प्रसंगवश

एक याकूब की चिंता क्यों?

स्नेह मधुर
याकूब मेमन की फांसी को लेकर उच्च बुद्धिजीवी वर्ग में आजकल खूब चर्चा है. नीतिगत नहीं, बल्कि रणनीतिगत बात करना उच्च वर्ग का पुराना शगल रहा है. उच्च वर्ग दूरंदेशी होता है और हमेशा अपने लक्ष्य पर निगाह रखता है जो भावुक मध्यम वर्ग नहीं कर पाता है. मध्यम वर्ग या समाज का आर्थिक रूप से निम्न वर्ग राष्ट्रीयता की भावना में बह जाता है और अपना सब कुछ कुर्बान कर देता है.

याकूब मेमन को फांसी की सजा न्यायाधीशों ने दी है और लंबी बहस के बाद. मुंबई में मारे गये ढाई सौ लोगों में से कोई कोर्ट से दरियाफ्त करने नहीं गया था कि याकूब दोषी है-उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाए. कुल मिलाकर कोर्ट में वैधानिक और तकनीकी बहस हुई होगी. लेकिन जब न्यायालय के निर्णयों पर सेलीब्रेटीज आपत्ति जताते हैं तो पूरे समाज में न्यायपालिका की नीयत और निपुणता पर संदेह उठने लगता है.

हालांकि याकूब मेमन ने आत्मसमर्पण किया था और उसी समय यह माना जा रहा था कि याकूब को या तो सजा नहीं होगी या फिर सजा होने पर सरकार उसे माफ करने की रणनीति पर काम करेगी. याकूब के जेल से छूटते ही अन्य आरोपियों को भी भारत वापस आने में सुविधा होगी और एक दिन दाऊद भी आ जाएगा तथा यहां की राजनीतिक परिस्थितियों का लाभ उठाकर संसद तक पंहुच सकता है.

लेकिन स्थितियां बदल गईं और केंद्र में यूपीए की सरकार नहीं रही. याकूब को संभवत: जो आश्वासन यहां के उच्च वर्ग की लॉबी ने दिया था, वह पूरा होता नहीं दिख रहा है और छटपटाहट सामने आने लगी है. सलमान खान जब यह कहते हैं कि याकूब निर्दोष है और असली गुनहगार उसका भाई टाइगर है तो सही कहते होंगे.

सलमान के बयान से साफ है कि उन्हें मुंबई विस्फोट कांड की सारी कड़ियों के बारे में बेहतर जानकारी है और इसीलिए वह याकूब की फांसी को लेकर दुखी हो जाते हैं. एक तरह से वह प्रकरांतर से भारत सरकार को चुनौती देते हैं कि हिम्मत हो तो पाकिस्तान में जाकर टाइगर को पकड़ लाओ.

क्या याकूब के पक्ष के बहाने सलमान खान ने जो रहस्योद्घाटन किया है, उस पर वे अडिग रह सकते हैं? सलमान अगर वास्तव में याकूब को निर्दोष मानते हैं तो उन्हें चाहिए कि वह टाइगर को पकड़वाने में मदद करें या फिर कम से कम टाइगर से अपील ही करें कि ऐ टाइगर भाई, याकूब संकट में हैं. तुम्हारे पाप की सजा उसे मिलने वाली है.आओ आकर अपने भाई को बचाने के लिए आत्मसमर्पण कर दो.

क्या याकूब को न्याय दिलाने के लिए उसका भाई अपनी कुबार्नी देने नहीं आ सकता है..? न्याय की सारी जिम्मेदारी भारत सरकार की है..? सारी दुनिया को मालूम है कि सुबूतों की अनुपलब्धता और पैरवी ठीक से न किए जाने के कारण अनगिनत मुजरिम सजा पाने से छूट जाते हैं और धनाभाव के कारण तमाम निर्दोष लोग इस न्यायिक प्रणाली के शिकार होकर जेल चले जाते हैं या फांसी पर चढ़ा दिए जाते हैं.

