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बस्तर में पत्रकारों का बुरा हाल

आलोक प्रकाश पुतुल | बीबीसी: छत्तीसगढ़ के बस्तर में पत्रकारों को पुलिस और माओवादियों का दोतरफा दबाव झेलना पड़ रहा है. नक्सल प्रभावित बस्तर में माओंवादियों ने पिछले दिनों एक पत्रकार की हत्या कर दी. उसके बाद पत्रकारों ने माओवादियों की खबरों का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया है.

मगर इस पूरे घटनाक्रम की पर्तें हटाई जाएँ तो एक बड़ी समस्या से सामना होता है.

उस इलाक़े से रिपोर्टें भेजने वाले पत्रकारों की मुश्किल दंतेवाड़ा से प्रकाशित एक दैनिक अख़बार के संपादक सुरेश महापात्रा एक लाइन में सामने रख देते हैं.

सुरेश कहते हैं, “हमारे लिए तालिबान जैसे हालात हैं. माओवादियों की ख़बरें छापें तो कहा जाता है कि हम माओवादियों का प्रचार कर रहे हैं और पुलिस की ख़बरें छापें तो माओवादी हमें पुलिस का दलाल और मुख़बिर घोषित कर देते हैं.”

इसी महीने की छह तारीख़ को बीजापुर ज़िले में संदिग्ध माओवादियों ने स्थानीय पत्रकार साई रेड्डी की हत्या कर दी थी.

इसके बाद बस्तर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, सुकमा, कोंडागांव, बीजापुर और कांकेर ज़िले के पत्रकारों ने माओवादियों की ख़बरों के बहिष्कार का फ़ैसला किया.

यह पहला अवसर नहीं है, जब पत्रकारों ने माओवादियों की ख़बरों के बहिष्कार का फ़ैसला लिया है.

इस वर्ष फ़रवरी में भी माओवादियों ने सुकमा में एक पत्रकार नेमीचंद जैन की हत्या कर दी थी.घटना स्थल पर नक्सलियों का एक पर्चा बरामद हुआ था जिसमें आरोप लगाया गया था कि नेमीचंद को पुलिस के लिए जासूसी करने के आरोप में मारा गया है.

बाद में माओवादियों ने इस हत्या में अपने संगठन के शामिल होने से इनकार कर दिया था.

जब पत्रकारों ने नक्सलियों की ख़बरों का बहिष्कार करना शुरू किया और इस हत्या के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया तो नक्सलियों ने नेमीचंद जैन की हत्या पर खेद जताया था.

सुरेश महापात्रा का आरोप है कि प्रशासन का एक बड़ा अमला नहीं चाहता कि बस्तर के गांवों की ख़बरें राजधानी और देश-दुनिया में जाए, माओवादी भी यही चाहते हैं.

ज़ाहिर है, पुलिस और नक्सलियों का दोतरफ़ा दबाव झेलने वाले बस्तर के पत्रकारों द्वारा माओवादियों की ख़बरों के बहिष्कार ने बस्तर में पत्रकारों के काम करने की परिस्थितियों पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.

बस्तर में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार अख़बार या टीवी चैनलों के साथ अलिखित अनुबंध के आधार पर काम करते हैं. इन पत्रकारों को ना तो वेतन मिलता है और ना ही कोई सुरक्षा. अधिकांश पत्रकार मूलतः ‘एजेंट संवाददाता’ के बतौर काम करते हैं.

इसके बदले इन पत्रकारों को अख़बार की बिक्री और उनके द्वारा जुटाए गए विज्ञापन में कमीशन मिलता है और साथ में संवाददाता होने का एक पहचान पत्र.

ऐसी स्थिति में अधिकांश पत्रकार अपनी आजीविका के लिये दूसरे काम-धंधों पर निर्भर करते हैं.

कांकेर के स्वतंत्र पत्रकार कमल शुक्ला मानते हैं कि बस्तर के अधिकांश पत्रकारों की मजबूरी है कि वे अपना जीवनयापन करने के लिए कोई और रोज़गार करें.

कमल शुक्ला कहते हैं, “माओवादियों को मीडिया को लेकर अपनी नीति घोषित करनी चाहिए. अगर किसी पत्रकार की किसी ख़बर या व्यावसायिक गतिविधि से उन्हें परेशानी है तो उसकी सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए.”

दंतेवाड़ा के पत्रकार हेमंत कश्यप का आरोप है कि जैसे ही पत्रकार किसी मुश्किल में होता है, अख़बार का प्रबंधन उसे अपना नियमित कर्मचारी नहीं होने का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है.

माओवादी भी स्थानीय पत्रकारों को डराकर रखना चाहते हैं.

हेमंत सवाल पूछते हैं कि “जब कोई राष्ट्रीय पत्रकार नक्सलियों के ख़िलाफ़ लिखता है तो नक्सली बयान जारी कर स्पष्टीकरण देते हैं लेकिन स्थानीय पत्रकार जब तथ्यों के साथ कुछ लिखता है तो नक्सली उसे अपना गांव, घर, गलियां, चौरा और देवालय सब छोड़ कर भाग जाने को कहते हैं. उसका हश्र नेमीचंद या साई रेड्डी जैसा करते हैं. ऐसा क्यों?”

रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार का कहना है ”बस्तर या छत्तीसगढ़ के किसी भी ग्रामीण इलाके या कस्बे में एकाध बड़े अख़बारों या चैनलों को छोड़ कर किसी के लिये संभव नहीं है कि वह वहां पूर्णकालिक पत्रकार रखे.”

उन्होंने कहा, “अख़बारों या चैनलों की ज़रुरत भी वैसी नहीं है. अंशकालीन पत्रकार रखे जाने की हालत में ऐसे पत्रकार के काम की सुविधाएं और वेतन भी उसी तरह होता हैं.”

सुनील कुमार कहते हैं, “बहिष्कार किसी का भी और कभी नहीं होना चाहिए लेकिन हर किसी के लिए अपनी ज़िंदगी की रक्षा उसकी पहली ज़िम्मेदारी होती है. बस्तर में जब माओवादी सोच-समझ कर पत्रकारों की हत्या कर रहे हैं तो पत्रकारों के इस बहिष्कार को तात्कालिक प्रतिक्रिया और प्रतीक के तौर पर देखा जाना चाहिए.”

उनके मुताबिक़, “पेशे की नैतिकता और दूसरे मूल्य ऐसी परिस्थितियों में कुछ समय के लिए निलंबित रखे जाते हैं. जब आपके घर में आग लगी हो तो पूजा के कमरे में जूते उतार कर घुसने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.”

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