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हर मोर्चे पर बदलाव चाहिये

संदीप पांडेय
भारत दुनिया में इस मायने में अपवाद है कि उसने सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर दुनिया में अव्वल रखते हुए भी विकास से हुए लाभ को गरीबों में नहीं बांटा. भारत में आय का वितरण बहुत असमान हो गया है. सामाजिक मानकों, जैसे जीवन काल, साक्षरता, कुपोषण, मातृ मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर, शौचालय की सुविधा, आदि में भारत की तुलना अब सिर्फ अफ्रीका के कुछ सबसे गरीब देशों से ही की जा सकती है. हमें अपनी शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों पर तुरंत ध्यान देना पड़ेगा. दुनिया के कई देशों ने 99 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है और अपने 100 प्रतिशत नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं.

भारत में जब तक समान शिक्षा प्रणाली और उसमें निहित पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा लागू नहीं होती तथा सरकार से तनख्वाह पाने वाले अधिकारियों एवं जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालय में पढ़ना अनिवार्य नहीं हो जाता तब तक गरीब के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं हो सकती. शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों में निजीकरण से गरीब एवं अमीर के लिए उपलब्ध इन सुविधाओं की गुणवत्ता में अंतर और बढ़ गया है.

भारत को शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में अपना बजट बढ़ाना चाहिए. कम से कम उतना तो कर ही लेना चाहिए जितना अन्य विकसित एवं विकासशील देशों का है. यह प्राथमिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण के पक्षधर लोगों की बहुत पुरानी मांग है. हम एक शिक्षित और जागरूक समाज में ही यह उम्मीद कर सकते हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा में रोकथाम होगी. महिलाओं के लिए शौचालय की तरफ भी ध्यान देने की जरूरत है.

भारत में सिर्फ दो-तिहाई लोगों को ही बेहतर शौचालय की सुविधा उपलब्ध है, जिससे खासकर गरीब तबके की लड़कियां व महिलाओं को परेशानी के साथ-साथ सुरक्षा के खतरे का सामना करना पड़ता है. हाल में बदायूं में दो बहनों के साथ हुए दुष्कर्म व उनकी हत्या इसका एक दिल-दहलाने वाला नमूना है. वैसे यह सच है कि सिर्फ शौचालय की सुविधा उपलब्ध करा देने भर से महिलाओं के खिलाफ हिंसा नहीं रुकेगी, क्योंकि उसके लिए तो पुरुषों की सोच में बदलाव की जरूरत है, लेकिन कम से कम महिलाएं व लड़कियां अपमानजनक स्थितियों से तो बच जाएंगी.

कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है. बिना मजबूत आधार के कैसे कोई अच्छी अर्थव्यवस्था का ढांचा खड़ा हो सकता है? हमारे किसानों को सरकारी विक्रय केंद्रों से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी भी नहीं मिलती, क्योंकि खरीद के समय दलाल इस व्यवस्था को अपने चंगुल में ले लेते हैं. रोजगार के नाम पर काम का चरित्र बदल रहा है. सरकारी व्यवस्था में अब लोग संविदा या दैनिक मजदूरी पर रखे जा रहे हैं. जब ये कर्मचारी अपने मानदेय की तुलना वेतन आयोग की सुविधा प्राप्त अपने से ऊपर के वर्ग में देखेंगे तो इनमें असंतोष पैदा होगा. ऐसे कर्मचारी कुछ समय के बाद अपना संगठन बनाकर अपने नियमितीकरण की मांग करते हैं. इससे बेहतर है कि शुरू से ही काबिल लोगों को नियमित नौकरी पर रखा जाए ताकि अप्रशिक्षित संविदाकर्मी सरकार के लिए बोझ न बनें. सरकार की तात्कालिक सोच ने सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित की है.

महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ग्रामीण क्षेत्रों में सौ दिनों के रोजगार की गारंटी के साथ लागू की गई, किंतु इसका लाभ लोगों को पूरा नहीं मिल पाया. ये योजना अब काम की मांग द्वारा संचालित नहीं हो रही जैसी की कल्पना की गई थी. अब यह किसी भी अन्य योजना की तरह ही चलाई जा रही है, जिसमें अधिकारी अपनी मनमर्जी कर रहे हैं. चालाक नौकरशाहों ने सौ दिनों की गारंटी की परिभाषा अधिकतम सौ दिनों के रोजगार के रूप में की है. यदि न्यूनतम सौ दिनों की गारंटी रहती तो मजदूर सौ दिनों के ऊपर काम करने के लिए प्रेरित होता और ज्यादा आय अर्जित करने के बारे में सोचता.

रेहड़ी-पटरी दुकानदारों के लिए कानून बन गया है, किंतु उसके क्रियान्वयन की प्रतीक्षा है. सड़क पर रोजगार करने वाले लोगों को पुलिस एवं वसूली करने वालों दोनों का शिकार बनना पड़ता है. ऐसी परिस्थिति का निर्माण होना चाहिए कि सड़क पर रोजगार करने वाला व्यक्ति भी सम्मानजनक ढंग से जी सके.

इसी तरह वन अधिकार कानून लागू है, किंतु आदिवासियों को कोई विशेष लाभ नहीं मिला है. आदिवासियों के भू-अधिकार की लड़ाई अहम है.

कुपोषण एवं शौचालयों का अभाव दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें प्राथमिकता के तौर पर लिया जाना चाहिए. भारत में आधे बच्चे कुपोषित हैं, आधे ही बच्चे कक्षा आठ से पहले विद्यालय से बाहर हो जाते हैं और आधी औरतें खून की कमी का शिकार हैं. बिना कोई सर्वेक्षण कराए भी यह कहा जा सकता है कि इन तीनों तथ्यों का अंतरसंबंध है. कुपोषण की स्थिति तभी सुधरेगी जब आंगनबाड़ी, मध्यान्ह भोजन व सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ ठीक तरीके से पात्र लोगों को मिलगा.

उत्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी केंद्रों पर पिछले दस वषरें से पंजीरी आपूर्ति करने का ठेका उसी कंपनी के पास है जो पूरे उत्तर प्रदेश को शराब भी उपलब्ध कराती है. शराब में जिस किस्म की आय है उसके सामने आंगनबाड़ी की पंजीरी की कौन चिंता करेगा? इसलिए उत्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी केंद्र नहीं चलते हैं.

कुछ समय पहले तक उत्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी केंद्रों पर गरम पका खाना पकाने के लिए ईंधन व बर्तनों के लिए पैसे नहीं थे. इन परिस्थितियों में हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि बच्चों का कुपोषण दूर होगा? अब सरकार गैर-सरकारी संस्थाओं को खाना आपूर्ति का ठेका दे रही है. यह कदम गरम पका खाना बच्चों को उपलब्ध कराने की सोच के विपरीत है.

भ्रष्टाचार की वजह से भारत की गरीबी दूर नहीं हो रही. सरकार को दृढ़ संकल्प लेना चाहिए कि खासकर गरीबों, मजदूरों, किसानों, कारीगरों, बच्चों, महिलाओं व आदिवासियों के कल्याण के उद्देश्य से चलाई जाने वाली योजनाओं में लाभार्थियों के चयन से लेकर सुविधाओं के आवंटन तक कोई भ्रष्टाचार नहीं होगा. इसके बिना भारत में किसानों की आत्महत्या हो या कुपोषण से मौत, उन्हें रोका नहीं जा सकता.

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