क्यों हारे तुम? क्यों जीते तुम?
कनक तिवारी
चार राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ध्वस्त हो गई है. भारतीय जनता पार्टी अपेक्षा और पूर्वानुमान के सर्वे के अनुसार सफल रही है. यह अलबत्ता हुआ है कि कांग्रेस ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पहले से ज़्यादा मेहनत की है. उसकी छत्तीसगढ़ में सीटें भी बढ़ी हैं. अब भी बहुत कुछ दुर्भाग्यजनक है जो इस सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी को लगातार सत्ता से बेदखल करने की संभावनाएं बुनता रहेगा.
राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की पराजय वक्त की दीवार पर पहले से ही साफ पढ़ी जा सकती थी. इस इबारत को मिटाने के लिए पार्टी ने वह जज़्बा नहीं दिखाया जो एक संघर्षधर्मा पार्टी का तेवर होता है. दिल्ली में पार्टी ने शीला दीक्षित को अकेला छोड़ दिया जो उनके साथ सरासर अन्याय था. अधिकांश मतदाताओं ने स्वीकार किया था कि शीला दीक्षित ने प्रदेश का काफी विकास किया है. उनका व्यवहार, आचरण और व्यक्तित्व सामान्य तौर पर मुख्यमंत्री पद की गरिमा के अनुकूल रहा है. फिर भी उन्हें हारना पड़ा.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने अपराधी मंत्रियों को सम्हाल ही नहीं पा रहे थे. आखिर के चार महीनों में उन्होंने कड़ी मेहनत की, लेकिन मतदाताओं ने कहा बहुत देर हो चुकी है. मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चैहान के एकछत्र खिलंदड़े नेतृत्व के मुकाबले कांग्रेस के पास गंभीर प्रकृति के चार पांच राष्ट्रीय स्तर के नेता आपस में परम्परा के अनुसार लड़ते ज़्यादा रहे और शिवराज सिंह को वॉकओवर देते रहे.
छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की सबसे अच्छी स्थिति बनी. उसके कई कारण हैं. पार्टी ने अपनी समझ से यथासंभव बेहतर उम्मीदवारों को टिकट दिए. कथित राहुल फॉर्मूला अपवादों के साथ लागू किया गया. क्षेत्रीय गुटों को समायोजित किया गया. कांग्रेस के नेता प्रकट तौर पर एक दूसरे की टांग खींचते नज़र नहीं आए. अपनों की दस पांच सीटों को हरा देना अजीत जोगी के बाएं हाथ का खेल रहा है.
इस बार अफवाह थी कि कांग्रेस उच्च कमान की समझाइश के चलते जोगी ने भरपूर सहयोग देने का क्रियान्वयन दिखाया. उनकी राजनीतिक महारत को बौना करना प्रतिद्वन्द्वियों के लिए संभव नहीं है. असंतोष कांग्रेस की कुछ टिकटों पर रहा है. दुर्ग सीट पर पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के कारण उनके बेटे को तीन बार हारने के बाद भी टिकट दिया गया.
मानपुर मोहला के कांग्रेसी विधायक शिवराज उसारे का टिकट काटकर वोरा के कारण लगभग अनजान महिला तेजकुंवर नेताम को उम्मीदवार बनाया. यद्यपि ये दोनों जीत गए. दूसरी पार्टियों से कांग्रेस में आयातित कुछ नेता भी वोरा के वफादार हैं, यद्यपि उनकी जमीनी पकड़ संदेहास्पद है.
गुजरात के नरेन्द्र मोदी की तरह मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चैहान और छत्तीसगढ़ के डॉ. रमन सिंह में मुख्यमंत्रित्व का किरदार है. इन नेताओं को भाजपा ने पिछली बार भी चुनाव के पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. इससे वोट प्रतिशत में इज़ाफा हुआ. इन चतुर मुख्यमंत्रियों ने कोई विकल्प उभरने ही नहीं दिया है. सियासत में यह गुण आसान नहीं है.
यदि बहुत से मंत्री और विधायक भाजपा का नाम खराब नहीं करते तो डॉ. रमन सिंह के रहते पार्टी की सीटें और ज़्यादा बढ़ सकती थीं. कुछ एक जगहों पर विधायकों तथा पूर्व विधायकों की टिकटें काटे जाने से स्थानीय असंतोष उभरा लेकिन उसका पार्टी के अंतिम परिणाम पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा.
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 39 विधायकों में चार के टिकट काटे. बचे 35 विधायकों में 27 हार गए. कांग्रेस ने भाजपाई विधायकों और मंत्रियों सहित उसके स्थानीय कार्यकर्ताओं तक पर सरकारी खजाना लूटने का कारगर आरोप लगाया था. यह जन अफवाह क्यों नहीं सुनी कि उसके कई विधायक नेता सत्ता प्रतिष्ठान से माहवारी वसूली करते हैं.
