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सोशल मीडिया पर चर्चा की जरूरत

सुनील कुमार
इन दिनों मोदी से लेकर देश और दुनिया के नवसाक्षरों तक सोशल मीडिया का बड़ा ही बोलबाला है. जो सोशल मीडिया पर नहीं है, वह मानो है ही नहीं. कुछ समय पहले तक मोबाइल फोन को लेकर यही हाल था कि जो लोग आपकी फोनबुक पर नहीं हैं, वे मानो आपके लिए हैं ही नहीं. उनसे होली-दीवाली और नए साल पर दुआ-सलाम भी छूटने लगती थी. अब यह बात कुछ और आगे बढ़कर सोशल मीडिया तक पहुंच गई है, और सोशल मीडिया पर जिनके हजारों करीब हैं, वे भी पड़ोसियों से रिश्तों में बड़े गरीब हैं. लेकिन सोशल मीडिया लोगों की जिंदगी को बहुत गहरे तक प्रभावित कर रहा है, सतह पर तो असर दिखता ही है, बहुत गहरे तलहटी तक सोशल मीडिया जख्म करते चल रहा है. इसकी अच्छी बातें भी हैं, लेकिन इससे होने वाले नुकसानों का अभी एहसास अधिकतर लोगों को हो नहीं रहा है.

जो लोग फेसबुक या ट्विटर पर हैं, वे कई किस्म के हैं, या कि बेहतर यह कहना होगा कि वे सभी किस्मों के हैं. इनमें से कुछ बेहतर लिखने वाले हैं, कुछ बेहतर दिखने वाले हैं, और कुछ बेहतर हमले करने वाले हैं. इनसे परे कुछ ऐसे हैं जो नफरत फैलाने में बेहतर हैं, कुछ झूठ फैलाने में बेहतर हैं, और कुछ ऐसे हैं जो बिना कुछ सोचे-समझे हाथ लगे हुए सब कुछ को बस फैला भर देते हैं.

नतीजा यह है कि लोगों के नाम से सोशल मीडिया पर इतना कुछ बिखर रहा है, और उससे उनकी अपनी तस्वीर इतनी बिगड़ रही है, कि उनको इसका अंदाज अभी तो नहीं लग रहा है.

आज डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने यह बहुत आसान कर दिया है कि किसी भी तस्वीर या आंकड़े में, किसी जानकारी या दस्तावेज में, छेड़छाड़ करके झूठ और नफरत को फैलाया जाए. ऐसी शुरुआत करने में तकनीक के जानकार एक-दो लोग ही लगते हैं, बाकी लोग अपनी भारी गैरजिम्मेदारी के साथ ऐसे झूठ को, ऐसी नफरत को जंगल की आग की तरह चारों तरफ फैलाने में जुट जाते हैं. और वे ऐसा काम महज सोशल मीडिया पर नहीं करते, असल जिंदगी में भी उनकी जुबान यही काम करती है, क्योंकि उनके दिल-दिमाग में अच्छे और बुरे के बीच फर्क करने जितनी सामाजिक सीख किसी ने डाली नहीं थी. समाज के लिए क्या बेहतर है, और क्या बदतर है, इसके फर्क को समझे बिना, या समझते हुए भी इस फर्क को अनदेखा करके लोग बुरे को बढ़ावा देने में लग जाते हैं.

