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क्रय शक्ति बनाम निवेश

जे के कर

16वीं शताब्दी के अंत में जब जॉब चार्नक ने कोलकाता को बसाया था, तो उसका मूल उद्देश्य एक बाजार की स्थापना ही थी. क्रिस्टोफर कोलंबस जब अपने तीन जहाजी बेड़ों के साथ निकला था तो उसने अपने राजा से वादा किया था कि वह उनके लिये एक समुद्रपारीय बाजार खोज निकालेगा. और हां, प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध भी विश्व बाजार को बांट लेने के लिये ही छेड़ा गया था, इस बात में किसी को कोई शक नहीं होना चाहिये.

मानव सभ्यता के विकास के साथ ही बाज़ार का विकास हुआ. यह बताने की जरुरत नहीं है कि बाजार में माल बेचा जाता है और बाजार को ग्राहक की तलाश रहती है. ग्राहक तभी अपनी आवश्यकता या उपभोग की चीजें खरीद सकता है, जब उसकी अंटी में पैसा हो. बाजार भले ही देशी-विदेशी सामानो से भरा पड़ा हो यदि आम आदमी की अंटी में उसे खरीदने का पैसा न हो तो वह देशी या विदेशी वस्तु हमारे किस काम की? बावजूद इस तथ्य के मनमोहन-मोंटेक एवम चिदंबरम की तिकड़ी विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिये तमाम तरह के करतब किये जा रही है.

खुदरा, बीमा, बैंकिग एवं पेंशन फंड के क्षेत्र में विदेशो के लिये दरवाजे पहले ही खोले जा चुके हैं. अब विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिये गार यानी सामान्य कर परिवर्जनरोधी नियम को दो वर्षो के लिये जानबूझ कर टाल दिया गया है. ज्यादा से ज्यादा निवेश आकर्षित करने के लिये लाख-लाख जतन किये जा रहे हैं.

देश की जनता की वास्तविकता को समझने के लिये संसद में पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट पर गौर करना आवश्यक है. आर्थिक सर्वे के अनुसार 2009-10 में संवृद्धि दर 9.3 प्रतिशत थी, जो 2010-11 में घटकर 6.2 प्रतिशत रह गयी. सर्वे के अनुसार 2012-13 में यह और ज्यादा घटने वाली है. उम्मीद किया गया है कि ये 5 प्रतिशत तक आ जायेगी.

आर्थिक संवृद्धि के घटने का अर्थ आम जनता की क्रय शक्ति या खरीदने की क्षमता का कम हो जाने से भी है. यह सर्वमान्य सत्य है कि जब तक जनता के पास खरीदने की शक्ति न हो तो उत्पादित माल को कौन खरीदेगा. जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाने के लिये उसे रोजगार मुहैय्या कराना पड़ेगा. सरकार रोजगार को बढ़ावा देने के लिये कुछ नही कर रही है. निवेश भी ऐसे क्षेत्रो में हो रहा है, जहां रोजगार बढ़ने की कोई संभावना नहीं है.

हमें निवेश से, चाहे वह विदेशी ही क्यों न हो, दुराव नही है. हम तो केवल यह चाहते हैं कि इससे उत्पादन, रोजगार हमारे देश में बढ़े तथा नयी तकनालॉजी का प्रवेश हो. इसके बजाये यदि देश का मुनाफा बाहर जाने लगे तो यह ईस्ट इंडिया कंपनी वाली स्थिति हो जायेगी.

ऐसा अमरीका तथा यूरोप में हो चुका है. जहां कृत्रिम मांग पैदा करने के लिये साखहीन कर्ज प्रदान किये गये थे. जब कर्ज चुकाने की बारी आयी तो लोगों ने हाथ खड़े कर लिये. आखिरकार वहां की अर्थ व्यवस्था बैठ गयी, जिसे जनता द्वारा दिये गये करों से ही उबारा गया. इसके बाद तो वहां की सरकारों का ही दीवाला पिट गया. हमारी वर्तमान सरकार भी इसी राह पर चल रही है.

तो मामला कुल मिला के निवेश बनाम क्रय शक्ति का है. जब तक जनता की क्रय शक्ति को न बढ़ाया जाए तब तक अर्थव्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है और पूंजी परस्त राजनीति, सरकारों को उस दिशा में जाने से रोकती है, ताकि उनके मुनाफे पर कोई आंच न आये.

बजट 2012-13 में राजकोषीय घाटा 5,13,590 करोड़ रहने का अनुमान है, जबकि पिछले ही बजट में नैगम घरानों को 5,28,000 करोड़ रुपयों की करों में छूट दी गई थी. इससे व्यापारियों का मुनाफा तो बढ़ा लेकिन देश का घाटा हुआ. जिसके परिणाम स्वरूप पेट्रोल, डीजल, केरोसीन तथा रसोई गैस के दाम बढ़े तथा बोझ जनता पर डाला गया. परिणाम यह हुआ कि जनता की क्रय शक्ति और कम हो गयी.

छत्तीसगढ़ में भी पिछले कुछ सालों में निवेश का डीजे कुछ ज्यादा ही बज रहा है. निवेश को आमंत्रित करने के लिये आयोजन किये जा रहे हैं. खेती की जमीन और पानी विभिन्न तरह के संयंत्रों को दी जा रही है और किसान हाशिये पर जा रहे हैं. जब गांवों में रहने वालों की क्रय शक्ति का ह्रास होगा तो उत्पादित माल को खरीदेगा कौन? छत्तीसगढ़ की अर्थव्यस्था हाराकिरी की राह पर जा रही है, जिसे रोका जाना जरुरी है.

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