इतिहास

प्रवीरचन्द्र भंजदेव: आजादी किसकी?

राजीव रंजन प्रसाद

प्रवीरचन्द्र भंजदेव: एक विवादित मसीहा
प्रवीरचन्द्र भंजदेव: हिंदी हैं हम

प्रवीर की लोकप्रियता और अपनी राजनीति प्रचारित न कर पाने की तत्कालीन राजनीति/व्यवस्था की यह कुण्ठा ही थी, जो समय-समय पर प्रवीर पर बेरहमी से निकाली जाती रही। 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी।

इस निजी त्रासदी को झेलते और अपनी ताकत के प्रदर्शन के लिये प्रवीर ने 1955 में “बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ” की स्थापना की थी। 1956 में उन्हें पागल घोषित कर राज्य द्वारा उपचार के लिये स्विट्जरलैंड भेजा गया, जहाँ आरोप निराधार पाये गये।

1957 में प्रवीर बस्तर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए; आमचुनाव के बाद भारी मतो से विजयी हो कर विधानसभा भी पहुँचे। 1959 को प्रवीर ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। मालिक मकबूजा की लूट आधुनिक बस्तर में हुए सबसे बडे भ्रष्टाचारों में से एक है, जिसकी बारीकियों को सबसे पहले उजागर तथा उसका विरोध भी प्रवीर ने ही किया था।

मालिक मकबूजा पर विमर्श सहज नहीं है; बस्तर के रियासती काल (1940 ई.) में कानून लागू हुआ था कि आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी नहीं खरीद सकता। इस कानून में लूट की गुंजाईश रहे इस लिये कई “अगर” और “मगर” लगा दिये गये थे। “अगर” किसी आदिवासी को शादी ब्याह जैसे जरूरी काम के लिये पैसा चाहिये तो वह अपनी जमीन गैर आदिवासी को बेच सकता है “मगर” उसे राज्य के सक्षम अधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त करनी होगी।

आजादी के बाद नयी सरकार ने नया कानून बनाया जिसे ‘सेंट्रल प्रॉविंसेज स्टेट्स लैंड़ एण्ड ट्रेनर ऑर्डर -1949’ कहा गया, जिसमें काश्तकारों को उनकी अधिग्रहीत भूमि पर अधिकार हस्तांतरित कर दिये गये। इस आदेश ने भी किसानों को उनकी भूमि पर लगे वृक्षो का स्वामित्व नहीं दिया था अत: कमोबेश यथास्थिति बनी रही, चूंकि पुराने कानून में भी पेड़ शासन की सम्पत्ति ही माने गये थे।

‘सी.पी एवं बरार’ से पृथक हो कर मध्यप्रदेश राज्य बनने के बाद नयी सरकार ने पुन: नयी सक्रियता दिखाई और ‘भूराजस्व संहिता कानून-1955’ के तहत भू-स्वामियों को उनकी भूमि पर खड़े वृक्षों पर भी स्वामित्व अर्थात मालिक-मकबूजा हक हासिल हो गया।

प्रवीर इस कानून के “अगर-मगर” को बारीकी से समझ गये थे। ऊपरी तौर पर देखने से यही लगता है कि सरकार ने आदिवासियों का हित किया है लेकिन यह अदूरदर्शी कानून सिद्ध होने लगा। सागवान के लुटेरे भारत के कोने कोने से बस्तर की ओर दौड़ पड़े। कौड़ियों के मोल सागवान के जंगल साफ होने लगे। कभी शराब की एक बोतल के दाम तो कभी पाँच से पंद्रह रुपये के बीच पेड़ और जमीनों के पट्टे बेचे जाते रहे।

महाराजा प्रवीर ने देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम कई पत्र लिखे। मालिक मकबूजा की लूट को वे उजागर करना चाहते थे किंतु परिणाम नहीं निकला। नेताओं की एक पूरी लॉबी तथा महत्वाकांक्षी नौकरशाह अपना हित साधने के लिये प्रवीर के विचलित मष्तिष्क और पागल होने का प्रचार करते रहे। मालिक मकबूजा की यह लूट लम्बे समय तक बस्तर में आदिवासी शोषण का घृणित इतिहास लिखती रही थी।

11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में “प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट” के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया।

राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। प्रवीर के छोटे भाई विजयचन्द्र भंजदेव को भूतपूर्व शासक होने के अधिकार दिये गये। इसके विरोध में लौहण्डीगुडा तथा सिरिसगुड़ा में आदिवासियों द्वारा व्यापक प्रदर्शन किया गया था। प्रवीर की गिरफ्तारी से बस्तर में शोक और आक्रोश का माहौल हो गया।

बस्तर की जनता को विजय चंद्र भंजदेव के लिये “महाराजा” की पदवी मान्य नहीं थी। आदिवासियों से उन्हें “सरकारी राजा” का व्यंग्य विशेषण अवश्य प्राप्त हुआ। जिला प्रशासन की जिद और प्रवीर पर हो रही ज्यादतियों का परिणाम 31.03.1961 का लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ था, जहाँ बीस हजार की संख्या में उपस्थित विरोध कर रहे आदिवासियों पर निर्ममता से गोली चलाई गयी थी। सोनधर, टांगरू, हडमा, अंतू, ठुरलू, रयतु, सुकदेव; ये कुछ नाम हैं जो लौहण्डीगुड़ा गोलीकाण्ड के शिकार बने।

प्रवीर ने शासन द्वारा स्वयं को निशाना बनाये जाने के सिलसिले का अधिक मुखरता से सामना किया। उन्होंने पुन: जनशक्ति के वास्तविक नायक के रूप में स्वयं को उभारा तथा 1 जुलाई 1961 को पाटन (राजस्थान) की राजकुमारी वेदवती से विवाह करने के पश्चात उस वर्ष के दशहरे को अपने शक्तिप्रदर्शन का माध्यम बना दिया।

वे प्रशासन की नाराजगी के बाद भी पुन: रथारूढ हुए तथा बस्तर के दशहरे के इतिहास में ऐसी विशाल भीड़ देखे जाने का पहले भी कोई उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ पूरे बस्तर से पाँच लाख आदिवासी एकत्रित हो गये थे।

फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। 6 मई 1963 को जगदलपुर की गलियों में चीखते चिल्लाते सैंकड़ों आदिवासी दौड़ते पाये गये। इसी शाम ‘कोर्ट्स ऑफ वार्ड्स’ के कार्यालय में बस्तर स्टेट के पुराने झंडे को लहरा दिया गया। 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी। प्रवीर अपने जनसमर्थन का समुचित प्रतिसार भी दे रहे थे तथा यह उनका ही जननायक तत्व था कि बस्तर जागृत नज़र आता था। प्रवीर ने अपने समय में बस्तर अंचल के वास्तविक मुद्धो को उठाया तथा उनकी पूरी राजनीति ही जनवादी रही है। प्रवीर क्षेत्र में आदिवासी और गैर-आदिवासी की खाई को पाटने में भी सक्रिय नज़र आते हैं तथा तत्कालीन सरकार की उन प्रत्येक नीतियों पर स्पष्ट विचार रखते है जिनका सम्बन्ध बस्तर से रहा है।

दण्डकारण्य प्रोजेक्ट जिसके तहत पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में बसाया गया, उसको तथा उसके सांस्कृतिक पक्ष को ले कर भी प्रवीर को गहरी आपत्तियाँ थीं। इस योजना के कार्यांवयन के समय भी वे रेल्वे और दूसरे सरकारी प्रोजेक्ट में स्थानीय आदिवासियों को लगाये जाने की जगह बाहर से कामगार, मजदूर, कुली, कारीगर, ठेकेदार आदि को लाने के विरुद्ध भी मुखर हुए। जिले की आदिवासी जनता उनकी एक आवाज़ पर एकत्रित होने अथवा बलिदान देने को तत्पर थी। प्रवीर में कुछ नैसर्गिक कमियाँ भी थीं; सितम्बर 1963, प्रवीर ने एक रिक्शा खींचने वाले युवक का हाँथ अपनी कटार से लहुलुहान कर दिया। युवक जिसका नाम मोतीलाल था उससे यही अपराध हुआ था कि दान लेने वालों की पंक्ति में वह स्वांग रच कर दूसरी बार घुस गया लेकिन प्रवीर द्वारा पहचान लिया गया। प्रवीर गिरफ्तार कर लिये गये और स्वाभाविक आलोचना के शिकार हुए। उन्हें बाद में जमानत पर रिहा किया गया। यद्यपि बाद में जबलपुर हाईकोर्ट ने इस मामले में प्रवीर को बरी कर दिया था।

प्रवीर की कहानी जारी रहेगी…

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