प्रसंगवश

हिंदी के ‘अच्छे दिन’ कब?

हिंदी के लिए हिंदी में कुछ किया जाए तो अच्छा लगता है, लेकिन जब दीगर भाषा-भाषी कुछ करते हैं तो हम आश्चर्य में होते हैं और ठगा सा महसूस करते हैं. जिस दिन हिंदी बोलने में हम गर्व महसूस करेंगे, सच में हिंदी कहां से कहां पहुंच जाएगी.

इस बार हिंदी दिवस पर दो दिन पहले ही भोपाल में संपन्न 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन की चर्चा न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. काश यह आयोजन हिंदी दिवस के दिन होता. क्या किया जाए, यही तो है हिंदी की सच्चाई और रस्म निभाई, कैसे होगी हिंदी की भलाई!

संविधान सभा ने भले ही 14 सितंबर, 1949 को एक मतेन यह निर्णय लिया कि हिंदी राजभाषा होगी, लेकिन कड़वी सच यह कि यह कामकाज की भाषा आज तक न बन सकी. दुख तो इस बात का है कि हिंदीभाषी क्षेत्र के जनप्रतिनिधि ही अंग्रेजी में हिंदी की समृद्धि की बात करते हैं.

हिंदी को आज तक संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा नहीं बनाया जा सका है. इसे विडंबना ही कहेंगे कि योग को 177 देशों का समर्थन मिला, लेकिन हिंदी के लिए 129 देशों का समर्थन क्या नहीं जुटाया जा सकता?

सरहदों के पार जापान, मिस्र, अरब व रूस में हिंदी को लेकर कुछ ज्यादा ही सक्रियता दिख रही है, जो बहुत ही सम्मान की बात है. मगर भारत में ऐसा क्यों नहीं? शायद इसका जवाब बहुत ही कठिन होगा.

अंग्रेजी बोलने में हमें गर्व होता है, हिंदी बोलने में हीनता और जब तक इस भाव को हम पूरी तरह से नहीं निकाल देंगे, हिंदी को सम्मान और सर्वमान्य भाषा के रूप में कैसे देख पाएंगे?

डॉ. मारिया नेज्येशी हंगरी में हिंदी की प्रोफेसर हैं. मुंशी प्रेमचंद पर पीएचडी की है. वह असगर वजाहत के हिंदी पढ़ाने के लहजे से प्रभावित हुईं और हिंदी सीख गईं. जर्मनी में हिंदी शिक्षक प्रो. हाइंस वरनाल वेस्लर हिंदी को समृद्ध भाषा मानते हैं, जर्मनी की युवा पीढ़ी को भारतीय वेदों, ग्रंथों, चौपाइयों, दोहों इत्यादि के जरिए इसका विस्तृत परिचय देते हैं. उनका मानना है कि हिंदी के एक-एक शब्द का उच्चारण जुबान के लिए योग जैसा है.

वैज्ञानिक और सॉफ्टवेयर कंपनियों के कई मुखिया भी इस बात को बेहिचक मानते हैं कि डिजिटल भारत का सपना तभी पूरा हो पाएगा, जब हिंदी को सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनिवार्य किया जाएगा. एक आंकड़ा बताता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की 9 हजार के लगभग वेबसाइट्स हैं जो पहले अंग्रेजी में खुलती हैं.

यही हाल हिंदी में कंप्यूटर टाइपिंग का है. चीन, रूस, जापान, फ्रांस सहित दूसरे देश कंप्यूटर पर अपनी भाषा में काम करते हैं, लेकिन भारत में हिंदी मुद्रण के ही कई फॉन्ट्स प्रचलित हैं. इनसे परेशानी यह कि अगर वही फॉन्ट दूसरे कंप्यूटर में नहीं हों तो खुलते नहीं हैं, विवशत: हिंदी मुद्रण के कई फॉन्ट्स कंप्यूटर पर सहेजने पड़ते हैं.

हिंदी समाचारपत्रों में रोमन शब्दों को लिखने का हिंदी चलन भी खूब हो चला है. इसकी वजह शब्दों की निश्चित सीमा या आसान मायने, कुछ भी हो सकते हैं, पर लगता नहीं कि यह भी हिंदी के साथ अन्याय है.

रोमन लिपि के 26 अक्षरों की अंग्रेजी, देवनागरी लिपि के 52 अक्षरों पर भी अपना कब्जा जमाती दिखती है. शायद इसका कारण अपनी स्वयं की सर्वमान्य भाषा को लेकर बंटा होना और गंभीर नहीं होना है, जैसा दूसरे देशों में है. हम राज्य, भाषा और बोली को लेकर ही धड़ेबाजी करते हैं और अंग्रेजी को तरक्की का जरिया मानते हैं.

काश पूरे भारत में संपर्क और सरकारी कामकाज की अनिवार्य भाषा हिंदी होती तो देश का मान और भी बढ़ता. समृद्ध हिंदी के भी अच्छे दिन आएंगे, हिंदी ही तो भारत में वे भाषा हैं जो हर जगह, समझी और बोली जाती है. बस जरूरत है इसे देश में आपसी संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारने की. हिंदी के भी ‘अच्छे दिन’ आएंगे, जरूर आएंगे, बशर्ते बजाय औपचारिकता के, सकारात्मक और ईमानदार पहल की जाए.

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