Columnist

BJP के जीत के ढोल की पोल

राजेंद्र शर्मा
संयोग ही सही, पर यह बहुत अर्थपूर्ण संयोग था. पांच राज्यों के विधानसभाई चुनावों के नतीजों की कहानी मोदी सरकार की दूसरी सालगिरह के जश्न का मजा किरकिरा कर सकती थी. पहले दिल्ली और उसके बाद बिहार के चुनाव में, खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह की करारी हार का मुंह देखना पड़ा था, उसके बाद सवाल मोदी की अपराजेयता का नहीं, उनमें भाजपा को अब और जीत दिलाने का दम रहने या नहीं रहने का हो गया था. ऐसे में नतीजों की खराब कहानी, मोदी सरकार से बढक़र खुद भाजपा में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के लिए, बुरी खबर हो सकती थी. यानी चुनाव नतीजे कैसे भी हों उनके गिर्द विजय की कहानी गढऩे की जरूरत थी.

लेकिन, इसी में तो मोदी ‘‘भक्तों’’ को सबसे ज्यादा महारत हासिल है. 19 मई को चुनाव के नतीजे आने से पहले ही पटकथा तैयार की जा चुकी थी. मतगणना के दिन दोपहर तक, इस पटकथा में कुछेक आंकड़े भरे जा चुके थे और शाम से पहले-पहले, राजधानी दिल्ली में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की ‘विजयी’ जोड़ी का, छतों से गुलाब की पंखुडिय़ां बरसाकर स्वागत कर, भाजपा की जबर्दस्त जीत का एलान किया जा चुका था. हां! शाह ने बड़ी चतुराई से इस कहानी पर ‘कांग्रेस-मुक्त भारत की ओर दो और कदम’ की हैडलाइन चस्पां कर दी, ताकि इन चुनावों में भाजपा के वास्तविक नतीजों के बजाए, कांग्रेस की पिटाई की ओर ध्यान मोड़ दिया जाए.

अचरज नहीं कि कुल-मिलाकर विधानसभाई चुनावों के इस चक्र के नतीजों के बारे में लोगों की पहली धारणा मीडिया से छनकर यही कहानी बना रही थी. कांग्रेस के आधार के सिकुडऩे को स्वत: ही भाजपा के बढ़ते आधार का पर्याय बना दिया गया. इसी क्रम में तुलना के संदर्भ के रूप में, 2014 के लोकसभा चुनाव के भाजपा के प्रदर्शन को सिरे से ही गायब कर दिया गया.

इस तरह, एक ओर इन चुनावों को नरेंद्र मोदी की सरकार और मोदी की भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता का सबूत बनाने की कोशिश की जा रही थी और दूसरी ओर, ठीक उन्हीं मोदी को आगे रखकर लड़े गए तथा दो साल पहले मोदी सरकार बनवाने वाले चुनाव से तुलना से बचने की हरमुमकिन कोशिश की जा रही थी. इस तरह इन चुनावों में स्पष्ट रूप से नजर आने वाली मोदी की भाजपा की लोकप्रियता के, मोदी राज के दो साल में ढलान पर पहुंच जाने की कहानी को, मोदी के राज और उनकी भाजपा की सफलता के मिथक के नीचे दबा दिया गया.

बेशक, इस मिथक के निर्माण तथा प्रसार में असम के चुनाव नतीजों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. भाजपा कम से कम असम को कांग्रेस-शासन से मुक्त कराने के श्रेय का दावा तो कर ही सकती है. उसने उत्तर-पूर्व के इस महत्वपूर्ण राज्य में न सिर्फ पहली बार अपनी सरकार बनाने की हैसियत हासिल की है बल्कि 126 सदस्यीय विधानसभा में खुद अपनी 60 और अपनी सहयोगी असम गणपरिषद की 14 तथा बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट की 12 सीटों को जोडक़र, दो-तिहाई बहुमत हासिल किया है.

