कला

महेश वर्मा की कविता

प्रेमी जमीन से

प्रेमी ज़मीन से कुछ भी उठा सकते हैं, एक बटन,
कंघी का टुकड़ा या चमकीली पन्नी. अचेतन में
वे इन सबके गैर पारंपरिक उपयोगों के बारे में सोचते हों.

वे उठा सकते हैं एक टूटी हुई सीप का टुकड़ा और समुद्र
एक टुकड़ा उनकी उँगलियों के बीच आ जाता है उनकी उदास
आँखों में हैरत से देखता.

चूड़ी का एक टुकड़ा उठाते वे वास्तव में इन्द्रधनुष
का लाल रंग ज़मीन से उठा रहे थे कि आज
दोपहर भी सर्वांग सुन्दर दिखाई पड़े आकाश का इन्द्रधनुष .

एक रंगीन कागज उनकी उँगलियों के बीच कभी जानवर कभी
बन्दूक कभी नाव बनता, फिर कागज हो जाता किसी को मालूम नहीं
यह खेल ही बना रहा आकाश , जल और भविष्य इस संसार का .

इसी धूल से उन्हें बनाना है भविष्य के पर्वतों का शिल्प
धूल जो उड़ा कर देख रहे हैं हवा का रुख इतनी देर से.

धातु का एक अमूर्त टुकड़ा ज़मीन से उठाएंगे एक रोज
और किसी के हाथ देकर थमा देंगे सम्राट होने का अभिशाप .

प्रतिदिन

यातना उसके चेहरे से पुंछी नहीं है, सोती हुई
स्त्री के सपनों में आगामी यातनाओं के चलचित्र हैं
पीठ की ओर पुरुष पराजय
ओढकर लेटा है अपने सीने तक.

कहीं बाहर से आता है वह प्रकाश
जो एक दायरा बनाता है इसी स्त्री पीठ पर.

पुरुष हर रात यह जादू देखता है अपने स्पर्श में

दो उजले पंख,
कंधे और पीठ के बीच की सुन्दर जगह से बाहर आते इस प्रकट संसार में.
ठीक बगल में जो सो रही है स्त्री यह उसी के बारे में है.

पुरुष बाहर प्रकाश देखता है जो यह दायरा बनाता है. अब तो अभ्यास से
भी यह जानता है कि ऐसा करते ही गायब हो जायेंगे
हौले से छूता है सफ़ेद पंख.

करवट बदल कर
स्त्री अन्धकार की ओर अपनी पीठ कर लेती है.

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