इतिहास

रेशमलाल जांगड़े को सबने भुला दिया

आलोक पुतुल | रायपुर: देश की पहली संसद के सदस्य रेशमलाल जांगड़े को जीते जी भुला दिया गया. पहली लोकसभा के लिये चुने गये लोगों में से केवल तीन ही लोग अब इस दुनिया में बचे हुये हैं, जिनमें एक नाम रेशमलाल जांगड़े का है. रेशमलाल जांगड़े के अस्पताल में भर्ती होने के बाद उनको देखने जाने वाले लोगों की संख्या भले बहुत बड़ी हो लेकिन रेशमलाल जांगड़े को इस बात की शिकायत लगातार बनी रही कि पार्टी ने उन्हें अकेले छोड़ दिया.

कुछ साल पहले तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार जब उनके जनता क्वार्टर में पहुंची थी तो एक बार फिर से लोगों का ध्यान उनकी ओर गया था. बाद में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पटेल ने 13 मई 2012 को लोकसभा के 60 साल पूरे होने पर उन्हें सम्मानित किया था.

रायपुर के जनता क्वार्टर में रहने वाले 88 साल के रेशमलाल जांगड़े पहली बार 1950 में अंतर्कालीन संसद मनोनीत हुए थे.

बाद में 1952 में उन्होंने बिलासपुर से चुनाव जीता और देश की पहली लोकसभा के सदस्य बने. 1957 और 1989 में भी वे सांसद के रुप में चुने गए. इस दौरान वे दो बार मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य भी बने. लेकिन इन तमाम राजनीतिक उपलब्धियों के बाद भी उन्हें अपने ही शहर में भुला दिया गया. जिन राजनीतिक पार्टियों में वे लगभग 55 साल से भी अधिक समय तक सक्रिय रहे, उन्होंने भी इनकी सुध नहीं ली. दुख-सुख में कोई पूछने नहीं आया. पुराने साथी रहे नहीं और नई पीढ़ी उनके बारे में जानती नहीं.

दो साल पहले इन पंक्तियों के लेखक ने बीबीसी के लिये उनसे खास बातचीत की थी.

एक गांव से निकल कर दिल्ली की संसद में पहली बार पहुंचे रेशमलाल जांगड़े को संसद का पहला दिन याद था. बकौल रेशमलाल जांगड़े-“लगा कि बैठे हुए लोगों के जंगल में आ गए, भीड़ में आ गए. फिर बाद में सहज हुए तो पानी-वानी पिया और फिर लोगों से भेंट- मुलाकात हुई. शास्त्री जी से मुलाकात हुई और फिर भीम राव अंबेडकर से. उन दिनों की राजनीति में जो लोग थे, वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते थे, वहां के लोगों से उनकी चर्चा होती थी, बातचीत होती थी. अब ऐसा नहीं है. यहां तक कि आज की राजनीति में जनता के मुद्दे भी अब बहुत कम उठ पाते हैं.”

जब रेशमलाल जांगड़े राजनीति में आये, उस ज़माने की राजनीति की भी अपनी दुश्वारियां थीं. छत्तीसगढ़ के दलित सतनामी समाज में जन्मे रेशमलाल जांगड़े बरसों तक अस्पृश्यता का भेदभाव झेलते रहे. नागपुर से वकालत की पढ़ाई करके लौटे रेशमलाल जांगड़े अपने समाज के पहले वकील थे और बाद में पहले सांसद भी बने. लेकिन सामाजिक भेदभाव कम नहीं हुआ.

1954 में लोकसभा में पेश किये गए अस्पृश्यता निवारण विधेयक पर जोरदार बहस कर रेशमलाल जांगड़े जब वापस अपने गांव लौटे तो इलाके में बड़ी जातियों की त्योरियां चढ़ी हुई थी.

अंग्रेजों के खिलाफ 1942 के आंदोलन में भाग लेने और जेल की हवा खाने वाले रेशमलाल जांगड़े को इस बात का गहरा दुख है कि आजादी के बाद भी सरकार और व्यवस्था से उन्हें लड़ना पड़ा.

रेशमलाल जांगड़े के अनुसार “बरसों तक पिछड़ी जाति के लोग भी हमारे साथ छूआछूत का भेदभाव रखते थे. सांसद बनने के बाद भी मुझे अपने गांव के आस पास के इलाके में बैठने के लिए कुर्सी या खाट नहीं दी जाती थी. 1955-56 में जब मैं सांसद की हैसियत से कहीं किसी आयोजन में पहुंचता था तो कई बार ऐसे अवसर आए, जब सवर्णों ने मुझे अलग बैठाया. होटलों में प्रवेश तो बंद था ही, नाई हमारे बाल नहीं काटते थे और धोबी हमारे कपड़े नहीं धोते थे. इस स्थिति को बदलने में कई साल लग गए.”

रेशमलाल जांगड़े ने 1972 में आठ हजार रुपये में जिस जनता क्वार्टर को अपने कार्यालय के लिए लिया था, उसी छोटे मकान में उन्होंने अपनी पेंशन के सहारे उम्र गुजार दी, इस अफसोस के साथ कि अगर उम्र ने साथ दिया होता तो वंचितों के हक़ की लड़ाई कुछ दिन औऱ जारी रख पाते.

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