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जेनेरिक दवा असर नहीं करती ?

डॉ. संजय शुक्ला
जेनेरिक दवा क्या ब्रांडेड दवा जैसा असर नहीं करती? यह सवाल असल में जितना सीधा है, इसका जवाब उससे भी कहीं सीधा है. लेकिन संकट ये है कि जब से ब्रांडेड के बजाये जेनेरिक दवा लिखने को अनिवार्य किया गया है, तब से यही असत्य लगातार गढ़ा जा रहा है. इसे जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है. एक बड़ा तबक जेनेरिक दवा लिखने की अनिवार्यता पर सवाल खड़े कर रहा है.

प्रधानमंत्री द्वारा महंगी दवा के बजाये सस्ती जेनेरिक दवा लिखने संबंधी घोषणा के बाद एमसीआई यानी भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद ने आदेश जारी कर दिया है कि डॉक्टर जेनेरिक दवा ही लिखें. लेकिन इस पर सख्ती से अमल के बजाये इसका काट तलाशने की कोशिश हो रही है.

इससे पहले 2016 में भी एमसीआई ने ऐसा परामर्श दिया था, लेकिन इस बार यह परामर्श नहीं है. एमसीआई ने जेनेरिक दवा लिखने को अनिवार्य कर दिया है. मरीजों को जेनेरिक दवा के बजाये महंगी दवा लिखने वालों पर कड़ी कार्रवाई के भी संकेत हैं.

सरकार के इस ताज़ा निर्णय से लोगों में उम्मीद जागी है. रोगों के उपचार में दवाओं का खर्च लगभग 70 फीसदी तक रहता है. ऐसे में यदि डॉक्टर ब्रांडेड की जगह मरीजों को जेनेरिक दवाईयां लिखेंगे तो दवाईयों के खर्च में काफी राहत मिल सकेगी. लेकिन यह तभी संभव है, जब स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत सभी लोग इस निर्णय के प्रति अच्छी नीयत और दृढ़ इच्छाशक्ति प्रदर्शित करें. लेकिन बार-बार जेनेरिक दवा के असर को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं.

दरअसल जब दवा कंपनियां वर्षों के अनुसंधान तथा भारी-भरकम खर्च के बाद कोई नई दवा (फॉर्मूलेशन) ईजाद करती हैं तब वह इस दवा का पेटेंट कराती हैं. इसे ही ब्रांडेड दवा कहा जाता है. दवा निर्माता कंपनी शोध-अनुसंधान तथा पेटेंट की लागत को इन दवाओं की कीमतों में जोड़ता है, फलस्वरूप ये दवायें महंगी होती हैं. लेकिन जब दवा की पेटेंट अवधि खत्म हो जाती है तब दूसरी कंपनियां इसी रसायनिक संगठन या फॉर्मूलेशन से समान दवाईयां बनाती हैं, जिसे फॉर्मूलेशन यानि जेनेरिक नाम से बाजार में उतारा जाता है.

मतलब साफ है कि बाद में दवा कंपनियों को इस फार्मूलेशन के शोध-अनुसंधान तथा पेटेंट पर भारी भरकम खर्च नहीं करना पड़ता, इसलिए जेनेरिक दवाईयां ब्रांडेड दवा की तुलना में 80 से 85 फीसदी सस्ती होती हैं. ये दवाईयां भी ब्रांडेड दवाओं जितना असरकारक होती है.

भारत में दवा बाजार कुल 1 लाख करोड़ रूपये का है, जिसमें 80 फीसदी हिस्सेदारी जेनेरिक दवाओं का है. इसी तरह देश से हर साल 45 हजार करोड़ रूपयों के जेनेरिक दवाओं का निर्यात अमरीका सहित अन्य देशों को होता है. हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह दावा करती हैं कि हमारी ब्रॉंडेड दवायें उच्च कोटि की है तथा तुरंत असरकारक हैं. लेकिन यह महज व्यवसायिक सोशेबाजी ही है.

संकट ये है कि ब्रॉंडेड दवाओं में भारी मुनाफा रहता है इसलिए दवा कंपनियां और उनके प्रतिनिधि डॉक्टरों को ब्रांडेड दवाईयां लिखने के लिए प्रेरित करते हैं. यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं है कि ब्रांडेड दवा लिखने के एवज में चिकित्सकों को कितने महंगे उपहार या कमिशन दिये जाते हैं. यही कारण है कि बार-बार के निर्देशों के बाद भी मरीजों को जेनेरिक के बजाये ब्रांडेड दवा लिखने का क्रम टूटने का नाम नहीं लेता.

यही कारण है कि कई बार डॉक्टर भी ब्रांडेड दवायें लिखने के पक्ष में तरह-तरह के तर्क गढ़ते नज़र आते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यदि डॉक्टर अपने मरीजों को जेनेरिक दवाईयां लिखते हैं तो भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य के खर्च पर लगभग 75 फीसदी कमी लाई जा सकती है. अंतर्राश्ट्रीय पत्रिका ‘लैंसेट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल खराब स्वास्थ्य और महंगी दवा के कारण 3.9 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे पहुंच जाते हैं. ग्रामाीण भारत में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत से भी ज्यादा है.

आंकड़ों की मानें तो महंगे इलाज और दवा के खर्च के कारण लगभग 47 फीसदी लोगों को अपनी संपत्ति बेचने या गिरवी रखने के लिए मजबूर होना पड़ता है, इसका प्रतिकूल असर राजकोषीय भार के रूप में देश के सामने है. सवाल यही है कि आखिर सस्ते जेनेरिक दवा के बजाये महंगी ब्रांडेड दवा लिख कर हम किसे लाभा पहुंचा रहे हैं ?

* लेखक आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में व्याख्याता हैं.

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