छत्तीसगढ़

मैं सहमत नहीं हूं स्वामी जी

विश्वेश ठाकरे
पत्रकार होने के नाते मेरी स्वामी अग्निवेश से मुलाकात होती रही है, लेकिन पिछले सोमवार को हुई जितनी लंबी मुलाकात पहली बार ही हुई. लंबी बातचीत और सवाल-जवाब.

स्वामी अग्निवेश ने कानून और बिजनेस मैनेजमेंट पढ़ा फिर आर्य समाज की विचारधारा अपना सन्यासी हो गए, फिर आर्य सभा नाम की एक राजनीतिक पार्टी बनाई, हरियाणा से चुनाव जीता, मंत्री बने, फिर राजनीति छोड़ दी. बंधुआ मजदूरों की रिहाई, सहायता के लिए बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाया, फिर नक्सलियों और सरकार के बीच मध्यस्थ बने और अब वर्तमान में वे अंतरजातीय विवाह (इंटरकास्ट मैरिज) का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं.

स्वामी जी का जीवन जिस तरह कई रास्तों से गुजरा उसे दो तरह से कहा जा सकता है, एक तो कि वे हमेशा गतिमान रहे हैं, नई सोच को अपनाने वाले रहे हैं, दूसरा ऐसे कि वे कन्फ्यूज रहे हैं. मुझे दूसरा शब्द उनके ज्यादा करीब लगता है.

आदिवासियों की दुर्दशा बयान करते हुए उनकी आंखें पनीली हो जाती हैं, गरीब, शोषित आदिवासी का दर्द चेहरे पर आ जाता है, लेकिन जब उन्हें यह याद दिलाया जाता है कि इसी प्रदेश में सैकड़ों अफसर, सरकारी कर्मचारी, कई आईएएस, आईपीएस आदिवासी हैं, आदिवासी महिला कर्मचारियों, अफसरों की तादात सामान्य के करीब बराबर है तो वे दरभा घाटी के भीतर बसे किसी आदिवासी गांव में सुरक्षा बलों के अत्याचार की बात करने लगते हैं.

उन्हें सुकमा के भीतरी, पहुंच विहीन गांव के नग्न आदिवासी का चेहरा तो याद है, लेकिन वे राजधानी के बड़े से बंगले में रहने वाले उसी आदिवासी वर्ग के कोट टाई डटाए अफसर के आफ्टर शेव लगे हुए चेहरे को नहीं देखते. जब वे कहते हैं कि सुरक्षा बल बस्तर में बलात्कार करते हैं तो उन्हें उन बच्चियों की चीखें याद नहीं आती जो गैर आदिवासी इलाकों और कई बार तो घरों में ही जिबह की जाती हैं.

मैंने उनसे कहा कि ऐसा क्यों है कि समाज सेवा का लबादा ओढ़ने वालों को हमेशा जंगल के बीच अपने हाल में खुश रहने वाले आदिवासियों की ही दुर्दशा दिखाई देती है. शहरों, बस्तियों में दस बाई दस के कमरों में बिलबिला रहा निम्न मध्यम वर्ग उन्हें क्यों खुश नजर आता है. एलआईजी से एमआईजी तक के सफर में दम तोड़ रहा यह वर्ग जिस शोषित, दलित आदिवासियों की बात स्वामीजी करते हैं उससे कई हजार गुना बड़ा है, लेकिन क्यों ये सिविल सोसायटी का नारा लगाने वाले ये मानते हैं कि दुख, तकलीफ, शोषण जंगलों में ही उगता है.

किसानों और खेती की जमीन बचाने की ही बात है तो दंतेवाड़ा तक जाने की जरूरत नहीं है, यहीं जांजगीर में धरने पर बैठिए इस तिहरी फसल वाले जिले के आधे खेत में सरकार ने चिमनियां उगा दीं और बचे आधे खेत उन चिमनियों की राख से बंजर हो गए. मुफ्त में जितनी सुविधाएं जंगलों तक पहुंचाई जा रही हैं, उसका एक चौथाई भी शहर की निचली बस्तियों में बांट दिया जाए तो आधा पेट सोने वाले मजदूरों को खाना मिलेगा, उनके बच्चों के लिए स्कूल की फीस मिलेगी जो यकीनन जाया नहीं होगी, क्योंकि इसी वर्ग के बच्चे भूखे पेट भी मेरिट लिस्ट में आ रहे हैं.