प्रतिपक्ष के विधायकों के प्रति एंटी इन्कम्बेन्सी अर्थात सत्ताविमुखता का अनोखा उदाहरण छत्तीसगढ़ के मतदाताओं ने प्रस्तुत किया है. बस्तर की जीरम घाटी में नक्सलियों द्वारा कई कांग्रेसी नेताओं, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों के नरसंहार को कांग्रेस ने लोकप्रियता का मुद्दा बनाने की कोशिश की. पार्टी यह क्रूर मनोवैज्ञानिक सच भूल गई कि इन्दिरा गांधी की हत्या के अपवाद को छोड़कर राजीव गांधी तक की हत्या के बाद बचेखुचे चुनाव में उस परिमाण में जनसहानुभूति वोटों के रूप में तब्दील नहीं हुई जिसकी जनअपेक्षा थी.
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपनी लोकप्रियता के चलते मारे गए पूर्व विधायक उदय मुदलियार की पत्नी अलका के मुकाबले चुनाव लड़ा. उन्होंने इस मिथक को तोड़ दिया कि राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से कोई भी उम्मीदवार लगातार दो बार नहीं जीत सकता. विद्याचरण शुक्ल जैसे कद्दावर नेता का उनके ही रायपुर स्थित फॉर्म हाउस में दाह संस्कार हुआ. उसमें हज़ारों लोगों की गमगीन उपस्थिति थी. फिर भी उस इलाके के लोकप्रिय सिख कांग्रेस विधायक कुलदीप जुनेजा अपनी पुरानी स्कूटर पर बैठकर वर्षों से घर घर दस्तक देने के बावजूद भाजपा के श्रीचंद सुंदरानी से एक वर्ग की दूसरे वर्ग की एकता के भारी होने के कारण हार गए.
केवल महेन्द्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा सहानुभूति के आधार पर जीत सकीं. नन्दकुमार पटेल के पुत्र उमेश पटेल वैसे भी अपने यशस्वी अविजित पिता की लोकप्रियता के आधार पर ही जीत सकते थे.
विधानसभा चुनाव के कई खुदरा फलितार्थ भी हैं. कांग्रेस के दो मुस्लिम विधायक मोहम्मद अकबर और बदरुद्दीन कुरैशी सक्रियता के बावजूद खेत रहे. कई चुनावों में लगातार अविजित नेतापक्ष रविन्द्र चैबे और सबसे वरिष्ठ विधायक रामपुकार सिंह को इस बार पराजय का घूंट पीना पड़ा.
भाजपा में व्यवसायी विधायकों ने शिकंजा पहले से ज़्यादा कस लिया है. धाकड़ विधायक बृजमोहन अग्रवाल सहित अमर अग्रवाल, रोशनलाल अग्रवाल, संतोष बाफना, राजेश मूणत, गौरीशंकर अग्रवाल, लाभचंद बाफना, विद्यारतन भसीन, श्रीचंद सुंदरानी और शिवरतन शर्मा वगैरह इसी कुनबे के कहे जा सकते हैं. भाजपा विद्रोही डॉ. विमल चोपड़ा ने महासमुंद सीट जीतकर अपनी लगातार लोकप्रियता सिद्ध की है. मोतीलाल वोरा जैसे शीर्ष कांग्रेसी नेता ने अपने पुत्र की विजय के लिए खुद को सुरक्षित रखा. इसके बरक्स पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कई क्षेत्रों में धुआंधार प्रचार किया.
इसमें भी कोई शक नहीं कि कांग्रेस ने जितना कठिन संघर्ष छत्तीसगढ़ में किया, उतना वह राजस्थान, मध्यप्रदेश और दिल्ली में नहीं कर पाई. पार्टी की हार भूगोल के भी कारण उतनी गैरसम्मानजनक नहीं हुई. केन्द्र के कुशासन को दिल्ली सहित भोपाल और जयपुर में ज़्यादा धमक के साथ महसूस किया गया. रायपुर भूगोल के लिहाज़ से काफी दूर होने से कांग्रेस की इज़्जत बचा गया.