लेकिन, यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा को यह कामयाबी, असम गण परिषद तथा बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट के साथ समझौते ने ही दिलायी है. यह तब है जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में ही 36.6 फीसद वोट हासिल कर भाजपा ने कांग्रेस पर 7 फीसद वोट की बढ़त बना ली थी. इसके ऊपर से उस चुनाव में मिलकर 6 फीसद वोट हासिल करने वाली इन दोनों पार्टियों के साथ भाजपा के गठजोड़ करने के बाद, असम में भाजपा गठबंधन की जीत में शायद ही कोई संदेह रह गया था. इसमें इतना और जोड़ लिया जाए कि असम गणपरिषद के धर्मनिरपेक्षता के सारे दावों के बावजूद, ‘विदेशी/ बांग्लादेशी घुसपैठ’ के विरोध के नाम पर, संघ-भाजपा ने इस चुनाव में बड़ी कामयाबी के साथ सांप्रदायिक धु्रवीकरण किया है.

इसी के चलते, जैसाकि लोक नीति का अध्ययन बताता है, इस चुनाव में 62 फीसद हिंदुओं ने इस मोर्चे को वोट दिया है. यह बात दूसरी है कि इसके बावजूद, इस चुनाव में भी कांग्रेस को भाजपा के 29.5 फीसद वोट के मुकाबले में, 31 फीसद वोट हासिल हुआ है. वास्तव में संसदीय चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट में 7 फीसद से ज्यादा की कमी ही दर्ज हुई है (जिसमें इस चुनाव में सीटें कम लडऩे से हुई कमी भी शामिल है) जबकि कांग्रेस के वोट में इन दो चुनावों के बीच 1.5 फीसद की बढ़ोतरी हुई है. भाजपा के नेतृत्ववाले गठजोड़ का कुल वोट 41.5 फीसद बैठता है, जबकि विधानसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टियों, कांग्रेस और एआइयूडीएफ का संयुक्त वोट, 44 फीसद बैठता है. वैसे विडंबना यह भी है कि असम में भाजपा के नेतृत्ववाली पहली सरकार का नेतृत्व अगप तथा कांग्रेस से ‘हासिल’ किए गए नेतागण, क्रमश: सोनोवाल तथा हेमंत विश्वशर्मा का ही संभालना तय है!

केरल में ‘शानदार कामयाबी’ के भाजपा के दावों का मामला और भी विचित्र है. बेशक, केरल विधानसभा में पहली बार प्रवेश पाने को अपनी कामयाबी कहने का भाजपा को पूरा अधिकार है. लेकिन, इसके साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आमतौर पर यह माना जा रहा है कि यह कामयाबी भी कांग्रेस की परोक्ष कृपा से ही संभव हुई है. बेशक यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि तिरुअनंतपुरम की जिस निमोम सीट से भाजपा को कामयाबी मिली है, उस पर इस चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार को 14 हजार वोट भी नहीं मिले हैं, जबकि दो साल पहले संसदीय चुनाव में इसी चुनाव क्षेत्र से यूडीएफ के हिस्से में पूरे 32,000 वोट आए थे! अचरज की बात नहीं कि 67 हजार से ज्यादा वोट लेकर, भाजपा के उम्मीदवार ने इस बार इस सीट से सीपीएम के उम्मीदवार को, करीब 8 हजार वोट के अंतर से हरा दिया!

जाहिर है कि यह लगातार नौ चुनाव हार चुके बुजुर्ग भाजपा नेता के लिए, उसके अपने शब्दों में उसके ‘अंतिम चुनाव’ के लिए इकतरफा ‘गिफ्ट’ का ही मामला नहीं था. अमित शाह ने वोट में भारी बढ़ोतरी के जो दावे किए हैं उनमें आधा सच ही है. एसएनडीपी योगम के नाम पर गठित, जिस जातिवादी पार्टी बीडीजीएस के सहारे भाजपा, केरल की राजनीति में पांव जमाने की कोशिश कर रही थी, उसे खुद तो इस चुनाव में करारी हार का मुंह देखना पड़ा है और उसके प्रभाव के मुख्य क्षेत्र माने जाने वाले, अल्लपुझा तथा कोल्लम जिलों में भी उसका हाथ खाली ही रहा है. फिर भी भाजपा के नेतृत्ववाला यह सांप्रदायिक-जातिवादी गठजोड़, इस चुनाव में लगभग 15 फीसद वोट हासिल करने में कामयाब रहा है.

