इस गुस्से का सबब क्या है ?
दिवाकर मुक्तिबोध
नक्सली हिंसा के खिलाफ हाल में छत्तीसगढ़ में एक ऐसी घटना देखने में आई जो कुछ अर्थों में सलवा जुडूम अभियान की याद को ताजा करती है. घटना है जशपुर जिले के गांव ठुठीअंबा की है. ठुठीअंबा के दर्जनों आदिवासियों ने नक्सलियों के एक गिरोह के खिलाफ हथियार उठा लिए. कुल्हाड़ी, फरसे, तीर-कमान जैसे हथियारों से लैस ये ग्रामीण क्षेत्र में सक्रिय 50 से अधिक नक्सलियों से मुकाबला करने जंगलों में घुस गए. इस टोली में बच्चों से लेकर 70-72 साल के वृद्ध भी शामिल थे जो माओवादियों की हिंसा, लूटपाट एवं हफ्तावसूली से परेशान थे. उनके धैर्य का बांध तब टूटा जब माओवादियों ने बहू-बेटियों की इज्जत पर हाथ डालना शुरू किया.
झारखंड सीमा से सटा ग्राम ठुठीअंबा आरा ग्राम पंचायत के अन्तर्गत आता है. नक्सलियों के खिलाफ मोर्चा खोलने ग्रामीणों ने बाकायदा रणनीति बनाई और 27 जनवरी 2014 को नक्सलियों की तलाश में वे जंगल में घुस गए. यह अलग बात है कि उनके हत्थे एक भी नक्सली नहीं चढ़ा और रात होते-होते ही वे अपने गांव इस संकल्प के साथ लौट गए कि नक्सली ज्यादतियों का विरोध जारी रखेंगे, भले ही जान क्यों न गंवानी पड़े. मारेंगे या मरेंगे की तर्ज पर ऐसा वाकया राज्य में पहले कभी देखने में नहीं आया. इस लिहाज से यह नक्सली इतिहास की अनोखी घटना है.
इन ग्रामीणों के गुस्से का इजहार ठीक उसी तरह है, जैसा जून 2005 में दक्षिण बस्तर के भैरमगढ़ ब्लाक के ग्राम अंबेली-करकेरी में नक्सलियों के आतंक के खिलाफ आदिवासी मुखर हुए थे और यहीं से विवादास्पद सलवा-जूडूम अभियान की शुरुआत हुई थी. सलवा जुडूम का प्रारंभ शांति के आदर्शवादी विचारों के साथ हुआ था जो कालांतर में राज्य सरकार के हस्तक्षेप और पुलिस की शह पर भटक गया और हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से दिया जाने लगा.
लेकिन जशपुर जिले में आदिवासियों का प्रतिरोध प्रतिशोध के रूप में सामने आया. इसे राज्य में किसी आंदोलन की शुरुआत नहीं मानी जानी चाहिए. उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया कह सकते हैं लेकिन यदि असंतोष की चिंगारी धधकती रही तो बहुत संभव है माओवादियों के खिलाफ एक नए प्रकार के संघर्ष की शुरुआत हो जाए. अगर ऐसा हुआ तो यह सलवा जुडूम से भी अधिक खतरनाक होगा.
यह तो एक घटना हुई. दूसरी घटना है- दक्षिण बस्तर में माओवादियों के खिलाफ पोस्टर युद्ध. जिला मुख्यालय दंतेवाड़ा के आसपास के गांवों में इन दिनों बड़ी संख्या में नक्सल विरोधी पोस्टर देखे गए हैं. मुख्य मार्गों के पेड़ों पर लगाए गए इन पोस्टरों के जरिए नक्सलियों द्वारा ध्वस्त किए गए सरकारी भवनों, पुल-पुलियों, सड़कों तथा खाली पड़े हाटबाजारों को तस्वीरों के माध्यम से दर्शाया गया है.
छत्तीसगढ़ी में लिखे गए इन पोस्टरों में बताया गया है कि वर्ष 2001 से 2013 तक माओवादियों ने 5969 लोगों की हत्या की. पोस्टरों में शासन की योजनाओं से होने वाले लाभ के साथ-साथ सीआरपीएफ के सिविल एक्शन कार्यक्रमों का भी बखान किया गया है. इस पोस्टर युद्ध की शुरुआत अ.भा. नक्सली विरोधी संगठन भोपाल म.प्र. ने की है. नक्सलियों के चेतावनी भरे पोस्टरों का जवाब पोस्टर से देने की इस मुहिम के पीछे जाहिर है जनता को नक्सलियों के विरोध में एकजुट करना है. क्या इस पोस्टरवार से जो पहले भी छेड़ा जा चुका है, कोई फर्क पडेÞगा? क्या बस्तर में नक्सली हिंसा थमेगी? या क्या आग और भड़केगी?
एक और घटना है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में समाजशास्त्र विभाग की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर का वह बयान, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ पुलिस नक्सलियों के नाम पर उन्हें फंसा सकती है. दरअसल नक्सलियों के लिए धन की वसूली करने वाले कांग्रेस नेता बद्री गावड़े के साथ नाम जोड़े जाने पर नंदिनी ने आपत्ति जताई है.
बयान में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ की सुरक्षा एजेंसियां एक कहानी गढ़ने में लगी हुई हैं कि नक्सलियों के कहने पर वे रावघाट का मुद्दा उठा रही है. नंदिनी सुंदर ने स्पष्ट किया है कि वे माओवादियों की विचारधारा तथा छत्तीसगढ़ या किसी और स्थान पर उनके द्वारा अपनाई जा रही रणनीति का समर्थन नहीं करती.