राहुल गांधी के दो मनोनीत उम्मीदवार व्यवसायी प्रतिनिधियों से हार गए. उससे कांग्रेस के इस दावे को जांचना होगा कि सर्वहारा के कैसे प्रतिनिधि चुने जाएं जो सत्ता प्रतिष्ठान के अधिनायकों से लड़ सकें. कथित राहुल फॉर्मूला कई मुद्दों पर क्षेत्रीय नेताओं द्वारा असफल भी कर दिया गया. कांग्रेस के कई पूंजीपति नेताओं और रियल इस्टेट के मालिकों के प्रतिनिधि आदिवासी इलाकों में भी पसरे हुए हैं. उनके नुमाइंदे टिकट पाकर जिताए भी जाते हैं. इसलिए कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को अपने सामाजिक रसायनशास्त्र की परिभाषा गढ़ने में नए सिरे से सावधानियां बरतनी होंगी.
भाजपा में भी सब कुछ हरा हरा नहीं है. उसके कटु भाषी मंत्री ननकीराम कंवर, रामविचार नेताम और चंद्रशेखर साहू तथा निष्क्रिय मंत्री हेमचंद यादव और लता उसेंडी हारे हैं. पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे और पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर की वापसी से नए सत्ता समीकरण खुलेंगे. दुर्ग की सांसद तथा महिला मोर्चे की राष्ट्रीय अध्यक्ष सरोज पांडे महिला विधायकों की संख्या में इजाफा करने के लिए कुछ खास नहीं कर पाईं.
प्रेमप्रकाश पांडे की मजबूती से दुर्ग संभाग में भाजपा की अंतर्कलह का अगला दृश्य घटना प्रधान होना चाहिए. कई लड़ाइयां दिलचस्प हुईं. एक बहुसंख्यक वर्ग की महिला उम्मीदवार ने दूसरे बहुसंख्यक वर्ग की कांग्रेसी महिला को हराया. एक करोड़पति उद्यमी ने कांग्रेस के दूसरे करोड़पति उद्यमी को धराशायी कर दिया. कांग्रेस के सक्रिय और मितभाषी सत्यनारायण शर्मा को जातिवाद के आधार पर पिछले चुनाव में भाजपा के नंदे साहू ने कथित तौर पर धूल चटाई थी. इस बार शर्मा ने मुंह, नाक और कान पर खादी का अगौंछा लपेटकर धूल चाटने से इंकार कर दिया और बहुसंख्यकता को वोटों की न्यूनता में बदल दिया.
एक दिलचस्प कारनामा यह भी हुआ कि भाजपा ने पिछले दो चुनावों की तरह इस बार भी जनता में जोगी फोबिया पैदा करने की कोशिश की. यहां तक कि नरेन्द्र मोदी ने भी अपने भाषणों मे जिक्र किया कि यदि कांग्रेस आई, तो वह जोगी को ही मुख्यमंत्री बनाएगी. दिलचस्प यह भी हुआ कि मोतीलाल वोरा, अजीत जोगी, बी.के. हरिप्रसाद, चरणदास महंत, भूपेश बघेल, रवीन्द्र चैबे वगैरह नेताओं के साथ छोटे जोगी ने भी उनकी गणितीय मशीन लेकर राहुल गांधी को यह भविष्य पाठ बताया कि कांग्रेस सत्ता में वापसी कर रही है. छाया मंत्रिमंडल भी गठित हो गया. अंकगणित राजनीति की बीजगणित पर इस कदर भारी पड़ी कि पिछले चुनाव के परिणामों को मानों मतदाताओं ने ‘तथास्तु‘ कह दिया हो.
छत्तीसगढ़ के कई वरिष्ठ नौकरशाह प्रकट तौर पर राज्य के कुछ मंत्रियों के खिलाफ आरोप लगाते पाए गए. नौकरशाही का एक वर्ग सत्ता परिवर्तन की उम्मीद में कांग्रेस नेताओं के संपर्क में रहा. इसके बरक्स मुख्यमंत्री के कुछ चुनिंदा विश्वासपात्र नौकरशाहों ने उड़ती चिड़िया के पर गिनने में महारत हासिल कर रखी है. वे आखिरी वक्त तक उम्मीदजदा रहे, यद्यपि उनकी पेशानियों पर बल भी पड़ते रहे.
मुख्यमंत्री को सतत अविजित मानना तार्किक नहीं होगा. फिर भी उन जैसे राजनीतिज्ञों ने मितभाषिता, गंभीरता और सहनशीलता को अपना विजयी हथियार बनाकर प्रयोग करने की आदत डाल ली है. 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेताओं की अनावश्यक आक्रामक, दंभकारी और चुनौतीपूर्ण भाषा ने सोनिया गांधी के व्यक्तिव की बखिया उधेड़ी थी. वही उनकी पराजय का कारण हुआ. यह शैली भाजपा फिर अपना रही है. शिवराज और रमन सिंह जैसे चतुर मुख्यमंत्री इस आक्रामकता के अपवाद हैं.