अंग्रेजी में एक कहावत है कि चैरिटी बिगिन्स फ्राम दी होम. कुछ भला करना है तो अपने घर से शुरू करो, लेकिन क्यों ये पूरे देश के समाज सेवी अपना घर, शहर, प्रदेश छोड़ हमारे यहां सुदूर जंगलों में परोपकार करने आते हैं. क्या दिल्ली, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे तमाम प्रदेशों में सब ठीक है ? वहां बलात्कार नहीं हो रहे हैं, वहां गरीब खत्म हो गए हैं या वहां आदिवासियों को कोई समस्या नहीं है?

स्वामीजी शायद कहें कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की चीख उन्हें खींच लाती है, तब मैं कहूंगा कि रास्ते में कानों से ईयरफोन निकालेंगे तो घर में ही चीखें सुनाई देंगी.

इस बातचीत के दौर में स्वामी जी ने कहा कि जाति, वर्ण इसे खत्म होना चाहिए और इन दिनों वे इसी मुहिम में हैं कि अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया जाए जिससे कि जाति आधारित समाज खत्म हो जाए. यहां तक मैं स्वामीजी से सहमत हूं कि ऊंच-नीच, ब्राह्मण-शूद्र का समय अब रहा नहीं. वर्ण व्यवस्था किसी समय में तार्किक रही होगी, लेकिन अब वर्ण व्यवस्था के अनूरूप समाज नहीं चल पाएगा. हम इस समय ग्लोबलाइजेशन के दौर में हैं, विश्व को एक गांव बनाने की सोच में हैं, यहां अब जाति, धर्म, वर्ण जैसे बंधन विकास रोकने का काम करेगा, लेकिन स्वामी जी अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए जिस तरीके की बात करते हैं, मैं उसके खिलाफ हूं.

वे कहते हैं कि अंतरजातीय विवाह करने वाले को शासकीय नौकरी में पांच फीसदी आरक्षण दिया जाए. पहले ही पूरे देश में आरक्षण को लेकर आग लगी हुई है. गुजरात, हरियाणा में कत्लेआम मचा हुआ है. धर्मों की बात छोड़िए, जाति, उपजाति के लोग आपस में खून के प्यासे हो रहे हैं, एसे में आरक्षण का एक और वर्ग खड़ा करना उस आग में घी डालना होगा. फिर स्वामी जी, विवाह तो आत्मा का मिलन होता है, निःस्वार्थ, निःशर्त दो लोगों को एक बनाता है, ऐसे में यदि इसमें सरकारी नौकरी का लालच मिला दिया जाए तो इसकी पवित्रता खत्म हो जाएगी.

व्यक्ति विवाह के जरिए पूरे जीवन साथ निभाने वाला साथी तलाशता है, सुख-दुख का भागीदार ढूंढता है, कठिन समय का सहारा ढूंढता है, एसे में यदि विवाह को नौकरी पाने का तरीका बना दिया जाएगा तो यह स्वार्थ का साथ कितने दिन चलेगा. देश के किसी भी वृद्धाश्रम में चले जाएं कई मजबूर मां-बाप वहां सिर्फ इसलिए हैं कि अनुकंपा नियुक्ति पाने के बाद उन्हीं बेटों ने उन्हें घर से निकाल दिया, जो नौकरी पाने के पहले तक पूरी जिम्मेदारी उठाने का शपथ पत्र दिया करते थे. जब स्वार्थ ने जन्म देने वाले खून के रिश्ते को नहीं बख्शा तो जो रिश्ता स्वार्थ की पनीली नींव पर खड़ा होगा वो कितने दिन टिकेगा.

स्वामी जी, मैं बस्तर ही नहीं किसी भी ग्रामीण, शहरी इलाकों में पुलिसिया अत्याचार का पुरजोर विरोध करता हूं, बेकसूर लोगों के दमन की मुखालफत करता हूं लेकिन ये मैं समान रूप से सभी दलितों, पीड़ितों, शोषितों के लिए करता हूं, फिर चाहे वो दिल्ली की किसी बस्ती में बसते हों या दंतेवाड़ा के सुदूर में. आदमी की जान तो जान ही होती है ना, चाहे सत्ता हथियाने के लिए सरकारें उसे किसी भी वर्ग में बांटती रहे.

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