लेकिन यह तो सोशल मीडिया और फोन-इंटरनेट पर कई तरह के संदेशों की सहूलियत का एक पहलू हुआ. ऐसी गैरजिम्मेदारी से परे कई दूसरे पहलू भी हैं. जिस तरह बरसों से एक इश्तहार चले आता है कि उसकी कमीज मेरी कमीज से अधिक सफेद कैसे? कुछ ऐसा ही हाल सोशल मीडिया पर लोगों का रहता है जो एक-दूसरे की दोस्तों की फेहरिस्त में अधिक लोगों को, अधिक महत्वपूर्ण लोगों को, अधिक मशहूर लोगों को, या अधिक खूबसूरत लोगों को देखते हैं, और चाहे-अनचाहे उनसे अपनी तुलना करना शुरू कर देते हैं. सड़कों पर जिस तरह किसी और की महंगी गाड़ी, महंगे मोबाइल, महंगे कपड़े, या खूबसूरत साथी देखकर बहुतों के दिल जलते हैं, बहुत लोग कुढ़ते हैं, उसी तरह सोशल मीडिया पर लोगों के इर्द-गिर्द छाई चीजों, छाए लोगों को देखकर बहुत से लोग हीनभावना से भर जाते हैं.

फिर दूसरों को देखे बिना भी अपने आपमें लोगों का हाल कुछ गड़बड़ रहता है. जो लोग फेसबुक या ट्विटर पर कुछ पोस्ट करते हैं, उनकी बेचैनी बनी रहती है कि उनकी बातों को, उनकी तस्वीरों को, या उनके पोस्ट किए हुए संगीत को कितने लोगों ने पसंद किया, किन-किन लोगों ने पसंद किया, किन-किन लोगों ने आगे बढ़ाया, और किन लोगों ने उस पर क्या कमेंट किया. यह बेचैनी बहुत लोगों को रात नींद टूटने पर अपने फोन की तरफ धकेलती है, और काम के बीच पल-पल में लोग देखने लगते हैं कि उनके सोशल मीडिया खाते पर कोई भी हलचल हुई है क्या? यह बेचैनी लोगों को सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता के अनुपात में ही खुशी, निराशा, तकलीफ, या उत्तेजना देते चलती है, और यह कल तक इंसानी मिजाज में नहीं थी, और आज एकाएक उसने दिल-दिमाग पर कब्जा सा कर लिया है.

फिर वे लोग कुछ और अधिक बेचैन रहते हैं जो अपने जीवन-साथी, अपने प्रेम-साथी, अपने सहकर्मी, अपने सहपाठी, और अपने परिवार के लोगों का हालचाल भी इन सोशल मीडिया पर देखते चलते हैं. उनके साथ क्या हो रहा है, वे क्या कर रहे हैं, इसे लेकर भी लोगों की बेचैनी बनी या बढ़ी रहती है, और इससे लोगों के पारिवारिक संबंध कम या अधिक दूर तक प्रभावित तो हो ही रहे हैं. कल तक इन तमाम बातों का जिंदगी में कोई लेना-देना नहीं था, और आज इसने लोगों की सोच का एक खासा हिस्सा कब्जे में ले रखा है, और इसने सुख-चैन से लेकर उत्पादक समय तक खासा नुकसान लोगों का किया है.

फिर एक बात यह भी है कि अगर लोगों का सोशल मीडिया पर दायरा जिम्मेदारी से तय नहीं होता है तो वे कई किस्म से समय बर्बाद करने लगते हैं. महज गुदगुदी देने वाले लोगों के दायरे में जीने वाले लोग जिंदगी की असल हकीकतों से और कट जाते हैं, उनका समय कुछ और अधिक बर्बाद होता है, समाज के लिए उनकी उत्पादकता और घट जाती है. नतीजा यह होता है कि जिन मनुष्यों को एक सामाजिक प्राणी कहा जाता है, वे अपनी पसंद के दूसरे सामाजिक प्राणियों के साथ एक कटघरे में अपने आपको कैद कर लेते हैं, और समाज को उनसे कुछ मिलना बंद सा हो जाता है.

