कलारचना

अनवर सुहैल की कवितायें

आतंकवादी
जाने क्यों आजकल
जब भी देखता / सुनता हूँ ख़बरें
तो धड़कते दिल से यही सुनना चाहता हूँ
न हो किसी आतंकी घटना में
किसी मुसलमान का हाथ…

अभी जांच कार्यवाही हो रही होती है
कि आनन्-फानन
टी वी करने लगता घोषणाएं
कि फलां ब्लास्ट के पीछे है
मुस्लिम आतंकवादी संगठन…

बड़ी शर्मिंदगी होती है
बड़ी तकलीफ होती है
कि मैं भी तो एक मुसलमान हूँ
कि मेरे जैसे
अमन-पसंद मुसलमानों के बारे में
काहे नहीं सोचते आतंकवादी…

ज़रूरी नही..
ज़रूरी नहीं
कि हम पीटें ढिंढोरा
कि हम अच्छे दोस्त हैं
कि हमें आपस में प्यार है
कि हम पडोसी भी हैं
कि हमारे साझा रस्मो-रिवाज़ हैं
कि हमारी मिली-जुली विरासतें हैं

कतई ज़रूरी नहीं है ये
कि हम दुनिया के सामने
अपने प्यार का इज़हार करें
क्योंकि जब दोस्ती टूटती है
जब प्यार नफरत में बदलता है
तब रिश्तों में खटास आती है
तब दिल टूट जाते हैं
तब अकबका जाते हैं वे लोग
जिनके दिल मोम हैं
जो सरल हैं
जो सहज हैं
सीधे-सादे हैं
जिन्हें नहीं आती
पोलिटिक्स की क-ख-ग….
थोड़ी सी भी
इत्ती सी भी….

कुछ तो सोचो
ऐसे नादानों के लिए…..

जालिमों होशियार!
पुराने लोग कहते हैं
भरता है पाप का घडा एक दिन ज़रूर
अन्याय का होता है अंत
और मजलूम जनता के दुःख-दर्द
दूर हो जाते हैं उस दिन…

पुराने लोग कहते हैं
इंसान को दुःख से नहीं चाहिए घबराना
कि सोना भी निखरता है आग में तप-कर
रंग लाती है हिना पत्थर में घिस जाने के बाद….

पुराने लोग कहते हैं
दुनिया की दुःख-तकलीफें सब्र के साथ सह जाना चाहिए
इससे परलोक संवारता है…

पुराने लोगों की बातें
समझ में नहीं आतीं नई पीढ़ी को अब
उनमें नहीं है चुपचाप
अत्याचार सहने का नपुंसक विवेक
यही कारण है
नई पीढ़ी ने गढ़ लिए नए मुहावरे
नए हथियार
जालिमों होशियार!

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