उपरोक्त तीनों घटनाओं का जिक्र महज इसलिए ताकि यह जाना जा सके कि छत्तीसगढ़ में नक्सली मुद्दे पर इन दिनों किस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं.
नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों का शस्त्र उठाना गैरकानूनी घटना है. सवाल पुलिस की भूमिका पर भी है, जो कोई नई बात नहीं है. फर्जी मुठभेड़ों की अनेक घटनाएं हैं जिसमें नक्सली होने के शक पर गरीब आदिवासी मारे गए हैं. लेकिन इन सबके बावजूद यह तथ्य है कि सीआरपीएफ सहित केन्द्र द्वारा भेजी गई बटालियन एवं पुलिस के संयुक्त अभियान से नक्सली पीछे हटने मजबूर हुए हैं.
हालांकि यह दावा किया जाता है कि नक्सलियों की खामोशी आने वाले तूफान का संकेत है. बहरहाल पुलिस को बड़ी कामयाबी नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को ध्वस्त करने में मिली है. शीर्ष नक्सली नेता गुड़सा उसेंडी ने भले ही आंध्र पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया हो, पर इससे राज्य की पुलिस ने राहत की सांस ली है. लिहाजा कुछ विशिष्ट सफलताओं के मद्देनजर क्या यह माना जाए कि बस्तर से नक्सली खत्म हो जाएंगे जैसा कि विश्वास मुख्यमंत्री रमन सिंह ने बारम्बार व्यक्त किया है? क्या बस्तर को नक्सली हिंसा एवं आतंक से छुटकारा मिलेगा? नक्सल मुद्दे पर क्या वह सही अर्थों में बौद्धिक, सामाजिक एवं राजनीतिक अन्तरसंबंधों को भेद पा रही है?
पुलिस ने एक बड़ी सफलता के रूप में कांग्रेस के बद्री गावड़े, भाजपा के धर्मेंद्र चोपड़ा तथा अन्य को हाल ही में गिरफ्तार किया है. उनसे पूछताछ के बाद पुलिस का दावा है कि उनके संबंध विशिष्ट सामाजिक एवं राजनीतिक हैसियत रखने वाले लोगों के साथ हैं जिनके तार राज्य के अलावा दिल्ली से भी जुड़े हुए हैं.
समाजविज्ञानी नंदिनी सुंदर का नाम भी इसी सिलसिले में आया है. एडीजी इंटेलिजेंस मुकेश गुप्ता का दावा है कि छत्तीसगढ़ की लाइफलाइन कहलाने वाले रावघाट रेल प्रोजेक्ट के खिलाफ कांग्रेस नेता बद्री गावड़े साजिश कर रहा था. उसने दिल्ली विवि की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर तथा कई अन्य स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोगों को माओवादियों से मिलाने का भी काम किया था. पुलिस का यह दावा यदि सही है तो माओवादियों की पहुंच का पता चलता है.
डॉ.विनायक सेन के बाद अरुंधती राय, नंदिनी सुंदर जैसे कई और नाम हैं जिन पर पुलिस का फंदा कसने बेताब है. इसमें दो राय नहीं कि शहरी नेटवर्क माओवादियों की लाइफलाइन है. यदि पुलिस इस नेटवर्क को पूर्णत: ध्वस्त करने में सफल रहती है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि छत्तीसगढ़ से माओवादियों को पलायन करना पड़ेगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या माओवादी विचारों का समर्थन करना या माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखना कोई अपराध है?
दरअसल पुलिस हर उस व्यक्ति को शक की निगाहों से देखती है जो इस विचारधारा का समर्थक है. ऐसी स्थिति में क्या वह उन हस्तियों को भी इस दायरे में लेगी जो नक्सलियों एवं राज्य सरकार के बीच अपहृतों को छुड़ाने के मामले में मध्यस्थ की भूमिका निभाते रहे हैं और जो घोषित रूप से माओवाद समर्थक हैं?
दरअसल नक्सली मोर्चे पर अजीबोगरीब स्थिति है. एक तरफ पुलिस की तेज रफ्तार कार्रवाई, दूसरी ओर नक्सलियों का रक्षात्मक मुद्रा में आना तथा तीसरा आदिवासियों का नक्सलियों के खिलाफ एकजुट होना. क्या यह माना जाए कि जशपुर के आदिवासियों को हिंसक कार्रवाई के लिए उकसाने के पीछे पुलिस की कोई भूमिका है? वर्ना सैकड़ों आदिवासियों का एकत्र होना और नक्सलियों को तलाशने जंगल में घुसना और पुलिस को भनक तक न लगना संभव है? क्या सलवा जुडूम एक नए रूप में सामने आ रहा है?
जिस जुडूम को सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को अपने आदेश में अवैध एवं असंवैधानिक करार देकर बंद करवाया था, वह ढंके-छिपे रूप में, पुलिस की शह पर पुन: शुरू हो रहा है? क्या माओवादियों एवं उनके समर्थकों, सहानुभूति रखने वालों को चारों तरफ से घेरने की नई रणनीति है? क्या पुलिस नक्सलियों के उच्चस्तरीय राजनीतिक सम्पर्कों पर हाथ डालने का साहस दिखा सकती है. यदि डॉ.विनायक सेन, अरुंधती राय या नंदिनी सुंदर जैसे बुद्धिजीवी सवालों के घेरे में हैं तो पुलिस भी कैसे बच सकती है? राज्य में मानवाधिकार हनन के सैकड़ों मामले इसके गवाह हैं. सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार को कैसे भूल सकते हैं?
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.