सोशल मीडिया के एक और पहलू को देखें तो इसमें चूंकि दूर बैठे लोग भी आपस में मन के रिश्ते बना सकते हैं, ऐसे रिश्ते लोगों की अपनी असल निजी जिंदगी में मन या तन की अपूरित चाह के विकल्प की तरह भी लगने लगते हैं. जो लोग असल जिंदगी में उपेक्षित रहते हैं, उनको भी अपनी सच्ची या झूठी तस्वीर के साथ सोशल मीडिया पर चाहने वाले लोग मिल जाते हैं, ऐसे चाहने वाले लोग जिनकी चाह सच्ची या झूठी हो सकती है, जो खुद सोशल मीडिया पर सच्चे दिख सकते हैं, या झूठे भी हो सकते हैं. इस तरह दो लोग, दोनों ही अपनी झूठी तस्वीरें पेश करते हुए, झूठी जरूरत या झूठी चाहत पेश करते हुए, और दूसरे के लिए झूठी मोहब्बत या झूठी दोस्ती दिखाते हुए एक नया रिश्ता गढ़ सकते हैं.

इंटरनेट और सोशल मीडिया की मेहरबानी से ऐसे ऑनलाईन रिश्तों की खासी ऊंची इमारत बिना जमीन के खड़ी हो सकती है, और उसके सामने खड़े होकर लोग एक मालिकाना-तसल्ली से उसे निहार सकते हैं कि उनके रिश्ते कितने मजबूत और कितने ऊंचे हैं. ऐसी इमारतें सोशल मीडिया पर बनती और गिरती रह सकती हैं, और इसके मलबे-तले लोगों का आत्मविश्वास, उनका व्यक्तित्व, और उनकी भावनाएं ये सब कई बार कुचल भी सकते हैं.

आज भारत जैसे लोकतंत्र में सरकार और राजनीति, सामाजिक और धार्मिक, जातीय और आध्यात्मिक संगठन जितनी आलोचना, जितना विरोध, या जितनी असहमति बर्दाश्त कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक अपने आपको सोशल मीडिया पर लोग उजागर करते चलते हैं. सोशल मीडिया की मेहरबानी से आज साम्प्रदायिक लोग अपने छुपे हुए लंबे दांतों, और छुपे हुए नुकीले नाखूनों के साथ उजागर हो जाते हैं.

इसी तरह उनके विरोधी और अमन-पसंद लोग भी अपनी भलमनसाहत के साथ उजागर हो जाते हैं. लोगों की राजनीतिक सोच और उनकी पसंद-नापसंद भी उजागर हो जाती हैं. भारत जैसा लोकतंत्र ऐसे उजागर-भांडाफोड़ को बर्दाश्त करने जितना परिपक्व नहीं है. इस पर लोगों का बोलना आसान है, लेकिन इस पर बोले हुए के बाद में जाने-अनजाने दाम चुकाना आसान नहीं रहता. यह अभिव्यक्ति की एक ऐसी स्वतंत्रता है, जिसके दाम के लेबल दिखते नहीं है, लेकिन बाद में वे आपके खाते से कट जाते हैं.

सोशल मीडिया की यह कथा अनंत है, लेकिन इस पर और चर्चा होनी चाहिए. इसके सामाजिक और मानसिक पहलुओं पर और बात होनी चाहिए. सोशल मीडिया अब न लौटने वाला, खत्म न होने वाला एक माध्यम बन चुका है, और इसके बेहतर इस्तेमाल के बारे में सोचना चाहिए. आज समाज में बहुत से कागजी और खोखले मुद्दों पर सामाजिक और दीगर किस्म के संगठन बहुत सी बहसें करते हैं, कुछ बहसें सोशल मीडिया पर भी होनी चाहिए, जो कि आज बहुत से लोगों की जिंदगी के बहुत से हिस्से पर असर डाल रहा है.

बात इसलिए भी जरूरी है कि लोग हिंसा और नफरत की जैसी बातें सोशल मीडिया पर कर रहे हैं, और उनसे वे जैसी सजा के हकदार बनते जा रहे हैं, उसका उनको एहसास भी नहीं है. ऐसी अनजान, नासमझ, या गैरजिम्मेदार पीढिय़ों को खतरों से आगाह कराने के लिए भी भारत के सोशल मीडिया के पहलुओं पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिए.

*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक हैं.

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