होंने जोड़ा कि पंचकोणीय की अनुपस्थिति खिलाड़ियों और दर्शकों के बीच समान रूप से खेल में रुचि को खत्म कर रही है. क्रॉनिकल में जेसी मैत्र ने इसके निहितार्थ पर रोष व्यक्त किया कि बंबई के पास क्रिकेट के लिए कोई प्यार या रुचि नहीं है और सिर्फ क्रिकेट के नाम पर सांप्रदायिकता का प्रदर्शन चाहता है. उन्होंने जोर दिया कि बंबई का अपने पसंदीदा खेल के लिए प्यार कहीं ज्यादा और उससे ज्यादा गहरा है. फिर भीड़ इतनी कम क्यों है? मैत्र ने कहा वर्तमान उत्तेजना से भरे राजनैतिक हालात के कारण वहां पर हिंदू और मुसलमानों के बीच एक उच्च तनाव की स्थिति के साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भविष्य की अनिश्चित्ता थी. प्रशंसकों का खेल में ध्यान नहीं है जो कई दिनों तक एक साथ घंटों की उपस्थिति की मांग करता है. अंत तक बंबई के ये दो समाचार पत्र इस पर झगड़ते रहने वाले थे कि क्रिकेट के खेल के शहर के लोगों के लिए क्या मायने हैं.

(पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित रामचंद्र गुहा की किताब विदेशी खेल अपने मैदान पर का एक संपादित अंश. प्रकाशक की अनुमति से प्रकाशित.)

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