‘आम आदमी’ केजरीवाल के लिये चुनौती
नई दिल्ली | समाचार डेस्क: कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाने के अरविंद केजरीवाल के फैसले पर विभिन्न तरह की राय हवा में है. कहा जा रहा है कि बाहरी समर्थन को स्वीकार कर वे फंस चुके हैं और थोड़े ही समय में उनका भेद उजागर हो जाएगा क्योंकि ‘लोक लुभावन’ वादे को पूरा करना उनके लिए असंभव होगा.
कांग्रेस के नेता इस गुणाभाग में जुट गए हैं कि बिजली का बिल आधा करना असंभव है और यह कि दिल्ली जल बोर्ड के कपबोर्ड में कोई ढांचा नहीं है या फिर केजरीवाल चाहते हैं तो जांच भी करा लें.
यह जाल हो सकता है, लेकिन किसके लिए? दिल्ली में 1993 में विधानसभा के गठन के बाद से दिल्ली की राजनीति में ऐसा कोई राजनेता नहीं उभरकर सामने आया जिसने कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसी दो मजबूत राजनीतिक धाराओं को एक ही झटके में धराशायी कर दिया हो. केजरीवाल ने यह करिश्मा कर दिखाया.
जहां कांग्रेस का एक धड़ा आम आदमी पार्टी को समर्थन देने के फैसले का खुलकर विरोध कर रहा है, वहीं भाजपा के भीतर इस बात पर असंतोष है कि हर्षवर्धन ने सरकार बनाने का मौका हाथ से जाने क्यों दिया. दिल्ली भाजपा के कई नेताओं का मानना है कि हर्षवर्धन को केजरीवाल ने बेवकूफ बना दिया. एक नेता ने सवाल किया, “हमारे पास सबसे अधिक सीटें हैं और हम फिर भी विपक्ष में बैठेंगे. यह किस तरह की राजनीति है?”
समर्थन देने की घोषणा करने के बाद कांग्रेस ने पलटी मारते हुए ‘बिना शर्त समर्थन’ की जगह ‘मुद्दों पर समर्थन’ देने की बात कर अपनी स्थिति बचाने का प्रयास किया.
कांग्रेस के एक कद्दावर नेता ने हाल ही में स्वीकार किया कि केजरीवाल ‘हमलोगों से कहीं ज्यादा शातिर राजनेता हैं.’ यह केजरीवाल की प्रशंसा है.
केजरीवाल ने इस बात का जवाब देते हुए कहा, “वे सही कह रहे हैं. वे राजनेता नहीं हैं, बल्कि ‘दलाल’ हैं. दिवंगत लाल बहादुर शास्त्री एक राजनेता थे. और हमलोग उनके पदचिह्नें का अनुसरण कर रहे हैं.”
राजनीतिक पंडितों का आकलन है कि आप को समर्थन देना कांग्रेस की चालाकी है. पार्टी दिल्ली में कुछ ही महीनों बाद एक और चुनाव टालना चाहती है, ताकि लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा के चुनाव नहीं हों, वरना भाजपा उसमें स्पष्ट विजेता हो सकती है.
दिल्ली में केंद्र के अधीन चीजों को लेकर या केंद्रीय कोष की उपलब्धता को लेकर जो समस्याएं केजरीवाल के सामने होंगी वह तो अलग है, इससे अलग उनकी सबसे बड़ी समस्या आम आदमी के मुद्दे होंगे. यही उनकी असली चुनौती होगी.
तब क्या होगा जब कोई पार्टी का समर्थक उनसे सरकारी ठेका या बिना बारी के प्रोन्नति के लिए समर्थन मांगने पहुंचेगा?
या फिर यह कि क्या केजरीवाल दिल्ली के व्यापारियों से ईमानदारी से विक्री कर या वैट जमा करने के लिए कहेंगे ताकि सरकार के पास अपने वादे पूरे करने के लिए पर्याप्त धन जमा हो जाए. और यदि व्यापारी नहीं मानें तो केजरीवाल उनके खातों की जांच करने की धमकी देंगे?
कहा जा रहा है कि अरविंद केजरीवाल कुएं और खाई के बीच फंस गए हैं.