Social Media

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यह व्याख्या

पंकज मिश्रा | फेसबुक

आप जब कहते हैं कि लोगों के पास चैनल न देखने की छूट है तो यह एक राजनीतिक वक्तव्य ज्यादा लगता है. यह तर्क हर चैनल और हर दूसरा नेता देता है.

सवाल है कि freedom of expression पर reasonable restrictions, आखिर किस पर लागू होते हैं, बोलने वाले पर या सुनने वाले पर?

इस एक observstion ने पूरा jurisprudence ही सर के बल खड़ा कर दिया.

कोई गाली दे तो हमारे पास कान बन्द करने की स्वतंत्रता तो प्रकृति ने दी है, state ने नहीं. freedom of expression भी प्रकृति ने दिया है और संविधान उसे state के जरिये ensure कराता है. यही संविधान उस पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाता है और यह निर्बन्धन state ensure करता है, यदि वो नही करता तो judiciary. यह संविधान प्रदत्त निर्बन्धन है. state का काम है कि ऐसी अभिव्यक्ति रोके न कि पब्लिक की ड्यूटी की वह न सुने.

लेकिन freedom of expression को Right to optional listening / viewing के रूप में define करना बहुत सीरियस ऑब्जर्वेशन है.

यदि यह इसी रूप में इंटरप्रेट हुआ तो कल को कोई कुछ भी लिखे दिखाए, किसी भी नागरिक को अखबार न खरीदने, टीवी न देखने, मोबाइल न चलाने की स्वतंत्रता की आड़ में प्रोटेक्शन नही मिलने वाली.

ये कौन सा तर्क दे दिया जज साब आपने …कैसे हजम करूँ कि चंद रोज पहले ही एक simple tweet को इसी court ने scandallous मान कर guilty घोषित किया था, जबकि अगले के पास भी यह विकल्प था कि वह उसे पढ़ता, नही पढ़ता, ब्लॉक करता ….चैनल के साथ भी तो यही होता है. आप आगे बढ़ सकते हैं मगर लोग रुक के सुनते हैं, चैनल को तो ब्लाक करना भी आसान नही है, पैकेज में आता है, जबकि ट्वीट नही आता.

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