बुलंदशहर : कंकाल का हथियार बन जाना
अनिल चमड़िया
उसी उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेता योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं और वहां 3 दिसंबर 2018 को भीड़ द्वार हत्या और हमले का सिलसिला इस रुप मॆं सामने आया है कि बुलंदशहर में एक इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की भीड़ ने हत्या कर दी.
इस हत्या और हमले की अगुवाई 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के खिलाफ हमला करने वाली भीड़ की अगुवाई करने वाली विचारधारा के ही लोग थे.
इन वर्षों में हमले और हत्या करने वाली भीड़ का विस्तार किस रुप में हुआ है, इससे समझा जा सकता है.
बुलंदशहर की घटना और उसका मकसद
कंकाल जब राजनीतिक इरादों को पुरा करने का हथियार बन जाए तो समाज को कंकालों में बदलने का सिलसिला नहीं रोका जा सकता है.
बुलंदशहर में इंस्पेक्टर की हत्या तक पहुंचना वाली घटना की शुरुआत खेतों में गायों के कंकाल मिलने के बाद ही होती है. कंकाल मिलने के बाद खेतों में वह भीड़ तत्काल जमा होती है, जिसके सदस्य हिन्दू होने का दावा करते हैं.
उस हिन्दू भीड़ को हिन्दुत्व में बदलने की तत्काल ही योजना झटपट इस तरह बनी जैसे कोई पहले से तयशुदा हो. खेतों में जमा भीड़ हिन्दुत्व के रंग में आ गई इसकी खबर जब मुसलमानों को लगी तो वे भयवश गांव छोड़ भागने की तैयारी में लग गए तो दूसरी तरफ हत्य़ा के बाद गांव के हिन्दू सदस्य भी डर से भाग गए.
खेतों में जमा भीड़ की अगुवाई हिन्दुत्वादी विचारधारा के वे लोग करने लगे, जो कि बजरंग दल व इस तरह के दर्जनों संगठनों कंकालों के जरिये सामाजिक सद्भाव को तार तार करने में सक्रिय हैं.
भीड़ को पहले थाने की तरफ ले जाय़ा गया और उस भीड़ के पास हमले के लिए हथियार भी थे. इस भीड़ ने पुलिस वालों पर हमला कर दिया.
सुबोध कुमार सिंह ने भीड़ को समझाने बुझाने का जो फैसला किया, वे उस भीड़ की साजिश को समझने में नाकाम रहें.
सुबोध कुमार सिंह बिहार विधान सभा के पिछले चुनाव के पहले 2015 मॆं उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक के घर पर गाय के मांस होने का आरोप लगाकर भीड़ द्वारा उनकी हत्या के मामले की जांच कर रहे थे. भीड़ का हिस्सा युवक सुमित भी गोली का शिकार हुआ, जिसकी मेरठ के अस्पताल में मौत हो गई.
किसी साम्प्रदायिक हमले का कोई भूगोल हो सकता है लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा का कोई भूगोल नहीं होता. किसी एक साम्प्रदायिक हमले की आग पूरे देश में तेजी से फैल सकती है खासतौर से तब तो और जब उसे फैलाने वाली मशीनरी तैयार बैठी हो.
भागवा वस्त्र में लिपटे मुख्यमंत्री को जब देश में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनावों के लिए भाषण देने के लिए भेजा जा रहा है तो इसका मकसद साफ है कि उनके हावभाव और उनके शासन के फैसलों के संदेशों को मतदाताओं के लिए हितकर माना जा रहा है.
ठीक उसी तरह से बुलंदशहर में साम्प्रदायिक माहौल का मतलब यह निकाला जा सकता है कि उसका असर पांचों विधानसभाओं के मतदाताओं को भी प्रभावित करने का हो.क्योंकि संसदीय व्यवस्था में चुनाव को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है.
उनके लिए तो खासतौर से जिन्हें अपनी विचारधारा के समर्थकों की सरकार बनने के बाद अपनी सांगठनिक क्षमता को बढ़ाने में हर स्तर पर मदद मिलती है. इसीलिए अपने देश में चुनाव और साम्प्रदायिक हमलों का एक सीधा रिश्ता लंबे समय से बना हुआ है.