दो साल पहले हुए संसदीय चुनाव के भाजपा के वोट के मुकाबले करीब 5 फीसद की वोट की यह बढ़ोतरी, जो लगभग सब की सब यूडीएफ के वोट में 4 फीसद की गिरावट से ही आयी थी, यूडीएफ के लिए भाजपा का रिटर्न गिफ्ट थी. किसी अन्य स्थिति में यह यूडीएफ विरोधी वोट जाहिर है कि एलडीएफ के ही पाले में गया होता. यह दूसरी बात है कि यह रिटर्न गिफ्ट भी केरल में यूडीएफ को बचा नहीं सका. वैसे यह भी गौरतलब है कि इस विधानसभाई चुनाव में खुद भाजपा को 10.5 फीसद वोट ही मिला है, जो दो साल पहले हुए संसदीय चुनाव से सिर्फ 0.2 फीसद ज्यादा है.

गिफ्ट और रिटर्न गिफ्ट का कुछ ऐसा ही खेल बंगाल में भी भाजपा ने सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के साथ खेला, पर जरा अलग स्टाइल में. केरल की निमोम सीट की तरह ही, बंगाल की खड्गपुर सीट तो भाजपा राज्य अध्यक्ष को बाकायदा तृणमूल से गिफ्ट में मिली मानी जा रही है. नौ बार से लगातार जीत दर्ज कराते आए, बुजुर्ग कांग्रेस नेता सरदार सोहनपाल को, तृणमूल के वोट रहस्यमय तरीके से गायब हो जाने ने, भाजपा के हाथों हरवाया.

दो और सीटें लेकर, भाजपा विधानसभा में पिछली बार का अपना आंकड़ा भले बनाए रही हो, पर दो साल पहले ही हुए संसदीय चुनाव के मुकाबले उसके मत फीसद में पूरे 6.6 फीसद की गिरावट दर्ज हुई है और उसका मत फीसद 16.8 फीसद से गिरकर, इस चुनाव मे 10.2 फीसद पर आ गया है. सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को इस चुनाव में, लोकसभा चुनाव के 39.3 फीसद के ऊपर से जो 5.6 फीसद मिला, लगभग सब का सब भाजपा की ओर से प्रवाहित हो रहा था. याद रहे कि इस चुनाव में अपनी सारी नाकामी के बावजूद, वाम मोर्चा और कांग्रेस ने मामूली घटत-बढ़त के साथ, लोकसभा चुनाव के 39 फीसद से ज्यादा के अपने संयुक्त मत स्तर को बनाए रखा है. इस तरह ‘मोदी भाई-दीदी भाई’ के परोक्ष जोट ने ही इस चुनाव में बंगाल में लेफ्ट-कांग्रेस के कमोबेश प्रत्यक्ष जोट को हराया है.

बचे तमिलनाडु और पोंडिचेरी, तो वहां भाजपा की जबर्दस्त सफलता के बारे में कुछ न कहना ही ठीक होगा. सीटों के मामले में तो दोनों राज्यों में भाजपा के हिस्से में शून्य आया ही है, तमिलनाडु में भाजपा का वोट, लोकसभा चुनाव के समय के अनेक पार्टियों के गठबंधन में मिले 5.5 वोट से लुढक़कर, इस बार 2.8 फीसद ही रह गया है.

ऐसा ही किस्सा पोंडिचेरी का है, जिसका भाजपा की कायमाबी की कहानी में जिक्र तक नहीं किया जाता है क्योंकि वहां इस चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी है यानी यह राज्य कांग्रेस-मुक्ति से उल्टी दिशा में बढ़ा है. कुल मिलाकर सच यही है कि पांच राज्यों में हुए कुल 822 सीटों के चुनाव में से भाजपा को सिर्फ 62 सीटें मिली हैं जबकि 115 सीटें तो कांग्रेस को ही मिली हैं. और असम को अगर छोड़ दें तो बाकी चार राज्यों में उसे सिर्फ 4 सीटें मिली हैं. फिर भी अमित शाह का दावा है कि इस चुनाव से 2019 के आम चुनाव के लिए जीत का सिलसिला शुरू हो गया है. यही अगर जीत है तो हार किसे कहते हैं!

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