सलमान खान ने ही कानपुर में वायदा किया था कि वे वर्षो से निर्दोष बंद कैदियों को छुड़ाने के लिए अपनी संस्था बीइंग ह्यूमन को कहंगे, लेकिन आज तक उनक वायदा पूरा नहीं हुआ. समझ लीजिए याकूब मेमन भी उन्हीं में से एक है..

क्या शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी पूरी जिंदगी में फिल्मों से पैसा कमाने और अपनी लोकप्रियता का उपयोग करके राजनीति करने के अलावा समाज सेवा का कोई काम किया है? क्या शत्रुघ्न सिन्हा ने कभी किसी अन्य निर्दोष व्यक्ति के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया है..?

इस मामले में सलमान खान के पिता सलीम खान का नजरिया सही समझा जाना चाहिए जिसने पूरे मीडिया पर ही इशारे से उंगली उठा दी है. सलीम खान का कहना है कि सलमान खान एक कलाकार हो सकते हैं, लेकिन हर चीज के जानकार नहीं. जो व्यक्ति किसी विषय का विशेषज्ञ नहीं है तो उसकी टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है.

सलीम खान समझदार व्यक्ति हैं और उन्होंने संकेत में ही बता दिया कि मीडिया नासमझ लोगों की टिप्पणी लेकर अनावश्यक ही विवाद को जन्म देती है.

याकूब मामले में पूर्व न्यायाधीश मारकंडेय काटजू की भी टिप्पणी रोचक है. वह याकूब को फांसी की सजा का विरोध करते हुए जो आधार बताते हैं, वह चिंतनीय है. वह कहते हैं कि जिस आधार पर याकूब को सजा दी गई है, वही अपूर्ण और विवादास्पद है. काटजू का यह वक्तव्य अपने पेशे के न्यायाधीशों की योग्यता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है. एक तरह से पूरी दुनिया के सामने वह भारत की न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करते हैं.

आश्चर्य कि इस तरह के वक्तव्य उन्होंने न्यायिक सेवा के दौरान कभी नहीं दिये. शायद उस दौरान रामराज्य रहा होगा और उनके सेवानिवृत्त होते ही सबकुछ उलट गया हो. असल में विवाद पैदा करने वाले लोग ही मीडिया के लाड़ले रहते हैं और मीडिया ऐसे लोगों को और ऐसे लोग मीडिया को ढूंढ़ते रहते हैं.

मीडिया को पेज भरना होता है और ऐसे लोगों को अपनी रोटी सेंकनी होती है. याकूब को फांसी हो या न हो, यह न्यायपालिका का विषय होना चाहिए न कि जनचर्चा का. जब हर रोज इस देश में अनगिनत निर्दोष लोग पुलिस या न्यायपालिका की आंखों पर बंधी काली पट्टी के शिकार हो रहे हैं तो उच्च वर्ग को सिर्फ एक मेमन की चिंता उनकी नीयत में खोट बताती है.

एक फिल्म में न्यायाधीश के रूप में जब एक पात्र यह कहता है कि ‘न्याय अंधा होता है जज नहीं..’ जज को सब दिखता है लेकिन उसे इंतजार होता है सुबूत का..सुबूत न मिल पाने के कारण उसके सामने निर्दोष को जेल भेज देने और दोषी को छोड़ देने की मजबूरी होती है…

यह संवाद हमारी दोषपूर्ण प्रणाली का पोस्टमार्टम करके रख देता है. जरूरत एक मेमन को बचाने की नहीं बल्कि हजारों निर्दोषों को बचाने और टाइगरों को फांसी पर लटका देने की है. सलमान को चाहिए कि वह मुंबई में मारे गए लोगों के प्रति जरा भी सहानुभूति रखते हों तो टाइगर से आत्मसमर्पण करने की अपील करें.

साथ में वायदा करें कि जब टाइगर को फांसी की सजा होगी तो उस सजा को इस मानवीय आधार पर कि टाइगर ने अपने गुनाह कुबूल कर लिए हैं-वह माफी के योग्य है, इसलिए उसकी सजा माफी के लिए सलमान ट्वीट नहीं करेंगे.

(वरिष्ठ पत्रकार स्नेह मधुर हिंदी दैनिक ‘पायनियर’ में वरिष्ठ संपादक हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!