भीड़ द्वारा हत्या के विविध आयाम
भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हिंसा के विविध आयामों पर एक नजर डालनी चाहिए. हाल के वर्षों में सरकार के स्वच्छता के नाम पर भीड़ द्वारा हत्याओं की कई घटनाएं सामने आई. क्या यह हैरान करने वाली प्रवृति नहीं है ?
भीड़ द्वारा हत्या की घटनाएं गाय की हत्या या गौमांस के नाम पर की गई . गाय साम्प्रदायिक राजनीति के विस्तार के लिए एक माध्यम माना जाता है और समाज के दलित एवं अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ घृणा के जाहिर करने के लिए यह भीड़ जमा की जाती है.
तीसरी तरह की घटनाएं बच्चों के चोरी के संदेह की आड़ में सामने आई है, जिसमें समाज के पिछड़े इलाके के लोगों ने अंजाम दिया. यदि भारतीय समाज में भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं के और आयामों को समझना है तो इसे इस रुप में भी देखा जा सकता है कि सरकारी भीड़ (मशीनरी) के द्वारा मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं होती है और लोकतंत्र के नागरिक भीड़ के रुप में उस पर अपनी मुहर लगाते हैं.
और भी ऐसी घटनाएं है जिसमें भीड़ द्वारा हत्या की मानसिकता की पड़ताल की जा सकती है. मसलन लोकतंत्र के नागरिक भीड़ की शक्ल में परिवर्तित होकर विभिन्न तरह के अपराधों के लिए हत्या की सजा देने की मांग करते है. उस समय की सबसे ज्यादा लोकप्रिय मांग फांसी का फंदा तैयार करने का होता है.
नशे, बलात्कार आदि अपराधों के लिए ही नहीं किसी और भी अपराध की घटनाओं के लिए कानून को एक भीड़ के रुप में तब्दील होने के लिए बाध्य किया जाता है.
बुलंदशहर के बहाने भीड़ द्वारा हत्या
हाल के दिनों में जितनी भी भीड़ के द्वारा हमले और हत्या की घटनाएं हुई हैं, उन्हें इस हद तक राजनीतिक सहयोग मिलता रहा है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने का शपथ लेने वाली पुलिस प्रशासन हमलावरों के पक्ष में झुका दिखा.
भीड़ द्वारा हत्या के पुराने ढांचे को भारतीय समाज में धर्म के नाम पर इस्तेमाल करने का बकायदा अभ्यास कराया गया है. इसे स्थायीत्व देने के लिए समाज में घृणा को एक विचार के रुप में विकसित किया गया.
यह घृणा मुसलमानों, ईसाईयों और दलितों के विरुद्ध स्थायी रुप से विधिवत तैयार करने में वर्चस्ववादी राजनीति सक्रिय दिखती रही है. इस वर्चस्ववादी राजनीति की पहचान हिन्दुत्व वादी के रुप में हम कर सकते हैं.
लेकिन इस घृणा का अर्थ इन धार्मिक व सामाजिक समूहों तक ही सीमित नहीं है. वह राजनीतिक स्तर पर वामपंथियों तक ही सीमित नहीं है.
इस घृणा को हथियार बनाने का मकसद केवल और केवल खास तरह की पहचान को ही स्थापित करना हैं. यानी एक पहचान के बरक्स अन्य पहचानों को वह अपने विरोधी या शत्रु के रुप में विस्तार देती है. इसीलिए वह उन्हें भी नहीं बख्शती जो कि हिन्दू तो हैं लेकिन हिन्दुत्वादी नहीं है या फिर हिन्दुत्वादी होने में रोड़े की तरह खड़ा दिखता हैं. वह व्यक्ति भी हो सकता है और विचारधारा भी हो सकती है.
यदि कोई हिन्दू होने का दावा करता है लेकिन वह हिन्दुत्ववाद को स्वीकार नहीं करता है तो उसे हिन्दुत्ववादी राजनीति का शिकार होना ही है.इंस्पेक्टर सुबोध एक हिन्दू के नाते भीड़ को समझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन भीड़ हिन्दुत्वादी है, यह समझने में उनके जैसे प्रशासनिक अधिकारियों से भी चूकने की घटनाएं बढ़ रही है.